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स्त्री.... - (भाग-6)

स्त्री.......(भाग-6)

परिणाम देख कर मेरे पति ने मुझे बधाई दी और आगे भी मन लगा कर पढने को कह, मेरी तरफ पीठ करके सो गए.....कभी कभी मुझे ऐसा लगता कि वो सोए नहीं है, बस सोने का नाटक करते हैं, पर मैं हिम्मत करके उनसे कभी कह नहीं पायी कि आप जाग रहे हो तो मुझसे बातें कीजिए !! उनका गंभीर स्वभाव मुझे उनसे बात करने से हमेशा रोकता रहा.......पिछले काफी दिनों से सुजाता दीदी की बातें दिल और दिमाग में हलचल पैदा कर रही थीं। उनका कहना कि प्यार में ऐसा होता ही है, सोच कर उनके शरीर के निशान आँखो के आगे घूमते रहते......। बहुत सारे सवाल मेरे मन में घूम रहे थे, शायद सुजाता दीदी के पास सब जवाब होंगे, सोच कर उनसे बात करने का मन बना लिया था। उधर जब कई दिन मैं छत पर नहीं गयी तो एक दिन सुजाता दीदी शाम को हमारे घर आ गयी। मेरी सास से कुछ देर बात करके मेरे बारे में पूछ कर ऊपर आ गयी।
"क्या हुआ जानकी, छत पर कई दिनों से आयी नहीं ? तबियत तो ठीक है न? बस यही पता करने चली आयी".....उनकी बात सुन कर मैं शर्मिंदा हो गयी।
"नहीं दीदी मैं ठीक हूँ, बस मैं थोड़ा घर के कामों में व्यस्त हो गयी थी"....। मेरी बात सुन कर वो मुस्करा दी और बोली...."तुम थोड़ा समय अपनी दीदी के लिए निकाल कर छत पर आ जाया करो....मेरे पति तो सुबह जा कर शाम को लौटते हैं, तुम्हारे सिवा और कोई नहीं जिससे मैं बात कर सकूँ। ठीक है दीदी कल से रोज मिलेंगे अपने समय पर.......। काफी बार कहने के बाद भी वो चाय पी कर नहीं गयी।
उसके जाने के बाद सासू माँ ने मुझे कहा, "बंगाली औरते जादू टोना जानती हैं, इससे दूर रहा कर"। मैंने ठीक है, मैं सर हिला दिया.....उनके साथ बहस करना नहीं चाहती थी पर मैं शाम को उनसे जरूर मिलती थी......वो पढी लिखी थी और मुझसे अच्छे से बात करती थी ......एक दिन उन्होंने बताया कि वो पास के एक स्कूल में पढाने जाया करेगी, पर शाम को मुझसे छत पर मिलने जरूर आया करेगी।
सुनील भैया ने एक बड़े वकील के पास नौकरी करना शुरू कर दिया था। मैं दसवीं और सुमन दीदी बारहवीं में आ गए थे......मैंने एक दिन अपनी सासू माँ से हिम्मत करके पूछ ही लिया, "माँ, मैं कुछ दिन के लिए अपने मायके जा सकती हूँ"? माँ कुछ देर चुप रही, फिर बोली हाँ कुछ दिन के लिए चली जा, पर एक बार सुधीर से भी पूछ लेना.....ठीक है माँ, कह मेरा मन खुशी से नाच उठा। बहुत दिनों से घर की बहुत याद आ रही थी। अब उनसे पूछना मेरे लिए मुश्किल काम था, पर इजाजत लेना जरूरी भी था।
वो दिन बहुत बैचैनी सी कटा था, शाम को सुजाता दीदी को भी अपने मायके जाने की बात बतायी तो वो भी खुश हो गयी थी मेरी तरह.......।
रात को जब मेरे पति कमरे में आए तो मैंने उनसे मायके जाने का पूछा तो उन्होंने कहा, "अभी तो तुम्हारी पढाई ठीक से शुरू नहीं हुई है तो जाने का मन है तो मिल आओ सबसे, पर मेरे पास काम ज्यादा है तो मैं तुम्हें छोड़ने नहीं जा पाऊँगा......तुम घर पर चिट्ठी लिख कर पिताजी को बुला लो, वो ले जाँएगे"!!! ऐसे तो बहुत दिन लग जाएँगे, आप मुझे गाड़ी में बिठा देना, वहाँ आगे पिताजी आ जाएँगे। मेरी बात सुन कर वो बोले, "तुम अकेली चली जाओगी"? मैंने कहा, "हाँ मैं जा सकती हूँ, आप चिंता मत कीजिए"। उन्होंने कहा ठीक है, "मैं सुनील को कह देता हूँ वो टिकट करवा देगा, सीट आरक्षित रहेगी तो आराम रहेगा"।
अपनी बातें कह कर वो हमेशा की तरह सो गए........मेरे मन में जो बातें बहुत शोर करती रहती थी, उनको कभी मौका नहीं मिलता था होठों पर आने का....पता नहीं क्या हो जाता था मुझे !!! मैं चाह कर भी रूक जाती थी कुछ कहने से, जिसकी वजह से मेरी बातें अंदर ही दम तोड़ देती थी......बहुत घुटन होने लगी थी मुझे अपने कमरे में...बस यही सोचती थी कि सबने बहुत कुछ समझाया पर ये किसी ने नही सिखाया कि पति अगर बात न करना चाहे तो क्या करना होगा!!
सुमन दीदी और सुनील भैया से पढ़ कर कुछ अँग्रेजी शब्दो से जान पहचान हो गयी थी जैसे गुसलखाने को बाथरूम कहना चाहिए और लैट्रिन कहने की बजाय टॉयलेट सही लगता है। प्लीज, थैंक्यू वगैरह बोलना सीख गयी थी।
सुनील भैया ने मुझे इंग्लिश से हिन्दी की डिक्शनरी ला दी थी। अँग्रेजी विषय तो था ही जिससे मैंने पढने का अभ्यास खूब किया, याद आया अभ्यास को प्रैक्टिस कहते हैं। बस पढ़ते वक्त मैं सब भूल जाती। अगले ही दिन भैया मेरी टिकट करवा आए, अब दिल में सबसे मिलने की चाह थी तो मैं खुश रहने लगी थी।
धीरे धीरे मैं तैयारी कर रही थी, मेरा बड़ा मन था कि सबके लिए कुछ ले कर जाऊँ, पर मेरे पास तो पैसे ही नहीं थे, सोच कर मन उदास हो गया। सुना था कि सास ननद को बिल्कुल पसंद नहीं आता कि बहु अपने मायके वालों के लिए कुछ ले, सोच कर दिल उदास हो गया। दिल में आया कि पति से पैसे माँगू या फिर माँ से ही कह दू, पर मेरे मन को ये बात नहीं सही लगी, क्योंकि जो इंसान मुझसे बात ही नहीं करता उससे कुछ माँगने का सोचना भी गलत लगा। माँ से माँगते हुए भी तो संकोच ही मुझे रोक रहा था।
क्या पता सुमन दीदी मेरी उलझन समझ गयी थी या माँ से उदासी छुपी न रह पायी हो.......ठीक आने से एक दिन पहले माँ ने अपने बेटे को ऑफिस जाने से पहले टोका...."कल जानकी अपने घर जा रही है, तो उसे जो कुछ लेना हो भाई बहन के लिए तुम ले कर दोगे या मैं जा कर दिलवा लाऊँ"? माँ आप और सुमन ले जाओ इसको अपने साथ और शॉपिंग कर आओ......मेरा काम के बीच में से निकलना आसान नहीं।
मेरे दिल में अपनी सास के लिए प्यार और इज्जत बहुत बढ़ गयी थी......खुशी के कारण मेरी आँखो में आँसू आ गए। मैंने उस दिन से दिल से माँ ही मान लिया था......माँ और सुमन दीदी दोनो ने न सिर्फ छाया और राजन के लिए कपड़े दिलवाए, बल्कि माँ के लिए भी साड़ी ले कर दी......वो पिताजी के लिए भी कपड़े लेना चाहते थे, पर मेरा मन था उनके लिए घड़ी लेने का। इस बार अपनी बात बिना किसी झिझक के मैंने कह दी। माँ ने पिताजी के लिए मेरी पसंद की सुनहरे डायल की घड़ी ले दी।
सुनील भैया ने रविवार की टिकट करवायी थी पिताजी को मैंने चिट्ठी लिख कर बता दिया था कि वो मुझे लेने आ जाएँ। दोनों भाई मुझे स्टेशन छोड़ने आए और रास्ते भर मुझे समझाते रहे कि कैसे अपना ध्यान रखना है.......मैं डिब्बे में बैठ गयी थी, सुनील भैया को मेरे पास छोड़ मेरे पति ट्रैन से बाहर निकल गए, थोड़ी देर में वो मेरे लिए 2 हिंदी और 1 अँग्रेजी पत्रिका ले आए रास्ते में पढने के लिए।
स्वरचित
क्रमश: