Stree - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

स्त्री.... - (भाग-15)

स्त्री.......(भाग-15)

हम सब इस अच्छी खबर से बहुत खुश थे......माँ ने मुझे सूजी का हलवा बनाने को कहा और खुद भगवान का शुक्रिया अदा करते हुए पाठ करने लगी.....अगले दिन मेरे पति ने बैग में एक जोड़ी कपड़े भी रख लिए, उन्होंने बताया कि काम ज्यादा है, अगर देर हो गयी तो वहीं सो जाऊँगा......खाने की चिंता मत करना माँ मैं खा लूँगा....कह टिफिन ले कर चले गए। मैं, दीदी और माँ बाजार चले गए, दीदी की पसंद की साड़ियों और 2-3 चादरो के कपड़े ले लिए......डिजाइन छपवा और धागे ले कर पाव भाजी खा कर घर आ गए...बहुत दिनो के बाद सुजाता दीदी से छत पर मिलना हुआ। पता चला कि उसके सास ससुर वापिस चले गए हैं......वो पिछली बार से खुश दिख रही थी। इधर उधर की बीतें करते हुए मैंने उन्हें बताया कि हम जल्दी ही यहाँ से शिफ्ट हो रहे हैं.....कारण जान कर वो भी खुश हुई , पर दूसरे ही पल उनके चेहरे पर उदासी छा गयी। क्या हुआ दीदी? कुछ नहीं जानकी, तुम चली जाओगी तो मैं बात किससे करूँगी? बस यही सोच कर उदास हो गयी। दीदी हम मिलते रहेंगे, आप चिंता मत कीजिए। उनकी बात सुन कर उदास तो मैं भी हो गयी थी, पर क्या कर सकते हैं, सबके साथ जाना तो पड़ेगा ही। एक हफ्ते में ही हमने घर बदल लिया......बिल्कुल पास हू था मेरे पति का ऑफिस और सुनील भैयी को भी ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ता....भैया बता रहे थे कि उनका आधा रास्ता तय हो गया .....सुमन दीदी को तो वैसे भी अब कॉलेज जाना था। एक बात अच्छी हुई कि यहाँ तीनों कमरे एक ही मंजिल पर थे, ऊपर नीचे उतरने चढने का झंझट खत्म.......मालिक ने मेरे पति से पूछ कर ही घर तय किया था। सुना था कि काफी मंहगा है मुंबई पर हमें तो किराया नहीं देना था और न ही खरीदना था......पर माँ के कहने पर हमने अपना पुराना घर तब किराए पर दे दिया और मजे की बात ये थी कि सुजाता दीदी ने हमारा घर किराए पर लिया था, वो किराए पर ही रहते थे साथ वाली बिल्डिंग में तो उनके पति को भी ठीक लगा कि दोनो ं परिवारों के लोग उनसे मिलने आते ही रहते हैं तो हमारा घर उनके हिसाब से ठीक रहेगा.......हम जिस फ्लैट में आए थे, पता चला कि उनके मालिक की कई प्रोप्रटी में से ये एक है......तीन कमरे, किचन और लिविंग एरिया सब सही था।
बाहर बॉल्कनी थी जो सामने सड़क की चहल पहल के दर्शन कराती थी.....मेरी सबसे पंसदीदा जगह तो हमेशा से छत ही रही है...... दो वॉशरूमऔर बाथरूम अटैच्ड थे.....सब नया नया और अच्छा लग रहा था। शुरू शुरू में मन लगने में समय लगा। माँ को नयी जगह पर कुछ दिन ठीक से नींद नहीं आयी, पर जल्दी ही सब घुलमिल गए नए माहौल में! चौथी मंजिल पर घर था, लिफ्ट लगी थी तो माँ के लिए भी कोई परेशानी नहीं थी....।। समय पंख लगा कर उड़ रहा था.....अब मेरे पति कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने लगे थे.....ज्यादा सैलरी और घर मालिक ऐसे ही थोड़े दे देते हैं, उसकै बदले अपनी आजादी भी गिरवी रखनी पड़ती है.....