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अपना आकाश - 15 - घर स्नेह से चलता है

अनुच्छेद- 15
घर स्नेह से चलता है

अंजलीधर पूछती जातीं और तन्नी हँसती हुई बताती जाती। अंजली को लग रहा है कि वे अपनी लड़की की शादी कर रही हैं। 'लड़का कितना पढ़ा हैं?' 'इण्टर तक माँ जी।' 'ठीक है, कोई हर्ज नहीं। दोनों इण्टर तक पढ़े हैं। लड़का चार पैसा कमा रहा है।' 'हाँ, माँ जी बहुत सरल लगे वे लोग । लड़का भी अच्छा है ।'
'लड़के-लड़की और परिवार का समायोजन बढ़िया होना चाहिए। रुपया पैसा कमबेश हो सकता है। यदि परिवार में स्नेह.......एका है तो बड़ी बात है।' 'हाँ, माँ जी।' तन्नी मालिश करती रही। 'अच्छा घर, वर मुश्किल से मिलता है।' 'हाँ, माँ जी।'
'तेरी तरन्ती सुखी रहेगी। उसे बताना घर परिवार स्नेह से चलता है जैसे तेल डालने से दिया की बाती जलती है।'
'हाँ, माँ जी।'
'शादी कब होगी?"
'अभी तारीख नहीं तय हैं, माँ जी ।'
मालिश कर चुकी तो तन्नी उठी । रसोई में घुस गई। तन्नी की परीक्षा तिथि नजदीक आती जा रही है। आज घर पर जब वह पहुँची, वीरू पूछ बैठा 'दीदी, उस पाँच हजार का क्या हुआ?'
'अभी कुछ नहीं ।' साइकिल खड़ी करते हुए तन्नी ने कहा। वीरू सोचने लगा। काश! उसके पास पाँच हजार होते तो वही दीदी को दे देता । आखिर, लहसुन बिकेगा तो रुपया हो जाएगा, लोग इतना क्यों नहीं समझते। तन्नी घर के अन्दर चली गई पर उसे रुपयों की चिन्ता सताने लगी। वह रुपया दे या न दे, थोड़ी देर सोचती रही। वह रुपया नहीं देगी। उसने सोचा रुपया देकर कब तक पास होती रहेगी?
पर फिर शंकालु मन प्रश्न करने लगा। रुपया न पाकर उन लोगों ने अनुत्तीर्ण करा दिया तो......
इस तो.......का कोई उत्तर उसे सूझ नहीं रहा है। शाम को भोजन करने के बाद मंगल ने खेत पर जाने के लिए छड़ी उठाई पर ठिठक कर तख्ते पर बैठ गए।
तन्नी से पूछा, 'क्या कालेज प्रबन्धक पाँच हजार रुपये मांग रहे हैं?"
'हाँ, पर मुझे रुपया नहीं देना है। तन्नी ने कह दिया।
'हूँ', मंगल के मुख से निकला। कुछ क्षण सोचने के बाद उन्होंने कहा, 'रुपया न पाकर वे नुक्सान कर दें तो......। कितना नुक्सान हो जायगा ? तेरा एक साल का समय, कालेज की फीस, कोचिंग का खर्च सब कुछ माटी हो सकता है। कठिन समय है बेटी ।'
'सब लोग रुपया देते रहेंगे तो उनका मन नहीं बढ़ जायगा बापू ?" 'ठीक कहती हो बेटी । निजी स्कूल मनमानी वसूली कर रहे हैं। पर हमारे सामने रास्ता क्या हैं? इनके खिलाफ आवाज़ भी तो अब नहीं उठती । निजीकरण के इस दौर में दस बच्चे भी इसका विरोध करने के लिए तैयार नहीं होंगे।' 'दस बच्चे इकट्ठे ही नहीं होते।'
'तब ? गलत कामों का विरोध तो संगठित होकर ही किया जा सकता है।' 'जो विरोध करेगा उसका तो हर सम्भव नुकसान करने का प्रयास वे करेंगे।' ' इसी लिए सब कुछ सहते हुए लोग चुप हैं।' वीरू तख्ते पर बैठा लालटेन के सहारे अपनी हिन्दी की पुस्तक उलट-पलट रहा था, बोल पड़ा 'बापू, जब एक महीने बाद हमें रुपया मिलने ही वाला है, क्यों न किसी से लेकर दीदी के कालेज को दे दिया जाय।'
वीरू के इस वालसुलभ सुझाव पर तन्नी और मंगल दोनों को हँसी आ गई। दोनों को हँसते देखकर वीरू भी हँस पड़ा। हँसी शायद संक्रामक होती हैं।