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स्त्री.... - (भाग-3)

स्त्री.......(भाग-3)

बारात दूर से आने वाली थी तो 2-3 दिन रुकने का इंतजाम किया गया था.... 10-15 लोगो की बारात थी और बाकी हमारे गाँव के लोग और रिश्तेदार....शादी हँसी खुशी निपट गयी...पिताजी ने बहुत कहा कि विदाई एक दिन रूक कर की जाए पर दूल्हे ने बहुत काम है, कह कर अगले दिन ही चलने की ठान ली....पर मेरी सास ने कहा कि विदाई में दुल्हन का भाई साथ जाता है और फिर अपनी बहन को पग फेरे के लिए साथ ले आता है, पर हम बहुत दूर रहते हैं तो परेशानी होगी ...ये सोच कर राजन हमारे साथ गाँव के मंदिर तक गया और वहाँ कुछ रस्में करवा कर मुझे घर ले आया.......इस तरह मेरे पगफेरे की रस्म निभायी गयी.....अगले दिन पिताजी ने ताँगे वगैरह का इंतजाम कर दिया था रेलवे स्टेशन जाने के लिए।
आधा गाँव आया था हमें स्टेशन तक छोड़ने......माँ,पिताजी ,राजन और छाया से गले मिल कर मुझे सास और ननद ने हाथ पकड़ कर ट्रैन में बिठा दिया...। मेरे पति सब से आशीर्वाद ले कर मेरी सामने वाली सीट पर बैठ गए....माँ की हिदायतें खत्म ही नहीं हो रही थीं और वो बार बार मेरी सास और पति से विनती कर रही थी कि मेरी गलतियों को बच्ची समझ कर माफ कर देना.....शायद सभी बेटियों की माँ इतनी ही घबरायी रहती होंगी उनकी विदाई पर......कहाँ तो माँ हर वक्त गुस्सा करती रहती थी और हमेशा मुझे दूसरे ते घर में भेजने को तैयार रहती थी,वही आज बिलख बिलख कर रो रही थी....मुझे पहले रोना नहीं आ रहा था,पर माँ को रोते देख मैं अपने आप को रोने से रोक न पायी.......पूरे दो दिन लग गए ससुराल पहुँचने में....ट्रेन में सब आपस में बातें कर रहे थे और मैं चुपचाप गठरी सी बनी बैठी थी और रात को ऐसे ही बैठी बैठी सो गयी तो देवर ने कहा भाभी ऊपर वाली सीट पर जा कर सो जाओ......ननद की मदद से मैं ऊपर जा कर सो गयी। मेरे पति ने पूरे रास्ते मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा, बस हम चुपचाप एक दूसरे को देख रहे थे....मेरी ननद जो शायद मेरी ही उम्र की थी वो घर के बारे मैं बताती रही और ये भी बताया कि उसके बड़े भाई साहब बहुत शर्मीले हैं......।।
मेरा देवर सुनील कॉलेज में पढाई कर रहा है और मेरी ननद सुमन 10वीं कक्षा में पढती है, उसने बताया कि शहर में सभी लड़कियाँ पढती हैं। बातों ही बातों में उसके मुँह से निकल गया कि आप बहुत सुंदर हो, इसीलिए आप को पसंद किया है, वरना भाई साहब को पढी लिखी लड़कियाँ पसंद हैं......बहुत बोलती है तू सुमी....मेरी सास ने उसकी बातें सुन कर उसको गुस्सा किया और मेरे पास बैठते हुए बोली.....बहु मेरा सुधीर बहुत कम बोलता हैऔर शर्मिला भी है, उसकी पसंद से ही ये शादी हुई है।
हाँ भाभी मैं तो मजाक कर रही थी, हँसते हुए सुमन ने कहा तो मैं समझ नहीं पायी की वो पहले झूठ बोल रही थी या अब।
उस टाइम भी मेरे पति सब सुनते हुए भी अनसुना करके लेटे रहे.......मुझे बुरा तो लग रहा था पर कुछ कह पाने का ठीक टाइम नहीं था, माँ ने वैसे ही बार बार कह कर भेजा था कि सवाल कम करना और सबका कहना मानना तभी पति और सब खुश रहते हैं.....।
मैं डरी हुई भी थी क्योंकि उस दिन गुरूजी नाराज हो गए थे और अब पति भी मुझसे खुश नहीं हुआ तो सब बहुत गुस्सा करेंगे ......काफी असंमजस में थी कि किस बात का क्या जवाब दूँ, इसलिए चुप रहना मुझे ठीक लगा ।
रास्ते के लिए काफी सारा खाना और मिठाइयाँ पिताजी ने साथ के लिए दी थी। मेरे पति अपने मामा और मौसा जी के साथ बैठे थे ......मेरी ननद और देवर सबको खाना परोस देते एक दिन यूँही बीत गया......अगले दिन तक खाना थोड़ा खराब सा लगा तो स्टेशन पर जब ट्रेन रूकी तो फल और थोड़ा बहुत कचौरी और आलू की सब्जी ले आए तो वही खायी.....शाम गहराने तक हम आज की मुंबई और तब की बंबई में पहुँच गए।
काली और पीली रंग की टैक्सियाँ स्टेशन के बाहर लाइन में खड़ी थी....धक्का मुक्की इतनी थी जैसे सब आज ही हमारे साथ इस शहर में आ गए हैं.......नयी दुल्हन को मेरे ससुराल वाले बहुत ध्यान और संभाल कर बाहर ले कर आए, मेरी पति को शायद सबसे जल्दी थी, तभी तो वो सबसे आगे तेज कदमों से चले जा रहे थे.....जितने रिश्तेदार थे वो बहुत थके हुए थे सो वो सीधा ही अपने अपने घर चले गए.....मेरी सास चाहती थी कि बाकी की रस्मों के लिए वो लोग साथ चलें पर उन्होंने मना कर दिया....। हमारे पास सामान ज्यादा था तो 2 टैक्सी लेनी पड़ी.....। ऐसा लगा काफी देर से हम गाड़ी में एक ही जगह रुके से हैं, घर पहुँचने तक आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे और चाँद अपनी आधी शक्ल दिखा कर जैसे मुझसे कुछ पूछ रहा था, शायद यही पूछ रहा होगा कि नया शहर कैसा लगा? या शायद मेरे पति के साथ होने से कुछ शरमा रहा होगा इसलिए छुप कर देख रहा है, ये सोच कर मैंने खुद को ही खुश कर लिया । गृह प्रवेश की रस्म करायी गयी, जैसा माँ ने समझाया था कि चावल के भरे कलश को थोड़ा धीरे से पैर लगा कर गिराना, वैसा ही किया......।
आसपास के घरों से लोग झाँक झांक कर नयी दुल्हन यानि मुझे देखना चाह रहे थे, जैसा हमारे गाँव में होता है.....मतलब ये भी हमारे गाँव जैसे ही लोग हैं?? मैं फालतू में ही घबरा रही हूँ, खुद को तसल्ली देते हुए समझाया.....अंदर आयी तो लगा कि कहाँ आ गयी हूँ मैं? हमारे घर से भी छोटा घर है....रसोई , एक कमरा और एक छोटा सा आँगन जैसा था, ठीक वैसा जैसे जब माँ खाना बनाती हैं और हम पास ही बैठ कर खाना खाते हैं, सोच कर घर की याद आ गयी। मेरी ननद ने बताया कि नीचे कमरा माँ जी का है, और ऊपर दो कमरे हैं.....जहाँ दोनो भाई रहते हैं....और वो नीचे माँ के साथ रहती है और पढने के लिए छोटे भाई के कमरे में पढती है.....। घर में दम घुटता सा महसूस हो रहा था.....कुछ रस्म करा कर मेरी सास ने मुझे ऊपर के कमरे में ले जाने को कहा......मैं ननद के साथ ऊपर आ गयी तब तक मेरे पति और देवर ने सब सामान रख दिया था.....ऊपर ही गुसलखाना दिखा कर मेरी ननद मुझे कमरे में छोड़ कर चली गयी। मेरे पति नीचे चले गए थे और मैं सोच सोच कर परेशान की यहाँ न तो बाहर बैठने को आँगन है न ही खुली छत.... मेरा घर भी बहुत बड़ा नहीं पर धूप, बरसात, चाँदनी रात को मैं देख सकती थी, पर ये तो ऐसा लग रहा था जैसे कि कोई कबूतर खाना हो.......घर में घुसने से पहले आसपास भी ऐसे ही घर नजर आए.....घर की सीढियाँ ऐसी थी कि एक बारी में एक इंसान ही चढ सकता है, वो भी ऊँची और खड़ी सीढियाँ कभी गिर जाओ तो बिना रूके सीधा नीचे आ जाऊँगी, मैं तो वैसे ही अपने घर में चीजों से टकराती रहती थी.....माँ ने कहा था कि घर के सभी काम अच्छे से करना और सास जैसे कहे वैसे करना.....यहाँ तू जैसे करती थी वो भूल जाना और उनकी हर बात को ध्यान से सुनना वगैरह वगैरह....जैसा कि शायद हर माँ अपनी बेटी को सिखाती होगी...।।।
क्रमश:(स्वरचित)