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दहीं मे ना दुध में

दहीं में ना दूध में

लेखक :–

अजय ओझा


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दहीं में ना दूध में

मैं क्या जानूँ ? मुझे तो सब दहीं में मानते है ना दूध में ।चाची के अलावा मुझे कोई समझ नहीं सकता । बेचारी चाची; उसेभी क्या दोष देना ? चाचा ने ही चाची को धमकाया था, 'ये दीप अबदिन–ब–दिन बडा हो रहा है । अब उसे यूं जरा दूर सुलाना चाहिए ।'मैं अकेला दूर सो सकता हूँ भला ? मुझे तो बहोत डरलगता है । वो राक्षस आ जाये तो ? चाची का हाथ मेरे सर पे नाफिरता हो तो मुझे तो नींद ही ना आये । और फिर मैं कहाँ बडाआदमी बन चुका हूँ ? जैसे तैसे तो स्कूल जाने लगा हूँ अभी । मोहल्लेके लडके भी मुझे अपने साथ खेलने योग्य नहीं समझते । जब भी मुझेखिलवाएँ तब दहीं में ना दूध में । मेरी कोई कीमत ही नहीं । सब मुझेबच्चा ही समझते है ।

मोहल्ले के लडकों के साथ खेलने जाऊँ तो सब लडकेमुझे देख अपना चेहरा घुमा ले । सारे लडके मुझसे बडे होने की वजहसे कोई मुझे खेल में शामिल करने को राजी नहीं होते । तो बलखाकर मैं हताश चेहरा लेकर एक ओर खडे खडे उन लडकों का खेलदेखूँ । वे सब अलग अलग खेल खेलते । बीच बीच में मुझे शामिलकरने की बिनती कर लूँ, पर सब इनकार कर दे । मैं रोनी–सी सुरतसँभालके खडा रहूँ । खडे खडे अपना गुस्सा दबाने की कोशिश अपनेतरीकों से करता रहूँ ।

शर्ट में से दोनों हाथ अंदर की ओर सरकाकर शर्ट कीखाली बाजुओं को लहराकर गोल गोल फरकाऊँ । मैं ये नहीं सोचताकि ऐसा करने से मैं कैसा दिखता हूँ । जेब में कंकर भर लूँ और दूरखडे किसी कुत्ते पर फेंकूँ । दोनों कोलर के नुकीले कोनेंवाले छोरइकठ्ठा करके दाँतों से कुतरता रहूँ । पाँव में पहने जुते की अदल–बदलकर दूँ । सूखे होठों को दाँतों से चबाते हुए 'कर्‌र्‌र्‌' आवाज निकालूँ।दहीं में ना दूध में

ऐसे में यदि चाची आ जाती तो मेरी जान में जान आ जाती । चाचीआती तब कब से रोके रखे मेरे आँसु भी बरस पडते । चाची को कुछकहने की जरूरत नहीं होती, वह सबकुछ समझ जाती । मुहल्ले केसारे लडको को धमकाती, 'मेरे दीप को भी अपने साथ खेलने दो,सच्चा न सही झुठा, भले ही दहीं में ना दूध में, पर उसे भी खेलनेदो।' फिर सब मुझे खिलवाते : दहीं में ना दूध में । मैं सब के साथखेलने लगता ।

लेकिन मेरी परेशानियाँ खत्म ही नहीं होती । पकडदावके खेल में मैं थक जाता पर किसी को पकड़ नहीं पाता । जब किसीको पकड़ लेता तो दोबारा मैं ही पकडा जाता, मैं तो भाग ही नहींसकता । कोई बोले, 'अभी छोटा है, जाने दो ।' कहते दोनों हाथ सेमेरी हाइट नापने का अभिनय करके मुझे चिढाये । कोई कहता, 'इसेभागना आता ही नहीं ।' दूसरा बोलता, 'इसकी मा ँ को तो भागनाबेहतर आता था ।' फिर सब हँसते रहते । मैं तो ठहरा दहीं में ना दूधमें, मैं क्या समझ पाऊँ ? छुपाछुपी के खेल में सब को ढूँढते हुए मेरादम निकल जाता पर किसी को ढूँढ ही नहीं पाता । आखिर में थकाहारामैं रो पडता और घर आ जाता ।

घर आकर मैं शांत क्यों बैठता ? चाची को परेशान करूँ ।उसे मेरे साथ खेलने की जीद करने लगूँ । वह सारे काम छोडकर मेरेसाथ खेलने लगती । हम पकडदाव खेलते । मैँ दौडकर भाग जाऊँ ।ऐसा दौडता कि चाची मुझे पकड़ ही ना पाये । ऐसा लगे जैसे मुझमेंनई शक्ति भर गई हो । चाची दौड–दौडकर थक जाती । मैं छुप जातातो चाची मुझे ढूँढने आती । नजर के सामने होते हुए भी वह मुझे देखना पाती । मैँ छुपाछुपी का खेल जीत जाता । तब तक खेलता जबतक चाचा ना आते । मैँ सोचूँ : चाचा कभी ना आते तो ?पापा तो कभी कभी ही घर में दिखते । रात को देर सेआते । कभी तो आते ही नहीं । मम्मी का चेहरा मैँ भूला नहीं । जबदेखता तब काम में ही होती । उसे बस, काम, काम, काम । मम्मीजब यहाँ थी तब कभी मेरे साथ नहीं खेली । मैं उसे खेलने बुलाता तोचिढ़ जाती, 'ये बरतन के ढेर पडे है वो कौन साफ करने आयेगी, तेरीचाची ?' पूरी दो बालटियाँ पानी से भरकर खुले पाँव आ रही चाची येसुन लेती तो भी कुछ ना कहती ।

मेरे शर्ट का टूटा पैबंद चाची ही लगा देती, मम्मी नहीं ।मुझे चुभती दरवाजे की बाहर उभरी कील पर चाची नन्हें हथौडे से टूटपडती । मेरे घाव पर चाची ही पाउडर लगा देती । चाची याने मेरेखाने की थाली में परोंसा मीठा गुड़ । चाची मतलब मेरी जीती हुईलखोटी की 'रानी' । चाची मेरे लट्‌टु की डोरी । चाची यानि मेरेपतंग की पक्की दोरी । चाची मेरे घावो का मरहम । चाची मानेचाची, बस।

चाचा कहते, 'तेरी माँ तो बडे शहर से आई है, उसे यहाँज्यादा दिन अच्छा नहीं लगेगा ।' पापा की लुढकती चाल, हकलातीजबान और मम्मी का तंग स्वभाव मैं कई बार देखता रहता । इन सारीविडंबनाओं में मेरी कईबार मारपीट होती रहती, क्या करूँ ?मोहल्ले में तो विभिन्न खेल आते रहते, बदलते रहते,सब खेलते रहते – मौसम के मुताबिक । मुझे पतंग का मौसम सबसेअच्छा लगता । चाची फिरकी थामे खडी हो फिर तो कहना ही क्या ?

कोई मेरा पतंग काट ना सके । फिर आता लट्‌टु का मौसम । जबचाचा घर ना होते तब मेरे कहने पर चाची मुझे लट्‌टु ला देती । मुझेघुमाना नहीं आता, चाची को भी कहाँ आता था ? फिर भी लट्‌टु तोलेना ही होता । फिर लखोटी के खेल का मौसम आता । चाची भीमुझे लखोटी लेने से मना करती, कहती, 'तू मुँह में रखे और निगलजाये तो ?' मोहल्ले में खेल के मौसम इसी तरह बदलते रहते ।'मौसम बदले, खेल भी बदले; इसी तरह मम्मी भी बदलजाये तो ? चाची, बताइये ना, तो क्या ?' मैंने एकबार चाची कोपूछा था ।

