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स्त्री.... - (भाग-23)

स्त्री......(भाग -23)

सड़क और उस पर आने जाने वाले लोगों को देखते देखते वक्त का पता नहीं चला।उगते सूरज से टाइम का आभास हुआ तो अपने रोज के कामों की शुरूआत की...काम के साथ साथ आगे कैसे और क्या करना है, ये भी प्लान करती जा रही थी....अभी अपने ही विचारों में गुम थी कि फोन की घंटी ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा....पति का फोन था जो ये कहने के लिए आया था कि जब मैं अपना सामान शिफ्ट कर लूँ, तो उन्हें फोन करके बता दूँ जिससे वो उनके मालिक चाभी के लिए किसी को भेज देंगे। उसी दिन मैंने अपनी बाई से अगले दिन नए फ्लैट की सफाई के लिए पूछा तो उसने कहा कि वो खुद तो नहीं आ सकती,पर किसी और को ले आएगी, ये भी ठीक था। अगलै ही दिन वो एक 30-35 साल की औरत को ले कर आ गयी। पतली दुबली सी वो औरत सांवली थी पर नैन नक्श बहुत सुंदर थै, पर आँखों में उदासी छायी थी। उसी वक्त तो मैं क्या ही पूछती, सो बस नाम पूछा तो बताया, तारा।। तारा काम की ही तलाश में थी, इस दुनिया में कहने को बस भाई भाभी थे। पति की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी, एक बेटा था वो भी दो साल पहले बीमारी से मर गया। वो नासिक के पास किसी गाँव में रहती थी, जब कोई न रहा तो अपने भाई के पास आ गयी, पर मुंबई जैसे शहर में भाई भाभी कितने दिन बिठा कर खिलाते सो खाने के साथ भाभी के ताने मिल रहे थे।
मेरे बिना पूछे ही मेरी बाई ने सब बता दिया। मैं उसको ले कर अपनी वर्कशॉप में ले आयी और ऊपर फ्लैट की सारी सफाई का जरूरी सामान दे कर नीचे काम में लग गयी। 2-3 घंटे की मेहनत से तारा ने घर चमका दिया था। सामान एक जगह से उतार कर दूसरी जगह पर चढाने के लिए अपने स्टॉफ की मदद से एक टैंपो और लेबर को बुला कर अगले ही दिन सब सामान उतार कर चढवा लिया। बाकी का काम था कमरो में ठीक से लगाने का तो वो हम सबने मिल कर कर लिया। मुझे तारा का काम बहुत पसंद आया। मैंने तारा से पूछा कि वो मेरे यहाँ काम करेगी, उसके भाई का घर बहुत दूर था तो वो मना कर रही थी, मैंने उससे पूछा कि इतने दूर जाने की क्या जरूरत है? तुम तो अकेली ही हो तो मेरे पास ही रहना खाना और काम करना पगार तुम अपनी अलग से रखती रहना। उसने झट से हाँ कह दी। शायद वो अपनी भाभी के तानों से कुछ ज्यादा ही दुखी थी तभी मेरी बात सुन कर उसकी बेजान सी उदास आँखो में हल्की सी चमक देखी थी मैंने.........अब हम एक से भली दो हो गयी थी। बहुत कम दिनों में तारा ने सारा घर संभाल लिया था......उसका व्यवहार बहुत भला था। मेरा ध्यान बिल्कुल अपनी छोटी बहन की तरह रखती थी। पिताजी को चिट्ठी लिख कर अपना नया पता बता दिया था। मेरा काम बढ़ रहा था......अब धीरे धीरे लोग मेरे पास डायरेक्ट भी आने लगे थे अपनी एक एक साड़ी या सूट ले कर, इस तरह से मै् अपने रेट ले सकती थी और डायरेक्ट पैसा भी मिल रहा था जिसमें प्रोफिट भी ज्यादा ही मिलना था क्योंकि जो हम शोरूम में माल देते थे, वो उसमें अपना मुनाफा जोड़ कर बेचते तो दाम काफी ज्यादा होने ही थे। बड़े बड़े शोरूम में लोग भी तो बड़े बड़े आते हैं, जिन्हे पैसे की परवाह ही नहीं होती.....