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अपना आकाश - 27 - वह दृष्टि ही अलग है

अनुच्छेद- 27
वह दृष्टि ही अलग है

सायं पाँच का समय । वत्सला जी सब्जी लेने के लिए तैयार हुई । माँ से कहा, ‘माँ, मैं सब्जी लेने जा रही हूँ ।' 'जाओ', कहते हुए माँ जी उठीं। हाथ मुँह धोया। बैठक में अखबार पढ़ने लगीं । वत्सला जी ने झोला लिया और उतर गईं।
अखबार पढ़ते हुए अंजलीधर की नज़र एक ख़बर पर पड़ी। लिखा था - कृषि की वृद्धि दर में कमी। पूरी रिपोर्ट पढ़ने पर उनका माथा ठनक उठा । आखिर किसानों का भविष्य कैसे सुधेरगा? वे सोचने लगीं। थोड़ी खेती ऊपर से मौसम और बाज़ार की मार पैदा भी हो जाय तो किसान से माटी के भाव खरीदो। मक्का सात रुपये किलो किसान से खरीदो। उसी से कार्नफ्लेक्स बनाकर तीन सौ रुपये किलो बेचो और प्रचार करो कि कार्नफ्लेक्स बढ़िया जलपान हैं। कौन मजे में रहेगा तब ? वे विचार मग्न थीं कि घंटी बज उठी।
'दरवाजा खुला है आ जाओ' उनके मुख से निकला। विपिन ऊपर आ गया। माँ को प्रणाम किया। 'खुश रहो बेटे ?' माँ प्रसन्न हुई । विपिन के बैठते ही माँ ने पूछ लिया, 'कहाँ थे बेटे। बहुत दिन हुआ।' 'माँ जी, मैं भोपाल चला गया था। तीन दिन हुआ, आए हुए आज मन हुआ कि आप से भेंट कर आऊँ ।' 'बहुत अच्छा किया बेटे । यहाँ रहो तो आ जाया करो । तेरे आने से मन प्रसन्न हो जाता है।'
'ज़रूर आऊँगा माँ जी। यहाँ आकर नया जीवन पा जाता हूँ।'
'आत्मीय जनों से ज़िन्दगी को पोषण मिलता है ।'
'सच कहती हैं माँ जी ।'
'तेरे धन्धे का क्या हाल है?"
“अब मैं स्वतंत्र रूप से काम करता हूँ किसी अखबार से बँधा नहीं हूँ। तीन चार प्रमुख अखबारों में रिपोर्ट, फ़ीचर प्रकाशित होते रहते हैं ।'
'और आमदनी ?"
'बस खर्च चल जाता है माँ जी ।'
'लेकिन बेटे, शादी करोगे, खर्च बढ़ेगा ।'
"आमदनी भी मेहनत करने पर धीरे-धीरे बढ़ेगी। प्रारम्भ में सभी को संघर्ष करना पड़ता है।'
'अखबार से समाज का भी काम कर सकते हो।'
"हाँ, माँ जी, समाज का काम किया जा सकता है। पर निहित स्वार्थ का पर्दाफाश करने के लिए अपने को भी बहुत तपाना पड़ता है।'
'ठीक कहते हो। निहित स्वार्थ का जाल तोड़कर जनहित का पक्ष रखना अत्यन्त कठिन है। जोखिम भी बहुत है । वत्सला के पिता तो कहा करते थे, 'अंजली, मैं तलवार की धार पर चल रहा हूँ। कुछ हो जाए तो घबड़ाना नहीं । बिना बलिदान के जनहित कहाँ हो पाता है? अपने बारे में कभी सोचते ही नहीं थे वे।'
'वह दृष्टि ही अलग है माँ जी। जो उस रास्ते चल पड़ता है उसे अपने घर-बार के बारे में सोचने का मौका ही कहाँ मिलता है?"
