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अपना आकाश - 34 - सोलहवाँ लग गया

अनुच्छेद- 36
सोलहवाँ लग गया

विवाह की तिथि निश्चित हो जाए तो तीस वर्ष की अवस्था में भी सोलहवाँ लग सकता है। वत्सला जी कालेज में ज्या कोज्या का हिसाब लगातीं पर घर में बहुत कुछ बदलने लगा । इण्टरमीडिएट में गणित पढ़ने वाली लड़कियों ने भी इस परिवर्तन को अनुभव किया। अब मैडम वत्सला की साड़ियों का रंग गहराने लगा है। लटों को बड़ी सावधानी से सँवारा जाता है। मेक अप आज भी बहुत हल्का है पर चेहरे की लालिमा में चमक पैदा हो गई है। एक दो चूड़ियाँ जो भी पहन रहीं हैं उनका रंग कपड़ों से मिलता हुआ । हाथ में घड़ी नई आ गयी है। बिल्कुल सुनहले रंग में मैडम अब मुस्करा कर बात करती हैं। डाटतीं तो कतई नहीं।
डायरी में गणित के सूत्र ही नहीं गीत और ग़ज़लों की पंक्तियाँ भी स्थान पाने लगी हैं। स्नान करते समय अब वत्सला जी प्रायः गुनगुना उठती हैं। बालों को देर तक सँवारती हैं। एक आध सफेद बाल कहीं दिखते हैं तो उन्हें निकाल देती हैं। अभी बालों को रंगने की ज़रूरत नहीं पड़ी है। दर्पण के सामने खड़े होने का समय बढ़ गया है। पढ़ाती अब भी बड़ी मुस्तैदी से हैं पर अपने को थोड़ा और व्यवस्थित रखने लगी हैं। कक्षा में चाक से अब भी हाथ रंग जाता है। आखिर गणित पढ़ाना है न । शरीर बार-बार पुलक से भर जाता है। पर मन? वह तो सातवें आसमान में उड़ने लगा है। सपने अधिक रंगीन, सुखद हो उठे हैं। मन भावी कल्पनाओं में खोया-खोया ।
मन क्यों लम्बी उड़ाने भरने लगा है? वत्सला जी कभी कभी सोचतीं । पर मन कहाँ मानता है? सपने उगे नहीं कि सब कुछ बदलने लगा । वत्सला का परिवार होगा। कुछ दिन बाद कोई नया भी झाँकने लगेगा। विपिन-वत्सला, वत्सला - विपिन यह जोड़ा बार बार मन में कौंधता अलग अलग रंगों में। इसे ही लोगों ने सोलहवाँ साल लगना कहा है।
वत्सला का कमरा भी सजने लगा एक कलात्मक मूर्ति जो बहुत पहले से आकर्षित करती रही पर वत्सला जी उसे खरीदते रह गईं थीं, अब बेडरूम के एक कोने में अवस्थित हो गई। बिस्तर का चद्दर भी बदल गया है। वत्सला जी के उठने बैठने, चलने की लय बदल गई है। रात साढ़े दस पर वे बिस्तर पर गईं। मन में विवाह के बाद मधुचन्द्र मनाने को लेकर कुछ विचार उठ रहे थे । कहाँ जाना ठीक रहेगा? कितने दिनों के लिए? विपिन कहाँ चलना चाहेगा? सोच-विचार करते ही नींद ने झपट्टा मारा। थोड़ी ही देर में उनका मन उड़ गया कोवलम (केरल)। समुद्र किनारे वे दोनों खड़े हैं। साथ में अनेक नवविवाहित जोड़े हैं। कुछ पर्यटक यूरोप के भी। सूर्य धीरे-धीरे पानी से निकल रहा है। खुशी से लोगों की तालियाँ बज उठीं। उत्साह और हँसी-खुशी की सुबह । कैमरे चमक उठे। दोनों सटे खड़े हैं उस दृश्य में आत्मलीन से एक दूसरे ने इनका चित्र खींचा। प्रकृति ने साथ दिया। आसमान खुला था । यदि बदली छा गई होती तो? नहीं, नहीं हम विवाह के बाद मधु चन्द्र मनाने आए हैं। प्रकृति हमें निराश क्यों करेगी? जोड़े नावों पर बैठने लगे हैं। ये दोनों भी एक नाव पर बैठ गए। नाव धीरे-धीरे खिसकने लगी। विपिन उसका चित्र खींचते रहे विभिन्न मुद्राओं के विपिन तैरना जानते हैं। कमीज़ पैन्ट उतार नाव से छलाँग लगा दिया है विपिन ने। समुद्र गहरा नहीं है पर वत्सला हड़बड़ा जाती है। इसी हड़बड़ाहट में उसकी नींद खुल जाती है। 'अरे' उसके मुख से निकलता है। साँस जो तेज हो गई थी, सामान्य होती है। सपने भी साँसों और हृदय गति को प्रभावित करते हैं इसका उसे ज्ञान है। हाथ उरोजों पर चले जाते हैं। लोग कितना ही दावा करें? शरीर और मन को कितना कम जान सके हैं लोग? ओ मन, शरीर से तेरा रिश्ता क्या है? बुदबुदाती है। अपना ही उरोज सहलाने में उसे आनन्द क्यों आने लगा है? प्रसाधन कक्ष तक जाने की आवश्यकता अनुभव हुई । वह उठ पड़ी।
