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स्त्री.... - (भाग-5)

स्त्री.....(भाग-5)

धीरे धीरे मैं अपनी सास के निर्देशों का पालन करते हुए घर के सभी उनकी तरह
से करना सीख रही थी.....वो जैसे कहती मैं वैसे बिना कुछ कहे और पूछे करती जाती, इससे वो बहुत खुश रहती थीं और उनके खुश रहने से मुझे भी खुशी होती...। मेरी ननद और देवर का व्यवहार मेरे साथ बहुत अच्छा था। सच कहूँ तो दीदी मेरी सहेली बन गयी थी......मैं पढाई में बहुत मेहनत कर रही थी। समय रेत की तरह हाथ से फिसलता सा महसूस हो रहा था। दिन भर घर के काम और पढाई में ही उलझी रहती......बस पति से एक दूरी बनी हुई थी। उनके सब काम मैं करती थी......पर वो मुझसे कभी बेवजह बात नहीं करते। कभी कभार सुमन दीदी(ननद) मुझे बाजार घूमा लाती। बाजार ज्यादा दूर नहीं था....मैं बहुत हैरानी से अकेली घूमती लड़कियों को देखती....... हम पानी पूरी जरूर खा कर आते थे......।
एक रविवार को जब सब घर पर ही थे तो मेरी सास ने जबरदस्ती मेरे पति को मुझे बाहर घूमाने ले जाने को मनाया तो वो बोले चलो सब साथ चलते हैं, रात का खाना भी बाहर खा लेंगे.....मैंने समंदर नही देखा था बस सुना था देवर और ननद से....तो जब देवर ने पूछा कि भाभी कहाँ चले तो मैंने धीरे से कहा मुझे समंदर देखना है.....तो इन्होंने टैक्सी वाले को चौपाटी बीच पर चलने को कहा...।
मैं टैक्सी में बैठी शीशे के उस पार भागती सी इमारतें देख देख कर खुश हो रही थी।
चोपाटी पहुँचे तो मेरी आँखे खुली की खुली रह गयी....जहाँ तक देख पा रही थी सिर्फ पानी ही पानी.....थोड़ी भीड़ तो थी पर मेरी उत्सुकता मुझे पानी में जाने से रोक नहीं पा रही थी.....मैंने दीदी को हौले से कहा तो वो मेरा हाथ पकड़ कर ले गयीं.....बहुत बच्चे रेत से खेल रहे थे। कुछ जोड़े बिना किसी डर या झिझक के बाँहो में बाँहे डाले घूम रहे थे.....ये सब मेरे लिए नया था। मैं बड़ी आशा से मुड़ कर अपने पति की तरफ देखा तो वो कहीं ओर ही देख रहे थे। पानी की लहरे पैरो को छू कर निकल रही थी और मेरी साड़ी भीग जाती..। थोड़ी देर बाद सुनील भैया हमारे पास आए और बोले माँ बुला रहीं हैं। हम दोनों उनके साथ वापिस आ गए......काफी ढेले वाले खड़े थे अपनी दुकान सजाए। बच्चों के लिए गुब्बारे और खिलौने वाला भी था, जिसके पास बच्चों की भीड़ लगी थी.....पाव भाजी, वड़ा पाव और चाट पकौड़ी, बर्फ के रंग बिरंगे गोले सब कुछ ही तो नया सा लग रहा था। गाँव में कहाँ ये सब खाते थे!! कभी मेले जाते तब ही कभी कभार आलू की टिकिया या भजिया ही खा पाते थे। मेरे पति और देवर सब के लिए चाट ले आए। मैंने हिम्मत जुटा कर बर्फ का गोला लीने के लिए सुनील भैया को कहा तो वो तुरंत ले आए.......। हम सबने काफी कुछ खा लिया था। शाम से रात हो गयी थी.....माँ ने कहा, चलो बच्चों अब देर हो रही है घर चलो, अभी भूख है तो कुछ यहीं से लेते चलो....मेरे पति ने पावभाजी पैक करा ली.......घर वापिस आ कर लगा कि कहाँ तो खुला आसमान था, अब फिर से कोठरी जैसे घर में वापिस आ गए....।
अगले महीने मेरा और सुमन दीदी दोनों की परीक्षा थी......तो हम मन लगा कर पढाई कर रहे थे। रात को देर तक पढना होता था तो मैं दीदी के साथ ही पढती थी। जैसे जैसे परीक्षा नजदीक आ रही थी, मुझे डर लगने लगा था। दिल में एक हू ख्याल आता था कि अगर पास न हुई तो मेरे पति मुझसे हमेशा के लिए नाराज हो जाएँगें.......मेरी सास ने मेरा हौंसला ठीक वैसे ही बढाया जैसे पिताजी बढाते थे.....एक साल से ज्यादा हो गया था सिर्फ 2-3 बार ही चिट्ठी घर से आयी थी।
मैं भी लिखा करती थी पर इधर घर के कामों में और पढाई में इतनी व्यस्त हो गयी कि कुछ ध्यान ही नही रहता। फिर भी कभी कभार सब की याद आ ही जाती है और मन तक को भिगो जाती है।
खैर परीक्षा आईं और चली गयी, अब परिणाम का इंतजार था। अब धीरे धीरे पास पड़ोसियों से मैं बात करने लगी थी, हालंकि मेरी सास रोका टाकी तो नहीं करती थी पर फिर भी पड़ोसियों से मेरा बात करना उन्हें पसंद नहीं आता था, फिर भी जब मैं ऊपर छत पर जाती तो आस पास की छतों पर औरतें दिख जाती तो मैं उन्हें नमस्ते कर देती। कुछ दिन पहले पड़ोस में एक नयी बहु आई थी, एक दिन वो मुझे छत पर दिखी तो बात हो गयी, उसने बताया कि वो कलकत्ता से है। सांवली रंग की बड़ी बड़ी आँखो वाली सुजाता मेरी जल्दी सहेली बन गयी। हमने अपना एक टाइम बना लिया था काम निपटा कर शाम 4-5 बजे बातें करने का......वो अपनी बातें कहती और मैं अपनी। एक दिन हम ऐसे ही बातें कर रहे थे, मेरा ध्यान उसकी गर्दन पर गया तो वहाँ कुछ लाल नीला निशान दिखा तो मैंने पूछ लिया..."सुजाता दीदी ये चोट कैसे लग गयी", तो वो मुस्करा दी और बोली कितना समय हो गया तुम्हारी शादी को तुम्हें प्यार के निशान समझ नहीं आते!! कह कर उसने मुझे गहरी नजरों से देखा तो मैं सकपका गयी। मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैं नीचे काम है, कह कर उनके सामने से हट गयी। उनकी शादी बेशक अभी हुई थी, पर वो मुझसे बड़ी थी तो मुझे उन्हें दीदी कहना ठीक लगता था और उन्हें भी कोई ऐतराज नहीं था....सुजाता दीदी की बात ने मेरे अंदर एक अजीब सी बेचैनी भर दी थी। अगले दिन शाम को मैं छत पर गयी तो वो मेरा पहले से इंतजार कर रही थी। कल तो तुम भाग गयी, अब बता क्या तुम्हें ऐसे निशान कभी नहीं मिले, कह कर उन्होंने अपनी साडी का पल्ला हटा कर ब्लाउज के हुक खोल दिए, मैंने पहले इधर उधर देखा कि कोई उनको ऐसा करते हुए देख तो नहीं रहा....फिर मैंने उनकी खुली चोली की तरफ देखा तो वैसे कई निशान वहाँ मौजूद थे, मैंने नजरे फेर ली। वो मुझे ऐसे करते देख मुस्करा दी और बोली क्या बात है...तुम दोनो में सब ठीक है न? ये सब तो प्यार में होता रहता है, फिर इतना क्यों शरमा रही है? नहीं दीदी मैं शरमा नहीं रही हूँ, कह मैं उनकी आँखो में देखने लगी, पर ज्यादा देर देख न पायी। अच्छा बाकी बातें कल करते हैं ,मैं चलती हूँ।उन्होंने ऐसा कहा तो मैंने राहत की साँस ली। कोई परेशानी है तो जब मन करे कह देना, मदद करने की कोशिश करूँगी, कह कर वो नीचे चली गईं। उस दिन के बाद मैं काफी दिन छत पर नहीं गयी। आज दोबारा उस दिन को याद किया तो लग रहा है कि वो जान बूझ कर चली गयी थी, शायद वो मेरी हिचकिचाहट को समझ कर संभलने के लिए वक्त दे गयी थी......।
कुछ दिनों बाद हमारा परिणाम आया तो हम दोनो ही पास हो गयी थी अच्छे नंबरो से और थोडे दिनों के बाद सुनील भैया का परिणाम भी अच्छा आया था और अब वो वकील बन गए थे।
क्रमश:
स्वरचित
सीमा बी.
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