'क्युं ? ऐसा क्यु पूछता है तू ?''पता नहीं पर चाचा शायद एकबार मुझे कहते थे ।''नहीं नहीं, ऐसा थोडे होता है ? तुझे ये सब सोचना नहींचाहिए । रात को नींद में तू डर जाता है ।'हा, मैं तो सचमुच डरता हू । उस राक्षस से डरता हू; जोमम्मी को ले गया । मम्मी को ले गया उसी तरह मुझे भी उठा ले जायेतो ? चाचा कहते, 'तेरी माँ को तो राक्षस उठा ले गया है । अब वहकभी वापस नहीं आयेगी ।' तभी तो मैं उस राक्षस से बहोत डरता हूँ।इसी लिए मैं चाची के पास ही सोता हूँ । ये राक्षस मतलब कौन ? वोकैसा होता है ? ऐसा मैंने कभी किसीसे पूछा नहीं, पूछने से भीघबराता हूँ, कहीं मुझे भी उठा ले गया तो ? पापा तो कभी जवाब हीनहीं देते, चाचा डराते रहते, और चाची तो बात को ही भुला दे । परमेरे दिमाग से ये बात ऐसे कैसे मिट सकती है भला ? मम्मी को कोईदिल से मिटा पायेगा ? मम्मी ही कहती, 'इन राक्षसों की कैद से तोमुक्ति लेनी ही पडेगी ।' क्या जाने मम्मी को कब मुक्ति मिलेगी । मैंबडा हो जाऊँगा तब उस राक्षस को कहूँगा, 'मेरे सारे पतंग तू ले जा,लखोटियां व लट्‌टु ले जा, पर मेरी मम्मी वापस कर दे ।

आहिस्ता आहिस्ता मुहल्ले के सारे खेल मैने सीख लियेथे । बिना थके अब मैं लडको के पीछे दौड़ सकता हूँ और तुरंत पकड़सकता हूँ । सभी के लट्‌टु एक ही वार में तोड़ देता हूँ । मुझे कोईपकड़ ना पाये ऐसी दौड़ लगा सकता हूँ । मेरी बोलिंग में अच्छे सेअच्छे बेट्‌समेन घबराने लगे है । लखोटियों से जेब छलक जाती है ।छुपाछुपी में मुझे अब कोई ढूँढ नही पाता, मैँ सबको पल में ही ढूँढलेता हूँ । अब तो मैं नहीं रहा दहीं में और ना ही दूध में । अब मैं बडाहो चुका हूँ । मैँ उस राक्षस के अलावा किसी से नहीं डरता ।

इसके बावजूद भी घर आके चाची के साथ खेलते रहने कामुझे अच्छा लगता है । अच्छी बात है कि मेरी चाची है, वरना मुझे तोखाना तक नसीब ना हो । चाची को राक्षस उठा ले जाये तो ?? तो ?तब तो मैं मर ही जाऊँ । चाचा को राक्षस उठा ले जाये तो मुझे जलसापड़ जाये ।

अगर आज चाची नहीं होती तो चाचा मुझे पीटने में कोईकसर छोडनेवाले नहीं थे । आज फिर एक बार चाचा ने चाची कोधमकाया था, 'मैँ तुझे कैसे समझाऊँ कि इस दीप के बच्चे को अबकहीं ओर सुलाना चाहिए ? ये रात को नींद में डर जाता है और उठजाता है । ़ ़ तुम जानती हो ना अब ये सब मुझे अच्छा नहीं लगता ?

दीप अब बडा हो गया है । इतने बडे लडके को कब तक ़ ़ ?' चाचीशांति से सब सुन रही थी । पर मुझसे रहा ना गया तो चाचा गुस्से सेआगबबूला हो गये । मेरा कोई दोष नहीं था । 'दीप बडा हो गया है' –ऐसा चाचा ने चाची को बताया तो मैँ चाची को पूछता था कि 'चाचातो मुझसे भी बडे है कि नहीं ?' तो मेरी बात से चाचा का गुस्सा औरबढ़ गया । मुझे पीटनेवाले ही थे कि चाची ने बीच में आकर बचालिया। तब से मुझे चाचा के रूप में में एक नया राक्षस दिखाई दे रहाहै। अब तो ये हाल है कि मैं चाचा से भी डरने लगा हूँ । पता नहीं मैनेचाचा का क्या बिगाडा है ?चाची ने चाचा को समझाया, 'दीपु अभी छोटा है । वोबेचारा क्या जानें ? आप तो उसके पीछे ही पड़ जाते हो ।' चाची नेमुझे 'छोटा' माना तो मुझे अच्छा लगा । यूं भी मैं कौन–सा बडा होगया हूँ ?

बाद में मुहल्ले में खेलने गया तो मुझे देखते ही सारेलडके मेरे आसपास दौडकर आ गये । क्रिकेट का खेल शुरू होनेवालाथा । मैं आया तो सब 'दीप हमारे टीम में ़ ़ , दीप हमारे टीम में'कहते शोर मचाने लगे । मैंने अपनी बात घोषित कर ही दी, 'मैं खेलूँगा जरूर, लेकिन दहीं में ना दूध में ।'