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स्त्री.... - (भाग-1)

स्त्री एक ऐसी खूबूसरत औरत की कहानी है जिसका जीवन संघर्ष से भरा हुआ था। जिसने हर चुनौती से लड़ते हुए अपने आत्मसम्मान को बचाए रखा और अपने आप को समाज में स्थापित कर ये दिखा दिया कि एक औरत चाहे तो क्या नहीं कर सकती? बस यही है कहानी की नायिका जानकी की कहानी उसकी जबानी.....

स्त्री.........

मैं जानकी एक बहुत ही साधारण परिवार में असाधारण खूबसूरती लिए पैदा हुई थी। पिताजी एक सरकारी कर्मचारी थे और माँ गृहिणी। हम लोग तीन बहन भाई थे और मैं सबसे बड़ी। मुझे पढ़ना बहुत अच्छा लगता था पर हमारे यहाँ लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया लिखाया नहीं जाता था आज से लगभग 30 साल पहले। वैसे तो हम तीनों ही होशियार थे, बहुत मुश्किल से पिताजी ने 8 कक्षा तक पढने दिया क्योंकि आगे पढने के लिए लड़को के साथ सहशिक्षा स्कूल जो एकमात्र सरकारी स्कूल था जाना पढता.....इसलिए गाँव में लड़कियों को पढने के सपने को आँखों में ही दफनाना पड़ता..।
मुझे नाचना भी बहुत अच्छा लगता था,उस समय नाचना भी ज्यादा अच्छा नहीं माना जाता था, पर मुझे जब भी समय मिलता बस शुरू हो जाती। उन्हीं दिनों सुनने में आया कि हमारे गाँव में ही नदी पार एक गुरू जी ने छोटी सी नृत्यशाला बनायी है, जिसमें क्लासिकल डांस सिखाया जाता है। न जाने क्या सोच कर गुरूजी ने नृत्यशाला बनायी थी!! लड़कों को इसमें रूचि नहीं थी और लड़कियों को इजाजत नहीं मिलती थी। पहले उन्होंने छोटी छोटी आसपास की लड़कियों को मुफ्त में सिखाना शुरू किया। हमारे पड़ोसी की छोटी बेटी शोभा जिसने बस तीसरी तक पढ कर पढाई छोड़ दी थी, उसने भी जाना शुरू किया तो मैं भी अपने पिताजी से जिद करने लगी। पिताजी कला प्रेमी थे तो उन्होंने मुझे इस शर्त पर सीखने भेजने की रजामंदी दी कि मुझे माँ से खाना बनाना और बाकी घर के काम भी सीखने होंगे। मैं इतनी खुश थी कि मैंने उनकी शर्त मान ली।
माँ ने भी मेरी जिद देख कर हाँ तो कर दी पर इस शर्त पर कि छोटा भाई मेरे साथ आया जाया करेगा। मैं इस बात से बहुत नाराज थी, पर मुझे सीखना था तो मैंने उनकी ये बात भी मान ली।अगले दिन ही मैंने वहाँ दाखिला ले लिया। घर में माँ की मदद करने के बाद मैं और शोभा छोटे भाई राजन के साथ सीखने जाने लगे। हमारे गुरूजी पंडित गोपालन अय्यर बहुत ज्यादा उम्र के नहीं थे और देखने में बहुत आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे। हम जब तक नृत्य सीखते तब तक राजन बाहर खेलता रहता.........
या अपने उम्र के लडकों के साथ नदी के पास चला जाता, अपना स्कूल का बस्ता वो मेरे पास छोड़ जाता और वापिस मुझे घर के पास छोड़ कर पढने चला जाता........राजन का स्कूल 1 बजे से शुरू होता था इसलिए हमने सुबह का समय चुना। घर आ कर मैं खाना बनाने में मदद करती तब तक छोटी बहन माया भी स्कूल से आ जाती।
दोपहर का खाना तैयार होने के बाद माँ राजन के स्कूल उसको खाना देने जाती।
धर पर जब दोपहर को माँ आराम करती तो मैं छाया के सामने अपनी अभ्यास करती.......।
