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खोया वजूद

खोया वजूद

–ः लेखक :–

अजय ओझा


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खोया वजूद

कोई नहीं होता तो याद आता, जब भी अकेली होती हूँतो बिलकुल याद आता है : मेरा भी कभी एक वजूद था । कहाँ गया ?मर गया ? हां, यकीनन मर गया होगा । मैं पूछती हूँ कि एक औरत केवजूद की आवश्यकता कितनी होती है ? एक औरत के वजूद कीजरूरत भी क्या होती है ? बताइए ना, एक औरत के वजूद की उम्रकितनी होती है ? चालीस साल, पैंतालीस साल ? या अधिक ?एकांत चीज ही ऐसी है । जो न होना चाहिए वही एकांतमें होता है । जो न सोचना चाहिए वही विचार एकांत में आते है । नबोलने की बात जोर से मुँह पर आ जाये । वही याद आये जो भूलनाहोता है : मेरा भी कभी एक वजूद था ।

बेटी मनीषा स्कूल जाये, उसके पापा सुरेश ओफिस जाये,तो मैं फिर अकेली रह जाती हूँ । ध्यान रहें; कोई भी दुविधा न हो औरफिर भी कुछ कमी महसूस होने जैसी टिपीकल फिलोसोफी की बातमैं नहीं करती । मैं भी पढी–लिखी हूँ, जीने का तजुर्बा है मुझे भी ।

बचपन से ही मन में उठते सवालो का जवाब ढूँढते रहने की आदतपडी है । मेरा छोटा भाई हमेशा देर से उठता और माँ मुझे झाडते हुएजगा देती । भैया बाहर खेलता तब मैं घर का काम कर रही होती । घरके बाहर जाना मेरे लिए वर्ज्य था तो भैया के लिए घर वापस आने कीभी कोई समय मर्यादा तय नहीं थी । ऐसा क्यूं ? मेरा भी कुछ वजूदतो होना चाहिए ना ? मैं कुछ दलील करती तो माँ वो ही दकियानूसीउपदेश देने बैठ जाती । मानो मुझे अपार त्रास सहन करने की आदतखुद में डालनी चाहिए ऐसा माँ सोचती थीं । औरत हूँ तो क्या हुआ ?

लडकियों को बचपन से ही सबकुछ सहन करने का रियाज़ थोडा हीकरना चाहिए ?

आज मेरी बेटी मनीषा यदि किसी युवक को मेरे सामनेखोया वजूदलाकर बोले कि 'मम्मी, यह मेरा दोस्त है । मैं उससे शादी करनाचाहती हूँ ।' तो उस युवक में योग्यता है तो मैं बिना वजह उसकी बातका विरोध करना कभी जरूरी नहीं समझती । क्यों कि मैं जानती हूँकि ऐसे विरोध के कारण कितने खोखले होते हैं ।़ ़ पसंद तो मेरी भी कहाँ गलत थी ? हां ? लेकिनदकियानूसी इज्जत को बचाने विरोध करने का मानो एक रिवाज–साबन गया, जो मेरे माता–पिता ने भी बराबर निभाया । वरना जयेशअच्छा लडका था । नौकरी भी अच्छी थी । ऊँचा खानदान भी था ।महज़ यही नुख्स था उसमें कि मैंने स्वयं ही उसे अपनी मरजी से पसंदकिया था । साधारण कमानेवाले सुरेश के साथ माँ ने बडी धूम सेमेरी शादी रचा दी । मैंने कोई विरोध नहीं किया : औरत हूँ ना ?

जयेश मुझे पसंद था, बस इतना ही; ऐसा नहीं कि मैं उसके बगैरजिंदा नहीं रह सकती, ना ही कभी मुझे ऐसा खयाल आया है । मैं ऐसेखयाली बंधनो में विश्वास नहीं रखती, आखिर प्यार कोई बंधन तोनहीं ।

माँ तो माँ थी, समझो आदर्शवादी सिध्धांतों का भंडार ।लगातार अपनी हिदायतें देती रहें, –'ज्यादा पढाई कर लेने से कोईगृहस्थी नहीं सीख सकता ।' – 'यूं खिडकी के पास बैठकर किताबेंनहीं पढनी चाहिए ।' –'बाहर के आदमी से कभी बातें नहीं करते ।'–'आवाज़ और निगाहें हमेशा नीचे की ओर रखनी चाहिए, क्या ?'