'तन्नी को तो तुम जानते ही हो विपिन । उसके पिता गाँव के सिवान में मरे पाए गए। क्या तुम लोग कुछ नहीं कर सकते? मेरी समझ में नहीं आ रही उसके मौत की कहानी ।'
"उसके पीछे लगना पड़ेगा। सही बात सामने आएगी ही ।'
‘मैं चाहती हूँ सही बात सामने आए विपिन । यदि तुम कर सकते हो तो ज़रूर करो।'
‘मैं कल से ही खोजबीन प्रारम्भ कर दूँगा माँ जी ।'
'गाँव के अंगद और नन्दू भी सच का पता लगाने में लगे हैं। उनसे भी मिल सकते हो।"
‘मिलूँगा……..उनसे भी मिलूँगा।'
'तेरी उम्र कितनी हो गई विपिन ?” 'बत्तीस पार किया है माँ जी अप्रैल में ही।'
'घर बसाने का इरादा नहीं है क्या?"
'अभी सोचा नहीं है माँ जी।'
'कब सोचोगे ? घर बसाने की एक उम्र होती है।'
'आप का कहना सच है माँ जी पर.....।'
'निश्चिन्त हो जाओगे तब शादी करोगे, यही न? समझ लो, आज के ज़माने में कोई निश्चिन्त नहीं हो पाएगा। अनिश्चिन्तता में ही जीना है सभी को शादी करना है तो कर लो! यह बात ज़रूर है कि दोनों में तालमेल होना चाहिए।'
'विचार करूँगा माँ जी आपके सुझावों पर।'
'किन सुझावों पर विचार हो रहा है।' वत्सला भी सब्जी लिए हुए आ गई थी। विपिन कुछ झेंप से गए।
'मैं ही कह रही थी - घर बसाना हो तो बसा लो देरी करने की ज़रूरत नहीं।' माँ जी के कहते ही वत्सला जी भी कुछ झेंपती हुई सब्जी लिए रसोई की ओर बढ़ गईं। तीन कप चाय के लिए पानी चढ़ा दिया। घर की बनी मठरी को एक तश्तरी में निकाला पानी उबल गया तो चाय, चीनी, दूध डालकर उतार लिया। तीन कप चाय और मटरी लिए वे बैठक में आ गईं।
'विपिन काफी दिन बाद इधर आए।'
वत्सला जी ने पूछा लिया।
'मैं यहाँ था ही नहीं।'
'ओह! अच्छा चाय पियो।'
तीनों चाय पीने लगे। चाय की चुस्कियों के बीच कुछ बातचीत भी।
'मठरी खाओ, घर की बनी है।' माँ जी ने एक मठरी उठाते हुए कहा । वत्सला और विपिन ने भी उठाया। 'मठरी बहुत अच्छी कुरकुरी है माँ जी', विपिन ने दूसरी मठरी उठाते हुए कहा । 'वत्सला का हाथ लगा है इसमें।' माँ जी वत्सला के पाक कला की प्रशंसा करती रहीं और वत्सला जी का चेहरा सलज्ज लालिमा से रँगता रहा। 'माँ जी अब आज्ञा दीजिए। जल्दी ही फिर आऊँगा।' विपिन ने चाय खत्म करते हुए कहा।
"बेटा विपिन, मैंने जो कहा है उसका ध्यान रखना।' 'उस पर आज ही से काम शुरू कर दूँगा माँ जी' कहते हुए विपिन ने माँ जी का चरण स्पर्श किया। वत्सला जी भी उठीं। विपिन उन्हें प्रणाम कर नीचे उतर गया।
वत्सला जी सोचने लगीं विपिन घर बसाने जैसे प्रकरण पर आज ही से क्या करेगा? माँ जी का संकेत मंगल की मौत को उजागर करने की ओर था और विपिन ने भी इसे समझा। पर वत्सला के सम्मुख केवल घर बसाने की ही बात हुई थी । वत्सला जी यही समझते हुए सोच-विचार में उलझ गई। 'अच्छा लड़का है।' माँ जी के मुख से निकला। 'हाँ' वत्सला जी भी कह गई ।