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अपना आकाश - 16 - मंगल की छलांग

अनुच्छेद- 16
मंगल की छलांग

मंगल अपने खेत की अन्तिम सिंचाई में लगे थे। आज उन्होंने तन्नी और वीरू को नहीं बुलाया। दोनों की परीक्षाएँ निकट हैं अधिक से अधिक समय वे पढ़ाई पर दें। कोहा भरते समय वे फसल को देखते और खुश होते । रामदयाल भी बाजार से लौटते समय वहीं आ गए। एक क्षण रुके। राम जुहार के बाद बोले, 'इस बार तो तुम्हारे पास गेहूँ एक ही बीघा हैं।' 'पर लहसुन तो है, सब निबटा देगा।'
'लहसुन तो जिलाजीत है भाई।' 'बिना किसी विघ्न बाधा के आप सब की कृपा से सामकूल निभ जाय ।'
'अब यह अन्तिम पानी है। इसके बाद तो खोदना ही है।'
'अगले साल गाँव भर लहसुन बोई। तुम्हार खेती देख सबके मुँह में पानी आय रहा है।' गाँव भर बढ़े यह तो अच्छी बात है।'
'तुम्हारा रास्ता दिखाइब बहुत काम करी। गाँव चमक जाई। हम हूँ आधा लहसुन..'
'चलो, पुरवा लहसुन की मंडी बन जाय तो भाव भी ठीक मिली।'
'मुला भाव सुना डगमग होने लगा है।'
'हम लोगों के खेत में जब पैदा होगा उस समय तो भाव डगमग बताएँगे ही। तीस साल से यही देख रहा हूँ। पर रामदयाल भाई, कितनो डगमग होई तबौ सबसे अच्छे जाई ।'
'कितना डगममगाई ?' रामदयाल ने भी हामी भरी।
राम दयाल ने साइकिल उठाई, घर गए। मंगल कोहा काटते रहे।
एक बजे भँवरी भोजन लेकर आई। अब वह कोहा काटने लगी।
मंगल बोरिंग के पानी से ही नहाकर खाने बैठ गए। भँवरी लाँग कसे, खेत में डटी रही। फसल देखकर उसका मन प्रफुल्लित हो रहा था। लहसुन लगभग तैयार है। 'भगवान बहुत दिन बाद सुन्यो ।' भँवरी के मुख से निकला ।
मंगल ने भोजन किया। पाँच मिनट के लिए लेटे फिर उट पड़े। भँवरी से कहा 'अब तुम जाओ। हम कोहा काटते है। भैंस को नहला देना।' भँवरी ने बर्तन को अँगोछे में बाँधा और घर चली आई भगवान को धन्यवाद देते हुए । मंगल कोहा काटते रहे। दिन डूबते पूरा खेत सींच पाए। जब उन्होंने अपना पंपसेट बन्द किया, थक कर चूर हो रहे थे। थोड़ी देर के लिए लेटना चाहते थे पर गोधूलि के कारण लेटे नहीं। शहरों में गोधूलि का प्रत्यय ही गायब हो रहा है । दिवाकर जाने के पहले ही बल्ब जल उठते हैं फिर गोधूलि कहाँ और कहाँ उसका प्रत्यय ? लोग महीनों चाँद की ओर नहीं झाँकते पर हठीपुरवा का समय अब भी सूर्य चन्द्र से नियंत्रित होता है ।
थोड़ी देर बाद वीरू आ गया। मंगल घर गए। भैंस को दुहा । भँवरी ने रोटी तैयार कर लिया था। खाया और खेत की ओर चल पड़े। तन्नी लालटेन जलाए अपनी तैयारी में जुटी थी। मंगल खेत पर पहुँचे अपना बिस्तर बिछाया। वीरू को घर भेजा और स्वयं लेट गए। थके थे ही लेटते ही नींद आ गई। रोज रात में एक दो बार उठते, खेत पर एक नज़र डाल फिर लेट जाते थे। पर आज कुंभकर्णी नींद थी।
भैंस दुहने के लिए अंणेर मचाए थी। वीरू दौड़कर आया, 'बापू भैंस.......' वे चट से उठे जाकर भैंस दुहा। ऐसी नींद! वे स्वयं चकित थे । वे घर पर ही थे कि गाँव का एक लड़का दौड़ता हुआ आया, 'काका आपका लहसुन खोद गया।'
'अरे!' मंगल दौड़ पड़े। उनके पीछे वीरू, तन्नी, भँवरी । उन्हें दौड़ते देख और लोग भी दौड़े। पूरा पुरवा ही दौड़ पड़ा। लहसुन को साबुत देखकर साँस रुकी। 'कहाँ खोद गया बच्चा ?' मंगल ने पूछा। लड़का उन्हें बिल्कुल किनारे ले गया। सचमुच एक कोहा लहसुन कोई खोद ले गया। इस पुरवे के लोगों का काम नहीं है यह । 'काका यह पुड़िया वालों का काम है।' नरेश ने कहा। 'सच कहता है नरेश।' दूसरे ने टिप्पणी की। आसपास के कई पुरवों में लड़के 'पीनक' के नशे के लिए सौ पचास रुपये का सामान उठाकर बेच लेते हैं। अपने ही घर में चोरी कर लेते हैं। नशे की पूर्ति के लिए कुछ भी करने में उन्हें संकोच नहीं होता । पुड़िया न मिलने पर छटपटाने लगते हैं। ऐसों का गिरोह बन जाता है। कितने ही बच्चे बर्बाद हो रहे हैं। पर धन्धे वालों को रुपया दिखता है, बच्चों का भविष्य नहीं ।
इस पुरवे में अभी कोई लड़का 'पीनक' से नहीं जुड़ा। जो बच्चे काम की तलाश में दिल्ली, मुंबई भागते हैं उनमें दो-पवन और चिन्ता का पता नहीं लग रहा है। एक बार चिन्ता दिल्ली में गाँव के दो आदमियों को दिखा था। वह ट्रांसपोर्टर के तबेले में बैठा पीनक के नशे में मस्त था । चिन्ता का चाचा भी दिल्ली में रहता था। वह दो साथियों के साथ मिलने गया। चिन्ता ने चाचा को पहचाना तो पर साथ आने को तैयार नहीं हुआ। जब तक चाचा पुलिस की मदद का प्रबन्ध करे ट्रान्सपोर्टर को पता लग गया। उसने चिन्ता को बाहर भेज दिया। उसके बाद फिर कभी चिन्ता नहीं दिखा। घर वाले कितना दौड़ते? पुलिस भी कहती कहीं सुराग लगे तभी कुछ किया जा सकता है।
लहसुन एक ही कोहा खुदा था। पर उसकी पीड़ा मंगल के परिवार को ही नहीं पूरे पुरवे को थी । पुरवे के बच्चों ने तय किया हम रखवाली करेंगे, 'चाचा आप निश्चिंत रहो।' उसी दिन से चार बच्चे मंगल के साथ खेत पर सोते, तीन-तीन घण्टे जागकर लहसुन की रखवाली करते ।
जो जगते वे थोड़ा हटकर किस्से कहानी सुनाते, धीरे धीरे गाते। आधी रात बीत जाती तो सोए हुए दोनों बच्चों को जगा देते। उनका मुँह हाथ घुला देते । फिर वे दोनों बैठकर किस्से कहानियाँ बिरहा कहते। इसी में सुबह हो जाती । शहरों में लोग जगने के लिए चाय काफी का सहारा लेते हैं पर इस पुरवे के इन बच्चों के लिए किस्से कहानियाँ ही जगाने के लिए पर्याप्त हैं।
छोटी-छोटी अपेक्षाएँ, छोटे-छोटे सुख दुख भी कभी बहुत बड़ा नहीं आया। जोखिम उठाकर बहुत लम्बी छलांग भी किसी ने नहीं लगाई। मंगल ने आगे बढ़कर कदम उठाया है। पुरवे के लोग इस कदम में अपना भविष्य भी देख रहे हैं। यदि मंगल सफल होते हैं तो लहसुन की नर्सरी बन जायगा यह पुरवा । बच्चों को लग रहा है मंगल चाचा बाजी मार ले गए हैं। बस थोड़ी सी कसर रह गई है।