अब उनको संडे की बजाय किसी भी दिन एक छुट्टी लेने की इजाजत थी तो वो भी मेरे पति अपने काम के हिसाब से लेते और किसी किसी हफ्ते नहीं भी लेते.......मैंने भी अपनी कुछ साड़ियाँ माँ के कहने पर एक दुकान पर देनी शुरू की......शुरू शुरू में टाइम लगा, पर वो बिक गयीं....हाथ की कढाई का फैशन कभी नहीं जाता......माँ भी मेरी खूब मदद करती थी, मेरी सास ने घर की सफाई और बर्तन के लिए मेड रख थी तो मुझे ज्यादा टाइम मिल जाता काम करने के लिए......पाँच साल बीत गए काम को जमाने में, सुमन दीदी ने बी.ए. करके सरकारी बैंक में नौकरी के लिए पेपर दिया, जिसमें वो पास हुई और उनकी नौकरी लग गयी.......एक अच्छा सा रिश्ता आया था नरेश बाबू का जो बैंक में मैनेजर थे, दोनो एक दूसरे को पसंद करते थे......तो उन दोनों की शादी करवा दी....। दीदी की शादी होने के बाद सुनील भैया ने बताया कि उनके बॉस अपनी इकलौती बेटी की शादी उससे करवाना चाहते हैं और वो भी उसे यानि कामिनी को बहुत पसंद करते हैं, तो हम खुशी खुशी तैयार हो गए।एक बहुत बड़े होटल में कुछ मेहमानों के बीच उन दोनो की शादी हो गयी और मेरी प्यारी सी देवरानी घर आ गयी.....मेरी सास की छोटी बहु और मेरी देवरानी को हम लोग पसंद नहीं आए.....इसलिए वो दो तीन महीने में ही पहले अलग रहने लगे फिर अपने पिताजी के घर पर हमारे सुनील भैया को भी ले गयी....सुनील भैया बहुत दुखी थे जाने से पहले पर माँ ने समझाया कि रिश्ता बनाया है तो निभाना चाहिए और जब मन करे तुम आ जाना,ये तुम्हारा ही घर है। मेरे पति बहुत नाराज हुए थे अपने छोटे भाई पर, उन्हें लगा कि उसने अपनी पत्नी को ज्यादा ही सिर पर चढा कर रखा है, तभी वो उसे अलग ले कर चली गयी। माँ ने बहुत समझाया पर उनका गुस्सा शांत ही नहीं हो रहा था। कामिनी पर भी वो बहुत नाराज हुए। पहले कुछ महीनें तो सुनील भैया और कामिनी हर हफ्ते मिलने आ जाते थे,पर धीरे धीरे कमिनी ने आना बंद कर दिया, पर फिर भी सुनील भैया हमसे मिलने जरूर आते थे.....माँ की दिल तो इसी मैं खुश था। कुछ ही दिन पहले पता चला कि कामिनी माँ बनने वाली है तो माँ फूली नहीं समायी। मैंने अपने काम के लिए एक गैराज किराए पर लेकर कुछ लोगों को कढाई के लिए रख लिया था। कुछ स्टोर मेरी साडियाँ हाथो हाथ लेते थे, मैंने अपने काम के चलने से खुली आँखो से एक सपना देख डाला था, अपनी एक छोटी सी दुकान का......उसी के लिए मैं कुछ पैसा जोड़ रही थी। इन पाँच सालो में मेरे मायके में भी खुशी का अवसर आया था छाया की शादी का.....जिसमें मैं तो एक महीना पहले ही चली गयी थी, माँ और मेरे पति शादी से एक दिन पहले आए थे.....मेरी शादी की तरह सादी शादी नहीं थी, छाया का पति निरंजन बाबू अपने पिता के साथ थोक के मसालों का काम करते थे.....छोटा परिवार था, बस सास, ससुर और ननद। वैसे भी छाया को माँ ने 10वीं तक पढा ही दिया, उसके पीछे कारण था कि आस पास के गाँव की लड़कियाँ भी लड़को के स्कूल में पढने आने लगी थी.....राजन भी आगे की पढाई करने इलाहाबाद चला गया था। शादी बहुत अच्छे से हो गयी और मेरा शोभा से मिलना भी हुआ......शोभा दो बेटे और एक बेटी की मां बन चुकी थी। आगे बच्चे न पैदा करने का इंतजाम उसने पति से लड़ झगड़ कर अपना ऑपरेशन करवा कर किया। इतनी अस्तव्यस्त और परेशान थी कि मेरे बच्चे न होने पर उसने मुझे बधाई दे डाली। बहुत लोगो ने खुल कर तो किसी ने दबी जबान में मुझे बच्चे न होने का मीठा सा ताना भी दे डाला और बहुत सारी समझाइश भी कर डाली। माँ भी बार बार एक ही बात सोते समय ले कर बैठ जाती, जानकी तू तो शहरी हो गयी है, तेरी सास कुछ नही कहती? कोई परेशानी तकलीफ तुझे ही होगी तभी बच्चा न हो रहा वगैरह वगैरह....। मैं उनकी बात को सुनती रहती, क्योंकि जो कारण था, वो सुन कर मेरी माँ को यकीन न होता और अगर यकीन हो भी जाता तब भी कुछ किया नहीं जा सकता था। मैं इन सब बीतों को हटा कर छाया को वो सब समझाती जो मुझे किसी ने नहीं समझाया था, वो मुझसे ज्यादा पढी थी और थोड़ा समय भी बदला था तो वो समझदार थी....।
हम डोली विदा करा कर अगले दिन शाम को वापिसी के लिए चल दिए....। शोभा के बच्चों को देख कर अपनी कमी का एहसास हुआ.....कितनी अजीब बात है न जिसके पास जो चीज नहीं होती उसे बस वही कमी अखरती है.......यही तो हमारी तकलीफों का कारण है......मैं और मेरे पति कभी कभार अच्छे रिश्तेदारों या दोस्तों की तरह बात कर लेते हैं, बस वही काफी होता है.......काम में बिजी रहने से अब कुछ चुभता नहीं था, शायद आदत बन गयी थी.....उन्हीं दिनों मेरे पति घर पर कंप्यूटर ले आए......मुझे बताया कि धीरे धीरे सब हिसाब किताब कंप्यूटर पर ही किया जाएगा तो सीख रहा हूँ। घर आ कर भी बहुत देर तक वो कुछ न कुछ करते रहते......मेरा मन भी किया, इस नयी चीज को चलाने का और सीखने का। मैंने अपने काम में भी समय निकालना सीख लिया था किताबें पढने के लिए। एक अजीब सी संतुष्टि होती है मुझे पढ कर......हर तरीके की किताबे इंग्लिश और हिंदी में पढी, नए नए शब्दों को बोलना, उनका मतलब सीखना मुझमें एक उत्सुक बच्चे को जिंदा रखा हुआ था......पर मेरे रास्ते उतने आसान नहीं थे, जितने आसानी से मैंने सपने देख लिए थे...!! मेरी देवरानी ने एक बेटे को तय समय में जन्म दिया.....माँ सुनील भैया के ससुर से आग्रह करके हॉस्पिटल से घर ले आयीं कि 40दिन हम इसका ध्यान रखेंगी तो बेहतर रहेगा, इसकी माँ होती तो हम न कहते और नौकर तो नौकर ही होते हैं। वो अच्छे इंसान हैं, उन्होंने कामिनी को भेजने में देर नहीं की.....।
पूरा 40दिन माँ और मैंने कामिनी के सभी नखरो को हाथों हाथ लिया...। उसके लिए एक साड़ी तो मैंने पहले से ही तैयार की हुई थी....बाकी बच्चे के कपड़े और खिलौनें सब ला दिया..। पर वो नामकरण होते ही अपने पापा के साथ अपने घर चली गयी....मुझे तो पता ही था, यही होगा तो मुझे बस बुरा माँ के लिए लग रहा था। उन्हें पोते के साथ खेलना था, उसे बड़े होते हुए देखना था।
उस दिन कामिनी के जाते ही हमारे घर की व्यवस्था का समीकरण ही बदल गया।
क्रमश:
स्वरचित
सीमा बी.