पर मैं अपना हुनर आम लोगो तक भी पहुँचाना चाहती थी, इसके लिए मैंने थोड़े कम दाम के सैंपल भी तैयार करवाए और जो आता उनको दिखाना शुरू किया तो रिस्पांस अच्छा मिला....मैं अपना एक दुकान खोलना चाहती थी पर जल्दबाजी में नहीं। हर कदम सावधानी से रखना ठीक समझ रही थी....सुनील भैया और सुमन दीदी से बात होती रहती थी, मिलना जरूर कम हो गया था, आखिर सब सुबह से शाम तक अपने अपने कामों में जो बिजी रहते थे.....फिर एक दिन उस वक्त मैं हैरान हो गयी जब कामिनी अपनी सहेलियों के साथ मेरी वर्कशॉप में आयी। उसकी सहेलियों ने जो साड़ियाँ ंमैंने यहाँ आने वाले कस्टमर्स के लिए तैयार कर रखी थी, उनमें से एक एक चारों सहेलियों ने ली और दो ने सैंपल देखकर अपने मनपसंद रंग पर काम करने का आर्डर भी दिया। जब वो जाने लगीं तो मैंने कामिनी को एक साड़ी अपनी तरफ से देने की कोशिश की पर उसने लेने से मना कर दिया ये कह कर की जब आप घर आओगी तब लूँगी। कामिनी का हद्रय परिवर्तन था या मुझसे हमदर्दी पर उसका व्यवहार बदला हुआ था।तारा चाय नाश्ता तैयार करके बुलाने आयी, तो मैं उन्हें ऊपर चलने के लिए मना लिया। उस दिन मुझे बहुत खुशी हुई थी। उस दिन के बाद कामिनी बीच बीच में आती रही, कभी बच्चों के साथ तो कभी अलग अलग सहेलियों के साथ, इस तरह मेरे काम का दायरा बढ़ रहा था। लोग जानने लगे थे, मैंने अपनी वर्कशॉप और काम को एक नाम दे दिया...."वीवर्स"। कामिनी ने सही कहा था उस दिन की "माउथ पब्लिसिटी" से काम जल्दी चलने ही नहीं दौड़ने लगा।
"माउथ पब्लिसिटी" शब्द नया था मेरे लिए। कामिनी ने ही बताया कि इसका मतलब काम अच्छा होगा तो हम एक दूसरे को बताते हैं, उनका अनुभव भी अच्छा रहेगा तो वो आगे बतलाते चलते हैं। ऐसा ही तो हो रहा था। ये वो वक्त था जब मैं बाहर के आडर्स के साथ साथ पर्सनल काम भी संभाल रही थी। तारा हर काम में मेरे साथ लगी रहती थी। ये वो दौर भी था जब हाथ के काम की डिमांड ज्यादा थी।कारीगरों को दो शिफ्ट में बाँट दिया था, जिससे दोनों शिफ्ट के कारीगर घर से आराम करके आएँ और यहाँ आकर फुर्ती से काम कर पाएँ। पहली शिफ्ट सुबह 7-4 और दूसरी शिफ्ट 4 बजे से 12 तक। यहाँ किसी को भी आने जाने की परेशानी नहीं थी, पर औरतों को 9-6 ही बुलाया दिन में क्योंकि उन्हें घर भी देखना होता था। दुकान को अलग बनाने की बजाय मैंने वहीं एक छोटा सा पार्टीशन बना लिया था...जहाँ बैठ कर मैं बात कर सकूँ.....बहुत कुछ करना थी अभी तो...कंप्यूटर सीखने के लिए एक घंटा निकाल ही लेती थी। मैं नया कुछ सीखने को तैयार रहती थी, बेसिक सीखना शुरू किया तो ऐसा लगा कि मुझसे नहीं हो पाएगा....धीरे धीरे समझ आ रहा था। मुझे तीसरे हिस्से का पैसा तो मिल गया था, पर मैं उन पैसों को अभी खर्च नहीं करना चाहती थी तो सुमन दीदी को कह कर FD करवा ली।