खिडकी के पास बैठकर पढना मुझे पसंद था । पसार होतेलोगों को देखूँ । कभी कभी जयेश भी गुजरता । उसके साथ कभीकभी निगाहें मिल जाती । सिर्फ जयेश ही क्यूं, कोई भी सीधासादा वसरल किसम के युवक के साथ नजरें मिलती तो दिल में कुछ ऐसाहोता जो शब्दों की समझ में कभी नहीं आ सकता । मन रोमांचित होउठता । मुझे गलत तो नहीं समझ रहें ? आदमी किसी लडकी कोदेख रोमांचित हो जाता है, तो औरत के विषय में भी ऐसा क्यूं नहीं होसकता ? जरूर हो सकता है । इसे मैं सस्ता नाम ना दूँ : प्यार । प्यारतो मुक्ति देता है । बिना नाम के भी कई रिश्ते होते है जो किसी भीनाम के मोहताज नहीं होते ।–बावजूद भी सुरेश से शादी करने के बाद मैने कभी अपनेमन में विद्रोह पैदा नहीं होने दिया । वास्तव से तालमेल बनाये रखनेका कौशल्य हर औरत का एक हिस्सा होना स्वाभाविक है । सुरेश केजीवन में उसकी पसंद के रंग भरने मैंने अपने आप को लगा दिया ।

निश्चित मात्रा में ही सही, सुरेश ने भी हमेशा मुझे प्यार दिया है ।उसकी हर बात, उसका हर पहलू, हर प्रतिक्रिया, मानो सारा प्यारनपातुला होता है । एक निश्चित सीमारेखा से आगे वह कभी प्यारजताता नहीं । एकदूसरे पर निछावर हो जाने की मेरी प्रकृति से वहप्रायः भिन्न छोर पर खडा है । मेरी पढाई के कारण मुझे मिली नौकरीको स्वीकार करने का उसने तुरंत इनकार कर दिया था । क्यूंकिनौकरी में औरत के आसपास का वातावरण उसे 'दूषित' लग रहा था।

एक बार रास्ते में कोई युवती को देख सुरेश उसके साथबातें करने रूक गया । देर तक चली उस मुलाकात के बाद सुरेश नेबताया, 'उसका नाम निशा है । मेरे साथ कुछ साल अभ्यास किया हैउसने । वेरी टेलेन्टेड एन्ड ब्यूटिफुल । हम सब उसे 'मिस वर्ल्ड' कहतेथे । मुझे पसंद थी ये लडकी, पर उसका नसीब उसे अमरीका खींचगया ।' कहते सुरेश के चेहरे पर कई मौन वाक्यरेखाएँ अठखेलियाँखेल रही थीं । बाद में एक दिन ऐसी ही किसी सडक पर मैँने दूर सेजयेश को आते देखा । मैं उसे मिलने अधीर हो उठी । सहसा सुरेश नेमुझे रोका, 'साथ पढता था तो क्या हुआ ? अब ससुराल में आकरतुम कोई ऐरे–गैरे मुफलिसों से बीच सडक बात करें ये मुझे ठीक नहींलगता ।' प्रयत्न करने के बावजूद भी सुरेश की ये बात मेरी समझ मेंना आई । पति किसी के भी साथ बेहिचक बात कर सके और पत्नीको चाहिए कि वो बेतूके आदर्शों को गले लगाये फिरे ? क्यों ? अपनीपसंद की स्त्री को पति 'मिस वर्ल्ड' बुला सके, उसे न पाने की बातको अपना बदनसीब बताते हुए उसे कोई शर्म नहीं, पर पत्नी अपनेएक समझदार दोस्त को मिल भी ना पाये ? क्यूं कि तब वह समझदारदोस्त 'मुफलिस' माना जाता है ? ये कहाँ का न्याय है ? औरत मेंऐसे कौन से भयस्थान हैं जो आदमी में नहीं होते ? प्रश्न समझ में नआया हो तो दोहराऊँ ? माने जाने वाले भयस्थान तो दोनों ही तरफबिलकुल बराबर है । फिर भेद क्यों ? महज औरत होना इस भेद काकारण हो सकता है ? जीवन में बहोत–सी बातें हम बिना समझे हीमान लेते हैं, या मानने के लिए हम पर दबाव डाला जाता है ।

मेरी सास अक्सर कहती रहतीं, 'बेटा होता तो हमारेपुरखों का नाम रहता । यह केवल एक ही बेटी क्या खाक नामरखेगी?' मैं कभी समझाती, 'बेटा हो या बेटी, माँ–बाप दोनों कीइज्जत बढा सकते हैं । बाप से ज्यादा माँ का नाम रखना जरूरी होताहै, क्युं कि आखिर माँ ही वो औरत है जो उसे जन्म देती है ।' मेरीसास गिन्ना उठती, 'पागल मत बन, कोठी में दाने भरने से क्या दानेकोठी के हो जाते है ?' जवाब होगा कहीं ऐसे प्रश्न का ?

