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स्त्री.... - (भाग-2)

स्त्री.........(भाग-2)

हमारी कक्षाएँ बहुत अच्छी चल रही थी। इस बार रामलीला में मुझे सीता नहीं बनाया गया। मुझे बहुत बुरा लग रहा था। फिर माँ ने बताया कि अब मैं सयानी हो गयी हूँ, इसीलिए पिताजी ने ही मना किया है....छोटी लड़कियाँ ही सीता बनती हैं, माहवारी शुरू होना मतलब स्त्री की श्रेणी में मैं आ गयी हूँ, माँ ने मुझे समझाते हुए कहा.........मेरे मन में बहुत सवाल थे पर माँ के गुस्से को भी मैं जानती थी फिर भी हिम्मत करके बोल ही दिया की माँ सीता माता भी तो स्त्री ही थीं......माँ ने कहा," हाँ मुझे पता है, पर हमारे यहाँ ऐसे ही होता आ रहा है तो यही होता रहेगा......इससे आगे बहस मत करो और जा कर कपड़े धो ले"........माँ की यही आदत बिल्कुल पसंद नहीं थी सो माँ पर आया। अपना गुस्सा मैंने कपड़ो को जोर जोर से कूट कर निकाला......?
अगले दिन जब हम नृत्यशाला गए तो मंजरी जो मेरे ही हमउम्र थी वो कुछ ज्यादा ही हँस हँस कर गुरूजी के पास खड़ी बातें कर रही थी और गुरूजी भी उसके बिल्कुल साथ खड़े थे। जो देख कर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था.....ऐसा लग रहा था कि दोनो जान बूझकर ही एक दूसरे को छूने की कोशिश कर रहे थे......हम को देख कर वो चुप हो गए......मेरे अंदर गुस्सा था या मंजरी से जलन हो रही थी...पता नहीं कब मेरे अंदर ये भाव आ गया था कि मैं सबसे सुंदर हूँ तो गुरू जी सिर्फ मुझे ही देखेंगे। ये मेरा प्यार था या आकर्षण ये समझने के लिए मेरी उम्र नहीं थी....।
उस दिन से मेरी कोशिश रहती कि हम जल्दी पहुँच जाए और सबसे बाद में निकलना.....शायद गुरूजी मेरे दिल की बात और भाव समझ रहे थे, इसीलिए तो उस दिन उन्होंने जब मैं आ रही थी तो उन्होंने हाथ पकड़ लिया था और अगले दिन रविवार को भी मुझे आने को कहा ये बोल कर कि तुम बहुत सुंदर हो जानकी, मैं तुम्हें बहुत प्यार करना चाहता हूँ, कल अकेले आना तुम्हे भी बहुत अच्छा लगेगा.......मेरे गाल अचानक दहकने लगे थे। दिल की धड़कने तेज हो गयी।
मैं जल्दी से निकल आयी.......
घर आने के बाद भी बहुत देर तक मैं गुरूजी के ख्यालों में डूबी रही, किसी काम में दिल नहीं लग रहा था। रविवार को तो नृत्यशाला बंद होती है तो मैं कैसे जाऊँगी ये सोच भी हावी थी और घबराहट के मारे बुरा हाल था........काफी सोच कर माँ को मैंने कह दिया कि कुछ दिनों बाद एक और प्रतियोगिता होनी है तो उसके अभ्यास के लिए कल भी जाना पड़ेगा।
ठीक है चली जाना, माँ ने कहा तो राहत की साँस ली पर दिल की धड़कने बेकाबू थी........सुबह सब काम निपटा कर मैं राजन को ले कर नृत्यशाला पहुँच गयी और राजन अपना समय बिताने के लिए दोस्तों के साथ खेलने लगा....।
गुरू जी मेरा इंतजार ही कर रहे थे, मुझे देख वो बहुत खुश हो गए......गुरूजी ने दरवाजा बंद कर लिया और मुझे सीने से लगा लिया.....मैं अपनी माँ की दी हुई सब सीख भूल सी गयी थी मन के आवेग में डूबी थी.......वो मुझे बेतहाशा चूमने लगे थे, ये सब मुझे बहुत अच्छा लग रहा था......उस समय वो मुझे गुरूजी नहीं एक सुंदर युवक दिखाई दे रहे थे जो मेरी सुंदरता पर मोहित है, ये विचार आते ही मेरा मन अभिमान से भर गया....।
मैं आँखे बंद करके उनके स्पर्श को महसूस कर रही थी..........पर ये क्या? उन्होंने अचानक मुझे जोर से धक्का दे दिया..।
वो चिल्ला कर बोले, तुमने मुझे बताया क्यों नही?? तुम्हे शर्म नही आती ऐसे समय में मेरे पास आते हुए....?? मैं एक बार तो समझ ही नहीं पायी कि क्या हुआ, पर दूसरे पल मेरा ध्यान उनकी धोती पर गया तो सच में मुझे ग्लानि हुई। उनकी धोती पर लाल धब्बा मुझे अपने माथे पर लगा हुआ दिख रहा था.......!!