पति से अलग हुए साल होने को आया था, एक दिन कामिनी ने बताया कि," जेठ जी ने दूसरी शादी कर ली है, लड़की कहो या औरत वहीं की है, विधवा है। दो बच्चे भी हैं उसके छोटे छोटे। मैंने कहा ये तो अच्छा है कि किसी गरीब को सहारा दिया तुम्हारे जेठ जी ने और बच्चों को भी बाप मिल जाएगा"। कामिनी मेरी तरफ देखते हुए बोली आपको सच में बुरा नहीं लगा भाभी? "नहीं बिल्कुल नही, हर इंसान को अपने जीवन को अपने तरीके से जीने की आजादी होनी ही चाहिए। "फिर तो आपको भी अपनी लाइफ में आगे बढ़ना चाहिए जेठजी की तरह, आपका बिजनेस अच्छा जा रहा है, पूरी लाइफ अकले रहना ठीक नहीं, आप डिजर्व करती हैं खुश रहना और एक खुशहाल परिवार"! कामिनी की कोई भी बात गलत नहीं थी, पर क्या इतना आसान होता है फिर से नए सिरे से सब शुरू करना। पति ने दो बच्चों की माँ के साथ शादी क्यों की ये मैं अच्छी तरह से जानती हूँ, औरतों पर यूँ एहसान लाद कर पुरूष को अपनी कमियाँ ढकने की आदत बहुत पहले से रही है। कामिनी की बात सुन कर मैंने उसे सोचूंगी कह कर टाल दिया। मैंने घर पर जो चिट्ठी लिखी थी उसका जवाब तकरीबन दो हफ्ते के बाद आया......घर में सब ठीक हैं, राजन की पढाई पूरी हो गयी थी तो उसने पुलिस में भर्ती के लिए पेपर दिया था वो पास करके ट्रेनिंग पर गया हुआ था। पिताजी ने अपना ऑफिस का फोन नं लिखा था कि वो वहाँ पर फोन कर सकती है। मैंने अगले ही दिन पिताजी को से फोन पर बात की। छाया का हाल चाल लिया, पता चला कि उसका भी एक बेटा और एक बेटी हैं, बहुत खुश है वो। मिलने आती रहती है, मैंने माँ के स्वर्गवास के बारे में बताया तो वो बोले कि बताया क्यों नहीं। मैंने उन्हें बताया कि सब बोल रहे थे कि काफी दूर से आएँगे, परेशान हो जाएँगे इसलिए नहीं बताया गया। पिताजी को मैं अपने तलाक का नहीं बता पायी क्योंकि वो छाया के लिए बहुत खुश थे, अपने दुख से दुखी नहीं करना चाहती थी। मैंने उन्हें माँ को लेकर कुछ दिन मेरे पास आने को कहा तो बोले बात करता हूँ तेरी माँ से....."मैं न आया तो उसे ही भेज दूँगा किसी के साथ। नहीं पिताजी आप भी साथ आना, जब भी आना....अपना मोबाइल नं भी दे दिया था.....मेरी बात सुन कर वो हँस दिए"। रान इतना बड़ा हो गया, पता ही नहीं चला वक्त रेत सा फिसलता चला गया लगता है......मेरे अपने मेरे दुख से अनजान कितनी दूर बैठे हैं और इस भ्रम में जी रहे हैं कि उनकी दोनों बेटियाँ अपने अपने ससुराल में खुश हैं...कभी कभी लगता है कि मैं और तारा एक ही नाव में सवार हैं। अपने होते हुए भी यूँ अकले रहने को मजबूर अपनी अपनी मजबूरियों की वजह से......शायद हम दो अकेली औरतों को मिलाया ही इसलिए भगवान ने ताकि एक दूसरे का साथ दे सके....।धीरे धीरे वक्त बदल रहा था...कंप्यूटर की जगह लैपटॉप आ गए.....और नयी सदी की शुरूआत होने वाली थी.....सुनील भैया ने एक लड़के को मेरा एकाउंटस का काम देखने को लगा दिया था। हिसाब किताब संभालने वाला आने से मेरी एक परेशानी खत्म हो गयी थी। वो लड़का 21-22 साल का था उसका नाम मुकेश था, जिसमें तारा को अपना बेटा दिखता था..... वो उसका ध्यान रखती, खाने को कुछ खास बनाती तो मुझसे पूछ कर उसको बड़े प्यार से खिलाती, वो भी चुपचाप खा लेता था। उसको खिला कर तारा को संतुष्टि होती थी और तारा की ममता की तृप्ति मुझे भी खुश कर जाती।
कितना प्यार होता है एक औरत के पास, अपने पिता, भाई, बेटे सबके लिए और वही औरत एक बहन, माँ, बेटी या पत्नि के रिश्तों में कितनी आसानी से छली जाती है.......बस तरीका ही तो अलग होता है...।
क्रमश:
स्वरचित
सीमा बी.