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स्त्री.... - (भाग-10)

स्त्री......(भाग-10)

उस दिन सुमन दीदी को बहुत बार आराम करने को कहने के बाद भी वो मानी नहीं, "भाभी तुम जा कर आराम करो, कल से सब तुम्हें ही तो देखना है"! जो सामान मेरी माँ ने दिया था वो सब सास को दिखा ऊपर चली गयी, माँ ने आते हुए यही तो समझाया था कि जो यहाँ से लेकर जा रही है, सासू माँ को दिखाना और उनके पास ही रख देना। अपने कमरे में आयी तो कमरे में सब सामान फैला था, शायद सुमन दीदी को ऊपर आने का भी समय नहीं मिला होगा, सब सामान ठीक किया और लेट गयी। सफर की थकान और 2 दिन से सही से न सो पाने की वजह से न जाने कब गहरी नींद सो गयी कि वक्त का पता ही नही चला....।सीढियों पर किसी के जल्दी जल्दी चढने की आहट से नींद खुल गयी, जल्दी से उठी तो देखा रात हो गयी है। बाहर निकली तो सुनील भैया अपना बैग अपने कमरे में रख रहे थे। मुझे देख मुस्कराए और पैर छूते हुए बोले कैसी हो भाभी? मैं ठीक हूँ भैया पर आप मेरे पैर मत छुआ कीजिए, आप तो उम्र में मुझसे बड़े हो !!! माँ कहती है कि उम्र में बेशक बड़ा हूँ, पर रिश्ते में हमेशा आप ही बड़ी रहोगी। मैं चुप हो गयी, हमेशा मुझे ऐसे ही चुप करा देते हैं भैया। कितना फर्क है दोनो भाइयों में कहाँ सुनील भैया हमेशा मुस्कराते रहते हैं, सबसे हँसी मजाक करते रहते हैं और कहाँ ये !! न किसी से फालतू बात न ही कभी हँसते सुना या देखा है!! पता नहीं इतना खडूस बन कर कौन रहता है?? ये सब बातें तो बस दिमाग में आती हैं न किसी से बोल पाती हूँ न ही समझ आती हैं, शायद उम्र और पढाई के साथ ऐसे बन जाते होंगे लोग!! सोच अपना सर झटक नीचे आ गयी। दीदी ने रात की तैयारी कर ली थी। माँ को खाना खिला कर दवा खिला दी थी। सुनील भैया और सुमन दीदी को भी मैंने खाना खिला कर ऊपर भेज दिया था, कल उनको सुबह स्कूल जाना था। वैसे तो वो माँ के साथ सोती हैं, पर मैंने सुनील भैया को हमारे कमरे में कुछ दिन सोने को कह दिया क्योंकि माँ के साथ मैं नीचे सोने वाली थी। मेरी सास भी मना नहीं कर पायीं। मैं अपने और पति के लिए खाना बना उनका इंतजार करने लगी। वो जब आए तो मुझे देख कर न उनके चेहरे पर कोई खुशी थी न ही कोई और भाव....कभी कभी ऐसा लगता है कि इन्हें कोई चीज या बात खुशी या तकलीफ भी देती है या नहीं....सब कुछ ऐसे ही सपाट से भाव से कोई कैसे कह सकता है? कब आयी तुम? किसके साथ आई? दोनो सवाल का जवाब दे तीसरा सवाल वो पूछते मैंने ही बता दिया पिताजी दोपहर को वापिस चले गए, क्योंकि उन्हें कुछ जरूरी काम था। अब उनके पास कुछ पूछने को बचा नहीं था तो हाथ मुँह धोने चले गए.......उनके आने तक मैंने थाली लगा दी.....अब हम दोनो चुपचाप खाना खा रहे थे.....माँ की शायद आँख लग गयी थी या फिर हमारी बातें सुनने के लिए चुपचाप लेटी थीं ये तो वो ही जाने। खाना खा कर उठे तो उन्हें बता दिया कि हमारे कमरे में भैया सोएगें, मैं नीचे माँ के पास सोऊँगी, दीदी को भी स्कूल जाना है। वो कुछ नहीं बोले। रास्ते में सोचा तो बहुत कुछ था पूछने के लिए, पर अभी समय ठीक नहीं सोच कर चुप रही.....जो जो माँ ने सीखा कर भेजा था, मैं वही करती जा रही थी। मेरी सास के बीमार होने और मुझे वापिस बुलाने की चिट्ठी के साथ ही माँ यही सब कहती चली जा रही थी.....आते आते भी पूछ रही थी, याद है न क्या समझाया है!! माँ की बातों पर खीज सी उठ रही थी, पर माँ को कुछ बोल कर दुखी नहीं करना चाहती थी सो तब तो चुप रही, पर यहाँ आते ही माँ की हर बात याद आती चली गयी। सब की माँ ऐसी ही होती होंगी....खास कर हम लड़कियों की माँ, कितना चिंता में रहती हैं, पहले लड़की को बुरी नजरों से बचा कर रखने की जंग, फिर ब्याह की चिंता और ब्याह के बाद , उसका ससुराल में सही से निबाह हो जाए की चिंता....इतने सालों बाद मैं समझ रही हूँ कि माँ बनना ही एक संघर्ष है.....या यूँ कहा जाए की लड़की पैदा होना ही पाप है......कभी खुल कर जीने ही नहीं दिया जाता। हमारी छोटी छोटी ख्वाहिशें, सपने सब कैद कर दिए जाते हैं.......मेरी सास के सब काम और घर के कामों में कुछ और सोचने का वक्त ही नहीं मिल पाता था...। माँ का सब काम अभी तो उनके बिस्तर पर ही हो रहा था।
उनको नहलाना, बाथरूम वगैरह बिस्तर पर पैन में ही करवा रही थी.....शुरू में बहुत खराब लगा पर फिर मन को मजबूत बना लिया। 2 महीने बाद प्लास्टर कटा, हड्डी तो जुड़ गयी थी, पर अभी वजन नहीं डालना था.....इन महीनों में उनके बेटों ने सोच विचार कर नीचे ही एक बाथरूम और टॉयलेट बना दिया था......क्या करते आँगन को कम कर दिया गया, क्योंकि माँ के लिए सीढियाँ चढना मुश्किल ही था....ये उन दिनों की बात है जब बंबई का नया नामकरण हुआ था मुंबई......माँ अब वॉकर ले कर थोड़ा बहुत चलने की कोशिश तो करती ही रहती थी.......वो मेरी सेवा से बहुत खुश थी और बहुत आशीर्वाद देती थी.....। माँ ने एक दिन कहा," जानकी अपना सामान ऊपर ले जा, अब अपने कमरे में सोया कर। सुमन है न मेरे पास कोई परेशानी होगी तो तुझे बुला लूँगी"! मैं फिर से अपने कमरे में थी,गाँव से आने के बाद ये पहली रात थी, जब मैं अपने पति के साथ अकेली थी......इन महीनों में उन्होंने बस माँ की दवाइयों या उनका हालचाल ही पूछने के लिए बात की थी.....अपने कमरे में आ कर मुझे शोभा कि सारी बातें याद आ रही थी....मन में सवाल गुडमुड हो रहे थे......पर पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी......जानकी तुम ने माँ का ध्यान बहुत अच्छे से रखा उसके लिए थैंक्यू। वो तो मुझे रखना ही था माँ जो हैं....आप थैंक्यू क्यों बोल रहे हैं!! मेरी बात सुन कर वो चुप हो गए.....मुझे अब बहुत गुस्सा आ रहा था। शायद पुरानी बेबाक जानकी अपने खोल से बाहर आने को बेताब थी, जिसे मैंने शादी होते ही अपने अंदर एक कोने में दफना दिया था क्योंकि वैसी जानकी की जरूरत ही कहाँ थी। पर शोभा की बातें और भाभियों की छेड़छाड़ ने जानकी को परिपक्व बना दिया था...न जाने क्यों उस दिन मैं अपने आप को रोक नहीं पा रही थी, मुझे शोभा की कही बात याद आ गयी कि वो तुझे नहीं छूते तो तू उन्हें छू कर देखना फिर वो तुझे छुए बिना नहीं रह पाँएगें.....मैं अपने विचारों में गुम थी और वो अपने पुराने अंदाज में सोने की तैयारी में थे.....आपको अगर नींद न आ रही हो तो मुझे कुछ बात करनी है, मैंने एकदम से कुछ ज्यादा ही तेज आवाज में कह दिया वो चौंक कर बोले अगर जरूरी है तो हाँ कहो मैं सुन रहा हूँ।
मैं बिना परीक्षा दिए ही पढती रहूँ तो कोई हर्ज है? मैं समझा नहीं? ठीक से समझाओ....कह कर उठ कर बैठ गए.....मैं सिर्फ इतना कहना चाह रही हूँ कि अगर आप को लगता है कि मैं आपके दोस्तों और उनकी पत्नियों के सामने इंग्लिश में बात करूँ तो क्यों न मैं सिर्फ वही विषय पढूँ.....मैं डिक्शनरी से मुश्किल शब्दों का अर्थ जान लूंगी और जो पढना न आया वो आप में से किसी से भी पूछ लूँगी? क्योंकि मुझसे आप नौकरी थोड़े ही करवाओगे?? मैं इतनी इंग्लिश तो सीख ही जाऊँगी, जिससे आपको किसी से मिलवाने में शर्म न आए.....मैंने अपनी बात उनके सामने रख ही दी जिसके बाद बहुत हल्का महसूस कर रही थी। वो कुछ देर सोचने के बाद बोले कि ठीक है......तुम्हें तीन महीने देता हूँ, ठीक ठाक पढना और बोलना सीख लोगी तो ठीक नहीं तो परीक्षा के लिए सब विषय पढोगी......मैंने झट से "हाँ" बोल दी और खुशी के मारे उनका हाथ पकड़ लिया.....उन्होंने अपना हाथ दूसरे हाथ से मेरी पकड़ से छुड़ाना चाहा पर मैंने ढीठता से दूसरा हाथ भी पकड़ लिया......अच्छा अब हाथ छोड़ो तो मैं सो जाऊँ ? मैं उनके हाथों की ठंड़क महसूस कर रही थी...उनके बाथों की कसमसाहट देख दिल में अजीब सी खुशी मिल रही थी और ठीक वैसे ही महसूस करना चाहा रही थी जो गुरूजी के पकड़ने पर महसूस किया था....पर न जाने क्यों मेरे पति के चेहरे पर कोई अच्छा सा भाव नहीं दिख रहा था.....मैंने झट से हाथ छोड़ दिया....मैं क्या सुंदर नहीं हूँ? मुझमें क्या कमी है जो आप मेरी तरफ देखते ही नहीं? तुम क्या सोचती रहती हो फालतू? मैंने तुम्हें कहा न तुम अभी छोटी हो? क्या मेरे बड़े होने से आपकी और मेरी उम्र का फासला कम हो जाएगा? उनके जवाब देने पर मैंने तुरंत एक और प्रश्न दाग दिया?? वो चुप रहे.....मुझे उनकी चुप्पी पर गुस्सा तो आ ही रहा था, साथ ही और बोलने का मौका भी मिल गया.......वो धीरे से बोले तुम्हे पता है कम उम्र में ब्याह करके बच्चे पैदा करने से कितनी औरते मर जाती हैं?? इन सबसे तुम्हे बचाना चाहता हूँ और कुछ नहीं.....मैंने आपकी लाई पत्रिका में पढा है कि बच्चा पैदा करना अपने हाथ में होता है......मैंने अपनी जानकारी का इस्तेमाल किया.......प्यार करने के लिए पढा लिखा होना इतना जरूरी होता तो फिर शोभा का पति तो उसको बिल्कुल प्यार न करता और न ही उसका बच्चा होता.....ये शोभा कौन है? उन्होंने पूछा तो मैंने कहा मेरी सहेली है,सिर्फ 5वीं तक पढी है.......जानकी बेकार की बातें मत करो और मुझे सोने दो....उन्होंने मुझे गुस्से में घूरते हुए कहा..... मैंने आगे फिर कुछ नहीं कहा और चुपचाप पलंग पर लेट गयी......नींद का दूर दूर तक नामोनिशान नहीं था । शोभा की बतायी बातें और सुजाता दीदी के निशान दिलो दिमाग में छाए थे........शोभा का उभरा पेट जैसे मेरी खूबसूरती को चिढा रहा था......तब उम्र बेशक उतनी नहीं थी, पर कोई मुझे देखे, मेरी तारीफ करे और करीब आए ये मेरी जैसी उम्र की लड़कियों की इच्छा होती है.......
क्रमश:
स्वरचित