मैं शर्मिंदा थी कि मैंने उन्हें गुस्सा दिला दिया, अब मैं उनका सामना कैसे करूँगी? मेरे पास एक अवसर था उनके करीब आने का और मैंने खो दिया....... मैं अपनी सुध बुध खो कर पूरी ताकत लगा कर भागती हुई घर पहुँच गयी और सीधा नहाने चली गयी....। उस दिन पता चला कि ये दिन लड़कियों के अच्छे नहीं होते और पुरुष ऐसी लड़कियों से नफरत करते हैं। मुझे सिर्फ उनको खुश न कर पाने का मलाल था, उस वक्त मैं समझ नहीं पायी कि मैं क्या करने जा रही थी ? मैंनै अगले दिन से नृत्य सीखने जाना बंद कर दिया....। माँ तो बहुत खुश थी पर पिताजी न जाने का कारण पूछ रह थे तो मैंने कहा कि मैंने जीतना सीखना था सीख लिया अब माँ से घर के सब काम सीखूँगी.........मैं गुरूजी का सामना नहीं करना चाहती थी....उन्होंने भी कभी मेरे न आने का कारण किसी से नहीं पूछा.....।
हमारे गाँव में मुश्किल से 125-150 घर ही थे...घर भी थोड़ी दूर दूर ही थे तो हम काम निपटा कर सर्दियों में बाहर आँगन में ही बैठ जाते थे और गर्मियों में धूप के जाते ही बाहर चारपाइयाँ बिछ जाती...।
कुछ दिन से 2-3 लडके हमारे घर के आसपास ज्यादा घूमते दिख रहे थे....मुझे ऐसा लगता कि वो मुझे छुप छुप कर देखते हैं......माँ की नजरों से वो छिप नहीं पाए.....और माँ ने आसपास के लोगों को इकट्ठा कर उन्हें खूब लताड़ा।
उस दिन तो बात आई गयी होगी पर शोभा की दादी ने माँ को समझाया कि जानकी बहुत सुंदर है, लडके उसके आगे पीछे घूमेंगे ही, इसलिए इसकी शादी जल्दी से करके चिंतामुक्त हो जा। बस माँ और पिताजी दोनों को यही उपाय ठीक लगा.......!!
उस दिन की तपिश मेरे मन में अभी भी वैसी ही थी......पर फिर जल्दी ही शर्मिंदगी का एहसास घेर लेता.....किसी का प्यार पाने की इच्छा बढती जा रही थी, मेरे मन में अपने भावी पति की कुछ तस्वीरें थी और उन्हीं कल्पनाओं में मन घूमता रहता.......मुझे पक्का यकीन था कि पिताजी मेरी सुंदरता को ध्यान में रख कर ही अपना दामाद ढूंढेगें......।
जल्दी ही पिताजी की तलाश सुधीर बाबू पर खत्म हो गई....जो मुबंई में एक हीरा व्यापारी के यहाँ लिखा पढी का काम करते थे.....बाद में जाना कि एकाउटेंट कहा जाता है....।
वो अपने परिवार के साथ मुझे देखने आए और उसी समय रिश्ता पक्का करके चले गए.......देखने में वो सुंदर थे, तीखे नैन नक्श और लम्बा कद बस थोड़े दुबले पतले थे......। मैं तो खुली आँखो से ही सपने देखने लगी थी....मुंबई के बारे में सुना था....पिताजी के एक दोस्त ने ये रिश्ता बताया था.....उनके वहाँ से कहलवाया गया कि शादी बिल्कुल सादा होगी और उन्हे दहेज में कुछ नहीं चाहिए। माँ और पिताजी तो बहुत खुश थे इस रिश्ते से, माना कि उन्होंने मना किया था पर फिर भी माँ पिताजी ने मेरे ससुराल वालों को कपड़े और मुझे भी साड़ी, गहने और बरतन आदि जरूरत का सामान दिया....।
सारे गाँव वाले मेरी खुशकिस्मती समझ रहे थे कि इतना अच्छा ससुराल मिला.....शादी से पहले आस पडोस की शादीशुदा सहेलियों और भाभियों ने भी मुझे काफी कुछ समझाया था पति पत्नी के रिश्तों के बारे में और मुझे कब क्या करना चाहिए वगैरह....।
माँ , ताई, काकी और दादी सब मुझे बहु को कैसे रहना चाहिए ये भी समझाया कई बार.......कुछ बातें समझ आईं और कुछ नहीं।
क्रमश: