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अपना आकाश - 25 - नन्दू की आँखें पढ़ो

अनुच्छेद- 25
नन्दू की आँखें पढ़ो

दिन के तीन बजे थे । इतवार का दिन। अंजलीधर ने वत्सला को बुलाया। पुरवा लहकी हुई थी। आसमान में बादल थे पर वर्षा की शीघ्र संभावना न थी । ज़मीन को छीलती हुई पुरवा जब दो-चार दिन चलती है तो बारिश की उम्मीद बँधती है। कहावत है 'भुइयाँ छोल चले पुरवाई । तब जानो बरखा रितु आई ।'
'माँ जी आपने बुलाया ?"
‘हाँ बेटे। कई दिन हो गया तन्नी से भेंट नहीं हुई। मैं चाहती हूँ उसके घर चला जाए। सब दुखी होंगे।' 'बदली तो है ।'
'पर ये बरसने वाले बादल नहीं हैं। चलो हो आएँ ।'
'ठीक है चलो।'
पन्द्रह मिनट में दोनों तैयार हुईं। वत्सला ने एक बोतल में पानी भरा । अपने बैग में डाल लिया। नीचे उतरीं। एक दूकान से पेठा का दो पैकेट लिया । सड़क पर आ गई। एक रिक्शे पर बैठ गई।
'गाँवों का भला कैसे होगा बेटी ?"
माँ के इस प्रश्न से बेटी अचकचा गई।
“मैं बराबर तन्नी के पुरवे के बारे में सोचती रहती हूँ । इनका भविष्य क्या है? तन्नी का भविष्य क्या है?
कैसे आगे बढ़ेंगे इस पुरवे के बच्चे?"
वत्सला जब तक इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढें, रिक्शावाला बोल पड़ा- 'माई गाँव कै गरीब - धुरीब काव बढ़ि पैहैं?"
'क्या कोई रास्ता नहीं है?" माँ जी बोल पड़ीं।
'अब हम का बताई माँ जी?' रिक्शे वाले ने कहा 'ठीक कहते हो समस्या बहुत सरल नहीं है।' माँ जी कहती रहीं ।
रिक्शा बढ़ता रहा। माँ जी का दिमाग भी चलता रहा। क्या मैं कुछ कर सकती हूँ । इस पुरवे के लिए? वत्सला के पिता जी कहा करते थे - समाज की सेवा करना ही हम लोगों का धर्म है। आज वे नहीं है। जब तक रहे समाज के काम से ही दौड़ते रहे। स्वास्थ्य साथ न देता पर उनके पैर कहाँ रुकते? किसी न किसी समस्या का हल ढूँढ़ने में लगे रहते। पहले तो मुझे भी सामाजिक काम में ही लगा रखा था। जब रोटी चलना मुश्किल हो गया तो मैं अध्यापिका बन गई। गृहस्थी सँभली । वत्सला की पढ़ाई-लिखाई हो पाई। वे प्रसन्न हुए। सामाजिक कार्यों में और मुस्तैदी से जुट गए।
कभी बारह कभी एक बजे रात को लौटते। साथ में दो कार्यकर्त्ता भी । कहते, 'अंजली, मेरे लिए रोटी बना रखी है न? उसी के तीन हिस्से कर दो। हम लोग खाकर पानी पी लेंगे।'
'बस हाथ मुँह धोओ। मैं रोटी सेंक देती हूँ।' मैं कहती। वे प्रसन्न हो जाते । मैं भी सामाजिक कार्यों से जुड़ी थी। जल्दी जल्दी रोटियाँ सेंकती। सभी को खिलाकर मेरा मन भी प्रसन्न हो उठता।
माँ जी सोचते हुए गा उठीं, 'मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा ।' रिक्शेवाले की समझ में भी कुछ आया। बोल पड़ा। 'आप सच्ची बात कहेव माँ जी। कपड़ा रंगाए का होई?"
माँ जी प्रफुल्लित हो उठीं। अनपढ़ आदमी भी बहुत कुछ समझता है। 'कुछ पढ़े हो भाई?" माँ जी ने पूछा। 'नहीं माँ जी। बस आपन नाव लिखि लेइत है। स्कूल जाय का मौका नाहीं लाग, माँ जी ।'
रिक्शा गांव के निकट आ गया था । वत्सला भी सजग हुईं। आज माँ जी में उन्होंने कुछ विशेष देखा । अंजली वत्सला के पिता पार्श्वधर के क्रिया कलापों में खो गई। वे जैसे पार्श्वधर से पूछ रही हों,
'मेरे लिए क्या हुक्म है ?"
रिक्शा सड़क छोड़ कच्चे रास्ते पा आ गया।
रास्ता कच्चा जरूर था पर था समतल रिक्शा आसानी से आगे बढ़ रहा था। अंजली कुछ गुनगुना रही थीं।
अंजली और वत्सला को रिक्शे पर कुछ बच्चों ने पहचान लिया । उन्होंने दौड़कर तन्नी को बताया । वह भागी हुई आई। वत्सला और माँ जी के पैरों पर अपना माथा टेका। दोनों रिक्शे से उतर पैदल चलने लगीं। रिक्शा पीछे ।
माँ जी आज बहुत उल्लसित हैं।
माँ जी और वत्सला के पहुँचते ही पूरे पुरवे में ख़बर हो गई। भँवरी ने आँचल के खूँट से माँ का चरण स्पर्श किया। वीरू भैंस चराने गया था । वत्सला ने पेठा का पैकेट तन्नी को पकड़ाया। उसी में से कुछ टुकड़े एक कटोरी में तन्नी ले आई। माँ जी और वत्सला ने एक एक टुकड़ा लेकर पानी पिया। अंगद और नन्दू अपने खेत में काम कर रहे थे। माँ जी का आना जानकर उनसे मिलने चल पड़े। जो स्त्रियाँ घर पर थीं वे भी माँ जी से मिलने आ गईं। अंगद और नन्दू ने भी आकर प्रणाम किया।
'आप लोग कुछ पढ़े लिखे हो, पुरवे के विकास के लिए कुछ कदम बढ़ाओ। मैं भी जो कर पाऊँगी, करूँगी।'
'आप ठीक कहती हैं माँ जी। अपने लोगों के कदम बढ़ाने से ही कुछ हो पाएगा।' अंगद ने सहमति जताई।
‌‌ 'नन्दू की आँखें पढ़ो। यह बच्चा तन्नी के पिता की मौत से आहत है। उनकी मौत का भी पता लगाओ। पुलिस की कहानी मेरे भी गले नहीं उतर रही हैं।' माँ जी के शब्दों से नन्दू का चेहरा खिल उठा। कोई तो है जो उसे समझ रहा है। 'पता लगाया जायगा माँ जी।' अंगद बोल पड़े। 'आप सही कहती हैं। हमें पता लगाना चाहिए।' माँ जी ने अपने पर्स से पांच सौ का नोट निकाला। अंगद को देते हुए बोली, 'अंगद जी, आप पढ़े लिखे हैं। देश दुनिया देखा है। मैं चाहती हूँ मंगल जी की मौत का खुलासा हो। यह पैसा इसीलिए दे रही हूँ ।'
'माँ जी, हम लोग प्रयास करेंगे। आप रुपये रख लीजिए।' अंगद ने कहा ।
'नहीं, इसे रखिए। ज़रूरत पड़ेगी इसकी । मैं चाहती हूँ कि यह पुरवा कुछ आगे बढ़े। इसके साथ ही मंगल के बारे में सही जानकारी मिले। यदि किसी ने गलत किया है तो उसे सजा मिलनी चाहिए। जरूरत पड़ेगी तो और मदद करूँगी मैं। पेंशन मिलती है मुझे । चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है।'
आज माँ जी के चेहरे की छवि देखने लायक थी। लगता है उनके माध्यम से पार्श्वधर की आत्मा बोल रही है।
वत्सला जी भी माँ के इस रूप को देखकर प्रसन्न हो रही थीं।
"क्या यह रुपया तन्नी के पास रख दिया जाय?' अंगद ने पूछा।
'नहीं, इसे अपने पास रखो। एक उद्देश्य के लिए यह रुपया दे रही हूँ । नन्दू आपकी मदद में रहेगा। तन्नी की मदद अलग से की जाएगी।' माँ जी बोलती रहीं।
'नन्दू, तुम्हारी पीड़ा मैं समझ रही हूँ। हम सब तुम्हारे साथ हैं। पूरा पुरवा साथ रहेगा तो बात खुलेगी।' माँ जी बोलती रहीं ।
'माँ जी, गाँव के विकास के लिए हमने एक बैठक की है। हम चाहते हैं। गाँव में ही कुछ किया जाए। लोगों को रोटी के लिए बाहर न भागना पड़े।' नन्दू ने बताया।
'सही दिशा में सोच रहे जो तुम लोग जो मुझसे हो सकेगा करूँगी।' माँ जी ने नन्दू की पीठ थपथपाई। कभी दिन में बैठक करना तो मुझे भी सूचित करना । आऊँगी मैं ।'
अंगद और नन्दू ही नहीं, गाँव के सभी लोग खुश हुए।
भँवरी को इतना समझ में आया कि माँ जी उसके पति के बारे में भी कुछ करना चाहती हैं। इतने से ही उसके मन में थोड़ा उल्लास जगा ।
'अच्छा, अब चलूँगी।' कहकर माँ जी उठीं। वत्सला जी भी उठ पड़ीं। गाँव के लोग माँ जी को भेजने सड़क तक आए।
माँ और वत्सला जी रिक्शे पर बैठीं। सभी ने माथ नवाया । तन्नी की माँ ने आँचल के खूँट से फिर चरण स्पर्श किया। तन्नी ने भी माथा टेका। राम जुहार करते रिक्शा बढ़ चला। गाँव के लोग थोड़ी देर रिक्शे को जाते देखते रहे, फिर गांव की ओर लौट पड़े।
अंगद बाज़ार गए। नागेश की दूकान पर काम करने वाला वृजलाल मिल गया । 'क्यों भैया आज दूकान पर नहीं गए?' अंगद ने पूछ लिया । 'अब मैं लाला जी की दूकान पर काम नहीं करता।'
'क्यों?'
'तीन साल से पन्द्रह सौ रुपये महीने दे रहे थे। मैंने कहा- मेरा खर्चा नहीं चल पाता। पगार कुछ बढ़ाइए सेठ जी पगार बढ़ाने की कौन कहे सेट जी उल्टे नाराज़ हो गए। कहने लगे-यहाँ खैरात नहीं बँटता है। कुछ बुरा-भला भी कहा।'
'तब?"
'तब क्या ? मुझे भी ताव आ गया। मैंने कहा- मेरा हिसाब कर दो। आपके यहाँ काम नहीं करूँगा मैं। उन्होंने हिसाब कर दिया।' 'अब क्या करते हो?"
“एक लाला जी के यहाँ बात चल रही है। मैं दो हजार चाहता हूँ, वे अठारह सौ देने के लिए कह रहे हैं। इसी पर बात अँटकी हैं।' 'चलो एक कप चाय पी लिया जाए।' अंगद ने कहा 'भाई मेरी जेब में पैसे नहीं है।' बृजलाल बोल पड़े। 'मेरी जेब में हैं। तुम्हें पैसा नहीं देना होगा। आओ चलें ।' अंगद ने साइकिल बढ़ाई, पीछे पीछे बृजलाल की भी साइकिल चलती रही। एक दूकान पर अंगद रुके। साइकिल खड़ी की। बृजलाल भी साइकिल खड़ी कर अंगद के साथ आ गए। अंगद ने दो कप चाय के लिए कहा और दोनों एक मेज के किनारे लगीं बेंच पर बैठ गए। चाय आई। दोनों पीने लगे ।
'भाई, मेरे गाँव के मंगल भाई ने लाला जी के यहाँ लहसुन बेचा था।
इसे तो जानते हो न?' अंगद ने बात शुरू की। 'बिल्कुल जानता हूँ। जिस दिन उन्हें पुलिस ले गई, मैं दूकान पर ही था।'
अंगद चौंक पड़े, मुख से निकल गया, 'अच्छा!'
'और क्या ? दरोगा जी बुलेट पर बैठे, दीवान जी को बिठाया और उसके पीछे मंगल को भी।’ बृजलाल उत्साहित हो बताते रहे।
चाय पीकर अंगद और बृजलाल दोनों उठे ।
अंगद बृजलाल को एक किनारे ले गए। धीरे-धीरे बात करने लगे ।
'आपने मंगल भाई को ले जाते देखा था न?"
'बिल्कुल देखा था।'
'इसके बाद मंगल भाई मरे पाए गए यह भी जानते होगे।'
"जानता क्यों नहीं। उनकी साइकिल दूकान पर ही रह गई थी।' 'पुलिस मंगल भाई को क्यों ले गई थी?"
'बात यह हुई कि मंगल लाला से कुछ कड़क आवाज़ में बात कर बैठे। उन्हें लहसुन में घाटा हो गया था। वे पचा नहीं पा रहे थे। लाला को शक हो गया कि कहीं हाथापाई न हो जाए। उन्होंने कोतवाली फोन कर दिया। दरोगा जी दीवान जी को लेकर आ गए।
लाला उन्हें अन्दर ले गए। मामला समझाया।
एक लिफाफे में कुछ दिया भी। दरोगा जी निकले। अपनी बुलेट पर दीवान जी और मंगल को बिठाया और ले गए।'
'तुम थे न वहाँ?"
'बिल्कुल था।'
'क्या ज़रूरत पर कह सकोगे भैया?"
'बिल्कुल कह सकूँगा। अब लाला के यहाँ नौकरी थोड़े कर रहा हूँ।'
'लेकिन दूसरे लाला के यहाँ करोगे, वे मना करें तो?"
'मैं इतना कमजोर नहीं हूँ। नौकरी करता हूँ। अपना ईमान नहीं बेचता । मंगल की मौत पर मुझे भी दुःख हुआ। पुलिस ले गई उन्हें इसे मैंने अपनी आँखों से देखा। कहने में मुझे कोई डर नहीं है।'
अंगद ने बृजलाल से हाथ मिलाया। अपनी डायरी में पता नोट किया, कहा, 'हम फिर मिलेंगे।' दोनों ने साइकिल उठाई और अपनी अपनी राह चल पड़े ।