मेरी लगन देख कर गुरूजी बहुत खुश होते थे और खूब शाबाशी भी देते। उस समय हमारे और आसपास के गाँवों में दुर्गा पूजा के समय मेला लगा करता था।जिसमें अनेकों प्रतियोगिताएँ होती थी। उस साल हमारे गुरूजी ने पड़ोसी गाँव में नृत्य की प्रतियोगिता में मेरा नाम लिखवा दिया था। गुरूजी ने पिताजी को तो राजी कर लिया था, पर माँ को ये पसंद नहीं आया, पिताजी के फैसले के कारण वो बस गुस्सा करके चुप हो गयी.....!!
पिताजी भी आए थे उस दिन प्रतियोगिता देखने...... मैंने पहला इनाम पाया था। गुरूजी बहुत खुश हुए और उन्होंने पिताजी के सामने मेरी बहुत तारीफ की। मैं उस दिन बहुत खुश थी....वैसे तो मैं अपने गाँव में होने वाली रामलीला में भी सीता का रोल 2-3 साल से निभाती आ रही थी और अपने काम की तारीफ सुनती रही थी, पर गुरूजी से अपनी तारीफ सुन कर मैं मानों आसमान में उड़ रही थी.........मुझे इनाम में तब 500 रूपए मिले थे जो मेरे लिए बड़ी रकम थी.....!! घर आ कर पिताजी ने माँ से मुझे काला टीका लगाने को कहा। माँ भी मेरी जीत से खुश थी, पर न जाने क्यों उन्हें लगता था कि मैं बिगड़ जाँऊगी या फिर उनके हाथ से निकल गयी तो मुझसे शादी कौन करेगा?? बस इसी वजह से वो मेरी जल्द से जल्द शादी करा देना चाहती थी...... पिताजी को माँ की ये बात माननी पड़ी और मेरे लिए दूल्हे की खोज शुरू हो गयी......।
उस समय मैं15 साल की थी। सही गलत का इतना पता नहीं चलता था, चूंकि मैं जिस माहौल में पली बड़ी थी वहाँ लड़कियों की माहवारी शुरू होने पर ही काफी कुछ समझा दिया जाता है, जबकि जरूरी नहीं होता कि शारीरिक और मानसिक विकास एक साथ ही हो जाता है......माहवारी की प्राकृतिक शुरूआत हम लोगों के लिए कुछ और सोचने के रास्ते बंद करना जैसा था। इसके बाद जल्दी से जल्दी लड़की के हाथ पीले करने की कवायद शुरु हो जाती थी, शायद कई जगह आज भी ऐसा हो रहा होगा। लड़को के साथ बात मत करो, हँसो मत, लड़को के साथ खेलना बंद और तो और अपने भाइयों से भी दूरी बना कर रहो......जैसी वर्जनाएँ बंधन लगता था मुझे।
ये गनीमत थी कि पिताजी के कला प्रेम की वजह से मुझे मेरा एक सपना पूरा करने का मौका मिल रहा था.......। गुरूजी के पास काफी लड़कियाँ जिनमें मेरी उम्र की भी कई थी, सीखने आने लगी थीं......... गुरूजी को देख कर कई लड़कियाँ हँसी मजाक किया करती थी, उनके लिए आहें भी भरा करतीं और अपने होने वाले पति की उनके जैसे होने की कल्पना करने लगी थी.....!!!
मेरी बातें पढ़ कर आप भी हँसोगे कि 15 साल की लड़कियों को कहाँ इतनी समझ होती है.....कहा जाता है कि गाँवों में लड़कियाँ जल्दी बड़ी और समझदार हो जाती हैं........शायद इसका कारण अशिक्षा की वजह से दिमाग उतना खुला नहीं होता फिर हमारे जैसे गरीब घरों में 1-2 कमरों में सिमटे घर के 8-10 सदस्य कितना परदा रह पाता है???
किसी के घर में आई नयी भाभी तो किसी की बहन शादीशुदा तो किसी की नई आयी चाची, हम अपने आस पास काफी कुछ देखते हैं और फिर वैसे ही कुछ करने का कौतुहल भी हमें होना स्वाभाविक था........!! बस ऐसा कुछ ही हमारे साथ था। उम्र तो कच्ची ही थी ऊपर से हमारे गुरूजी जो एकमात्र पुरूष थे हम लड़कियों के बीच........न चाहते हुए भी हम में से कई लड़कियाँ उनके व्यक्तित्व से खींची चली जा रही थी......जिस किसी से भी वो प्यार से बात कर लेते या मुस्कुरा देते उसका तो दिन बन जाता।
सीमा बी.