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स्त्री.... - (भाग-7)

स्त्री.....(भाग-7)

रेलगाड़ी कहने में जो मुझे खुशी होती थी वो ट्रेन कहने में नहीं...पर फिर भी समय के साथ बदलाव जरूरी है, ये मैंने अपने पति के मुँह से कई बार अपनी माँ को कहते सुना है, पर हर बार ऐसा लगता कि ये मेरे लिए ही कहा जा रहा होता था...।
गाड़ी चलने का समय हो गया था, सुनील भैया ने एक बार फिर मुझे समझाते हुए एक सांस में कई हिदायतें दे ड़ाली। घर से चली थी तो मेरी सास ने कुछ रूपए दिए थे ,घर के लिए कुछ फल और मिठाई ले कर जाने के लिए और कुछ खर्च मेरे खर्च के लिए, उनका ये रूप तो मेरे लिए पिताजी जैसा था.......ट्रेन चलने से पहले मेरे पति ने भी कुछ रूपए थमा दिए, मैंने कहाभी कि माँ ने दिए हैं, फिर भी बोले कि बच जाएँ तो वापिस आ जाएँगे....मुझे यह पल विदा लेते लेते खुश कर गया । शायद हम लड़कियों या कहो औरतों को यही छोटी छोटी बातों से खुशी मिल जाती है।
रास्ता लंबा था और पहली बार अकेले जा रही थी तो डर भी लग रहा था....पर आसपास परिवारों से जान पहचान हुई तो तसल्ली हुई......इस बार मैं खिड़की से बाहर देख रही थी, खेत, मैदान,पेड,घर और इमारतें भागती सी लग रही थी। मेरी सीट नीचे वाली थी और मेरा सारा सामान सुनील भैया ने सीट के नीचे जमा दिया था। बस पत्रिकाएँ और खाने पीने का थैला मैंने अपने पास रखा हुआ था और पैसों का बटुआ भी मैंने उसी थैले में रख लिया था.....पहले धूप फिर शाम को गहराते हुए मैं खिड़की से बाहर देख रही थी.....आसमान पर तारे टिमटिमा रहे थे।
दिन में सूरज जैसे ट्रेन के साथ सफर कर रहा था, कई बार तो मुझे ऐसा लग रहा था कि दोनों में जैसे पहले कौन आएगा कि दौड़ लगी थी, तभी तो कभी ऐसे लगता कि वो ट्रेन से पहले पहुँच कर उसको चिढा रहा हो......फिर शाम को सूरज लाल ऐसे हो रहा था, जैसे अपना गुस्सा दिखा रहा था,तभी तो उसके गुस्से की लालिमा आसमान में फैली थी। धीरे धीरे सूरज अस्त हो गया, वो हमें एक सीख दे रहा था कि जो आता है वो जाता है? या फिर गुस्सा हमें निगल जाता है, सीखा गया। शायद इसलिए चाँद जैसे शांत रहो........चाँद धीरे धीरे अपनी जगह आकाश मेेे बना लेता है और शायद इसीलिए बहुत देर तक अपनी ठंड़क का एहसास देता है....मैं कुछ ज्यादा ही सोचने लगी हूँ.....मैं ऐसी तो बिल्कुल ही नहीं थी। रात हो गयी तो सामने बैठे पति पत्नी ने अपनी खिड़की बंद कर दी और मुझे भी बंद करने को कहा, क्योंकि ट्रेन कई सुनसान रास्तों से गुजरती है, और कहीं रूकने पर लोग खिड़कियों के रास्ते से बैग और कीमती चीजें छीन लेते हैं। उनकी बात सुन कर मैंने तुरंत खिड़की बंद कर दी......साइड वाली सीट पर एक लड़की उपर वाली बर्थ पर थी और उसकी माताजी नीचे थी। जब सब खाना खाने लगे तो मैंने भी अपना खाना निकाल लिया। खाना खा सब कुछ देर बातें करके सोने चले गए और मैं बैठी थी चुपचाप........कभी कभी पास से कोई ट्रेन गुजरती तो आवाज से ही डर लग रहा था.......पर अकेले आने की जिद भी तो मेरी थी। जैसे तैसे सिर की तरफ थैला रख मैं सोने की कोशिश करती रही, पर नींद नहीं आ रही थी....मन तो कभी मायके और कभी ससुराल में भाग रहा था.....तरह तरह की बातें सोचते हुए मेरा ध्यान पति पर जा अटका.....उनकी खामोशी और कनखियों से मेरी तरफ देखने की आदत को आज अकेले में जैसे पढने का भूत सवार हो गया था। क्या मेरे पति कभी मुझे वैसे ही प्यार करेंगे जैसे सुजाता दीदी के पति उन्हें करते हैं? जैसा मेरी सहेलियाँ और पड़ोस की भाभियाँ कहती थी वैसा तो कुछ नहीं हुआ!!! लगता है सब ऐसे ही बढा चढा कर कहती होंगी......वरना मैं तो इन सबमें खूबसूरत हूँ, सभी तो कह रही थी कि मेरा पति तो मेरे आगे पीछे घूमता रहेगा.....एक बार फिर मन अभिमान से भर गया। अब घर पर सब मिलेंगी और मुझसे मेरे पति के बारे में पूछेंगी तो क्या कहूँगी......कैसे बताऊँगी कि मेरे पति को मैं पसंद नहीं? इस ख्याल से ही मेरी नींद बिल्कुल उड़ गयी.....मन में आया कि झूठ बोलना ठीक रहेगा नहीं तो सब मेरा मजाक बनाएगीं। यही सब सोचते सोचते कुछ देर आँख लग ही गयी।
सुबह चाय वाले की आवाज से नींद खुल गयी। सामने सीट पर बैठी महिला को सामान का ध्यान रखने को कह बाथरूम हो कर आयी और एक चाय ले कर पी....नाश्ते के लिए मठरी और अचार था ही, बस वही खा लिया, अभी तो शाम तक का सफर था। जब खिड़की से बाहर देखते देखते उकता गयी तो पत्रिका पढने लगी.....पत्रिका पढने में समय बीत ही गया और अब गाँव पहुँचने में 1:30-2 घंटे बाकी थी। ये दो घंटे बीतने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मन कर रहा था झट से उड़ कर घर पहुँच जाऊँ।
आखिर मेरा इंतजार खत्म हुआ और मैं अपने गाँव का नाम पढ कर खुश हो रही थी, धीरे धीरे ट्रेन की रफ्तार कम होते हुए रुक गयी......पिताजी मुझे दिख गए थे। बंबई जितने बड़ा स्टेशन तो था नहीं, सो भीड़ कुछ खास नहीं थी.....या ये कहूँ की इक्का दुक्का लोग ही दिख रहे थे। पिताजी तुरंत मेरे डिब्बे में आए और मेरा सामान उतारने लगे......। यहाँ ट्रेन का रूकने का समय ज्यादा नहीं था तो हम दोनो जल्दी ही सामान ले कर उतर गए। साथ बैठे लोगों को नमस्कार करना मैं जल्दी में भी नहीं भूली थी, उन्हीं लोगों की मदद से ही तो यात्रा सुखद बन गयी थी....। पिताजी ने सामान स्टेशन के बाहर खड़े टांगे पर रखवाया और हम चल दिए घर की ओर......पिताजी के साथ बहुत सारी बातें करने की इच्छा हो रही थी, पर न जाने क्यों नहीं कर पा रही थी!!! शायद चुप रहने की आदत सी हो गयी थी....पिताजी घर-परिवार के बारे में सवाल पूछ रहे थे और मैं उन्हें जवाब देती जा रही थी। उस दिन पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि या तो मैं बदल गयी हूँ या पिताजी......पहले पिताजी बात बात पर मेरे सर पर हाथ फेरा करते थे और मैं भी तो हर बात पर उनकी सहमति के लिए, "है न पिताजी", कह कर उनकी आँखों मे देखा करती थी और वो मुस्करा कर कहते," हाँ बिटिया ठीक कह रही हो"!!
पिताजी के औपचारिक सवाल खत्म हो गए थे, इसलिए वो चुप हो गए, या ये भी हो सकता है कि वो भी मुझ में खोयी अपनी पुरानी जानकी बिटिया खोज रहे थे....."पिताजी आप कैसे हैं"? मेरे पूछने पर मुस्करा कर बोले,"मैं ठीक हूँ बिटिया......और तेरे आने से बहुत खुश हूँ"!कह कर उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेर दिया, बस उसी पल मेरे वही पिताजी मुझे मिल गए थे। मैं उन्हें बता रही थी कि मैंने वहाँ क्या क्या देखा, मुझे शहर कैसा लगा और भी बहुत सारी बातें जिन्हें वो आज भी उतने ही ध्यान से सुन रहे थे, जैसे पहले सुना करते थे।
क्रमश:
स्वरचित