विपिन में भी बदलाव साफ दिखने लगा है। उनका भी कमरा, अब व्यवस्थित हो चला। बिना कंघी किए घर से नहीं निकलते। दर्पण उन्हें भी अधिक लुभाता है। उनके सपने में अब वत्सला स्थायी रूप से आने लगी हैं, घर - बाहर सैर-सपाटे हर जगह एक दिन भाभी ने बर्दवान से फोन किया, 'वत्सला के सपने से नींद अधिक मीठी आती होगी'। 'हाँ भाभी, एक दिन तू भी सपने में दिखी थी।' विपिन ने जोड़ा।
'सपने ही देखोगे या देह का भी ध्यान रखोगे?' भाभी ने चिकोटी काटी । 'आप होतीं तो व्यवस्था करतीं।' विपिन ने पलट कर कहा । 'दिल दिमाग दोनों को ठीक रखो। बादाम पीस कर दूध में मिला कर पियो ।'
भाभी का सुझाव |
'सिल-बट्टा कहाँ है भाभी?"
'तो दो सप्ताह के लिए बर्दवान चले आओ। मुस्टंड बना दूँगी ।'
'मुस्टंड बनना ज़रूरी है क्या?"
'यह तो बाद में पता चलेगा।' कहकर भाभी खिलखिला पड़ीं। भाभी अक्सर विपिन को फोन मिला देतीं। कभी चिकोटी काटतीं, कभी प्रेम के गुर सिखातीं । विपिन को भी इस भाभी चर्चा में रस आने लगा। वह भी कभी कभी फोन मिला देता ।
बर्दवान में जतिन का घर भी अब घर लगने लगा। वहाँ भी सपने उगने लगे। बहू आएगी। दस ही दिन रहेगी पर घर को खुशियों से भर देगी। घर की सफाई होने लगी। बाथरूम को चमकाया गया। आखिर एम.एस-सी. बहू आएगी। माँ जी अक्सर कहतीं। एक सपना, एक विचार घर को कितना बदल देता है?
विपिन की माँ श्रद्धा के पावों में थिरकन । आखिर बच्चे की शादी है। वत्सला की माँ भी सपने के क्रियान्वयन में व्यस्त ।
तरन्ती और वत्सला की शादी एक ही दिन एक ही मण्डप में माँ अंजलीधर समाज को एक दिशा देती हुई । तरन्ती के माता-पिता, श्वसुर शिवबदन को सहमत कराना बहुत आसान तो नहीं था। पर माँ जी का प्रेम जीता। रूढ़ियों से थोड़ी मुक्ति मिली। दिन में शादी का कार्यक्रम । तरन्ती के पिता केशव को शादी के लिए ऋण लेने से मना करा दिया माँ जी ने । वत्सला जो खर्च करेगी उसी में तरन्ती की भी शादी । वत्सला कमाती है। यथासंभव कम खर्च का प्रयास विवाह में समाज की भागीदारी भी। सबसे अधिक कठिनाई हुई कन्यादान से मुक्ति लेने में। एकअन्ततः केशव और फूलमती भी सहमत हुए कन्यादान के पुण्य से वंचित होने के लिए।
तरन्ती भी सपनों में डूबी हुई। उसकी भाभी राधा उसे हल्दी और सरसो का बुकवा लगा कर सँवारती । बीच बीच में चुटकी भी लेती। दोनों की उम्र में बहुत अन्तर भी तो नहीं। विवाह का आयोजन उम्र का अन्तर रख ही कहाँ पाता है? तरन्ती तन्नी को भी बुला लेती। दोनों में खूब छनतीं।
केशव और फूलमती को समझाने वाले अक्सर आ ही जाते। पैसे रुपये की कमी हो तो हम से ले लो। देते रहना। पर शादी ठाट से करो। एक ही कन्या है। कन्यादान का पुण्य लोक परलोक में काम आता है। माँ अंजली का क्या है? शादी कराकर बगल हो जाएँगी। अगर कुछ अघटित घट गया तो? केशव बेचारे परेशान हो जाते, अंगद से मिलते। पर माँ का स्नेहपूर्ण व्यवहार सारी बाधाओं को पार कर लेता।
अंततः वह दिन आ ही गया जिसकी प्रतीक्षा थी।