एकांत चीज ही ऐसी है । देखा ना, कैसी कैसी बातें यादआती रहती हैं ? आज आयने में अपने आप को देखती हूँ तो अभी भीअनछुआ लगता यौवन बहोत कुछ कह रहा हो ऐसा लगता है ।

आरोह–अवरोहयुक्त घुमावदार जवानी में आज भी भारी ताकतदिखती है । बदन की अमीरी अब भी वही की वही है । इस अमीरीको पाने के कई मौके जयेश ने बहोत विनम्रता से दूर कर दिये थे ।

आज भी मैँ सुरेश को पिछे छोडकर दूसरी ओर नजरें दौडा सकती हूँ,पर मैं कभी ऐसा हरगिज़ न करू। क्यूं कि मैं औरत हूँ ।? प्रतिबिंब कोमचलती निगाहें घूमती रही । क्या खोज रही हैं ये निगाहें ? वजूद ?हा, मेरा भी कभी एक वजूद था । आयने में कहीं वजूद नहीं दिखाई देरहा ? आयना अकसर उन चीजों को नहीं दिखाता जो होती ही नहीं ।

माँ कहती, 'जब हम छोटे थे तब बडे–बुजुर्ग हमें कभीकोई छूट नहीं देते थे । ससुराल आने पर सास लगातार हुक्मचलातीं, मजदूरी कराती रहतीं । लडकियों को चाहिए कि वे ये सबनिभाना सीख जाएँ । वरना दुःखो का पहाड़ टूट पडता है और जानदेने की नौबत तक आ जाती है ।'अक्सर सासें कहती सुनने में आती है, 'बहू, तुम तोबडी नसीबोवाली हो । तुम लोग अपनी खिडकियाँ खुली रखकेअखबार पढ़ सकती हो । हमारे जमाने में तो बहुएँ आँखें तक उपर नहींकर सकतीं थीं । दिनभर गले तक ओढनी रखकर चेहरा ढँकना होताथा । पलभर का आराम नहीं । बचा हुआ ठंडा खाना खाकर सो जानापडता था और पति का चेहरा भी रात को ही देखने मिलता ।

देवरानी, जेठानी, ननंद की बातें –चाहे गलत हो– सुननी पडतीथीं।'

एक बात तो तय है, सारी औरतें इसी तरह सोचतीहोगी। हर औरत यही समझती होंगी कि उस पर आये दुःखो कीअनुभूति नई पीढी की लडकियों को जरूर होनी चाहिए । ऐसा करने सेएक तरह का आत्मसंतोष मिलता है । दुःख कहीं से आन पडता नहींबल्कि हमीं ने दुःख को बुलावा दिया होता हैं । औरतें इस तरह कीआमंत्रित परेशानियों का स्वीकार भी कर लेती है । फिर आदमी उनसब बातों से अवगत होते हुए भी न जाने क्यूं अपने आप को इस क्रमसे परें रखना चाहता है ।

फिलसूफी से भरी क्रांति की कितनी भी सरल बातें मैं करदूँ, पर मुझे अपना संसार चलाना है तो इन सारी बातों को मन केकिसी कोने में दबाकर मेरे पति को, मेरे परिवार को अनुरूप मानाजाने वाला अपेक्षित स्त्री–सहज (स्त्री–सहज ?) जीवन जीने के सिवाओर कोई चारा नहीं । किसी भी विवाद में फँसे बगैर यदि साधारणतरीकों से जिंदगी बसर करनी है तो समाज के दिए वही सिध्धांतो कोगले लगाकर जीना होगा ।

पहले ही बोला ना मैने, एकांत चीज ही ऐसी है । कैसेकैसे विचार मन पर कब्जा कर लेते हैं एकांत में ? पूरा वजूद ही बदलके रख देता है एकांत । वजूद ? फिर वजूद ? आयना मेरे विचार परहँस रहा होगा ।

बातों बातों में सुरेश के आने का वक्त कब हो गया पताही न चला । सुरेश अब तक क्यों नहीं आया होगा ? कुछ हुआ होगा ?एकांत के विचार भी हमेशा डरावने होते हैं । चिंता होने लगती है ।कुछ काम में फँसे होंगे । सुरेश कभी इतनी देर नहीं लगाता । जरूरकिसी काम में देर हो गई होगी । या कहीं कोई अकस्मात तो ़ ़ ?नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । अभी आ जायेंगे । कोई पुराना यारमिल गया होगा या फिर स्कूटर का कोई प्रोब्लेम ।

एकांत के अकुलानेवाले विचारों से नाता तोडकर भागनिकलने के लिए टीवी ओन किया । किसी जगह हुए भयानक भूकंपका कवरेज न्यूझचेनल पर प्रसारित हो रहा था । भयंकर विनाश देखनेमिल रहा था । पलभर मैं अपने दुःख भूल गई । आठ–आठ मंजिलो कीसिमटी हुई छतों के बीच से बाहर झूल रहे मृत हाथ की पीडा केसामने मेरी पीडा क्या स्पर्धा कर सकती है ? टूटी इमारतों के पिंजरोंके बीच कई दिन बसर करने के बाद तलसाकर दम तोड़ देने वालेबच्चों के दर्द के सामने मेरा दर्द सामना कर सकता है ? बिना किसीकान में पहूँचे शांत हो गई दर्दनाक चीखें इतनी तीव्र हो सकती है येमुझे अब पता चलता है । मिल गया, कब से ढूँढ रही थी ना, वो मेरावजूद मुझे मिल गया ।

सुरेश के आने का समय हो गया । बाहर हलकी बारिशकी बौछार चालु है । मैँ सुरेश के लिए अदरख वाली चाय बनाकररखती हूँ, वे अब आते ही होंगे ।

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