Mrityu Murti - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

मृत्यु मूर्ति - 10

पूरे कमरे में पिन ड्रॉप साइलेंस है। घड़ी के टिक - टिक की आवाज सुनाई दे रहा है। कमरे में केवल कस्तूरी की महक के अलावा मानो सबकुछ ठहर गया है। सामने ही कृष्ण प्रसाद भट्टराई जी मूर्ति को हाथ में पकड़कर लगभग 5 मिनट से ज्यादा ध्यान मग्न हैं। लगभग 10 मिनट के बाद कृष्ण प्रसाद जी ने आँख खोला। उसके बाद हम दोनों की ओर देखकर बोले,
" मूर्ति को हाथ में पकड़ते ही मैं पहचान गया था। वर्तमान में मैं अपने एक विशेष शक्ति का प्रयोग करके इसके अतीत के बारे में थोड़ा बहुत पता लगाने में सक्षम हो गया लेकिन मुझे सब कुछ नहीं पता क्योंकि यह मूर्ति बहुत ही प्राचीन है? इसका बहुत ही बड़ा इतिहास है। लेकिन जितना मुझे पता चला है आशा करता हूं तुम्हारे काम आएगा। इसका उम्र लगभग 1000 वर्ष है। यह मूर्ति उस व्यक्ति की है जब पाल वंश बिहार , बंगाल व उत्तर भारत के कुछ भागों पर राज करता था। हमारे वज्रयान बौद्ध धर्म में चार सम्प्रदाय है। वह हैं शाक्य , कग्यु , निंगम्मा तथा गेलुग।
इनमे से निंगम्मा सम्प्रदाय सबसे अधिक तंत्र क्रिया करते हैं। बहुत ही भयंकर व शक्तिशाली देव - देवियों को लेकर ये साधना करते हैं। इनके अक्सर सभी साधनाएं बहुत ही गुप्त होती हैं किसी पुराने पोथी में भी इनके साधनाओं के बारे में नहीं पता चलता। बहुत कम ही लिखित रूप में हैं जो हैं उन्हें पाना इतना सहज नहीं। यह मूर्ति उसी निंगम्मा संप्रदाय में पूजित एक भयानक आराध्य देवी लाकिनी की है। "

कृष्ण प्रसाद जी कुछ देर के लिए शांत हुए। अवधूत के चेहरे की ओर उन्होंने देखा।
अवधूत बोल पड़ा,
" लेकिन लाकिनी तो हिंदू तंत्र की देवी है। "
कृष्ण प्रसाद जी ने फिर बोलना शुरू किया,
" नहीं, ये तुम्हारे हिंदू तंत्र में वर्णित शरीर के सात चक्र में से एक मणिपुर चक्र में अवस्थित लाकिनी देवी नहीं हैं। निंगम्मा संप्रदाय की आराध्य यह देवी बहुत ही भयंकर व शक्तिशाली है। लाकिनी साधना बहुत ही भयंकर है इसलिए बहुत ही ज्ञानी वज्राचार्य भी इस बारे में नहीं जानते। मैंने अपने गुरु से इस देवी के बारे में पहली बार सुना था। हम सभी जो बौद्ध धर्म का पालन करते हैं , हम मानते हैं कि संसार में कुछ छः स्तर हैं। मनुष्य अपने कर्म फल के अनुसार इन छः स्तर में बार-बार जन्म ग्रहण करके निर्वाण प्राप्त करता है। इन छः स्तर में सबसे निम्न स्तर नर्क है। तुम्हारे हिंदू धर्म की तरह हमारे नरक में भी कई प्रकार हैं , जैसे हिन्दू धर्म में 28 स्तर या प्रकार के नरक हैं उसी तरह बौद्ध धर्म में 18 प्रकार का नरक है। उसमें से कुछ गर्म नरक व कुछ शीत नरक हैं। इस शीतल नरक के नौ और प्रकार हैं, उन्हीं में एक प्रकार का नाम निरारबुदा है। इसी निरारबुदा नरक से लाकिनी का संबंध है। इसीलिए वह शीतलता के साथ युक्त हैं। जिस स्थान पर वह रहतीं हैं वहां का तापमान बहुत ही नीचे चला जाता है। देवी अति भयंकरी, वर्ण हल्का हरा इसीलिए उनसे शरीर से हल्के हरे रंग की रोशनी निकलती रहती है। तीन सिर विशिष्ठा , विकराल वदना तथा होंठ के दोनों तरफ दो बड़े दाँत निकले हुए हैं। एक हाथ में वज्र तथा दुसरे हाथ में अग्निशिखा , शव के ऊपर खड़ी होकर वो नृत्य कर रहीं हैं। इनको जागृत करने की प्रक्रिया बहुत ही कठिन नहीं लेकिन बहुत ही गुप्त है क्योंकि किसी अच्छे उद्देश्य से लाकिनी को जागृत नहीं किया जाता।
किसी असाध्य साधना को पूर्ण करने के लिए ही लाकिनी जागरण का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य जब लोभ में अंधा होकर ऐसा कुछ पाना चाहता है जो उसके वश से बाहर है , तभी वह लाकिनी को जागृत करता है। इसी कारण से लोभी मनुष्य के हाथों से लाकिनी जागरण होने पर महाविनाश उपस्थित होता है। इनको जागृत करना सहज है परंतु विसर्जित करना बहुत ही कठिन है। देवी बहुत ही मायावी व कुटिल, विभिन्न रूप भी ले सकती हैं। बताए गए समय तक इनकी साधना करनी होती है और इसके लिए लाकिनी को प्रति रात एक ताज़ा प्राण की जरूरत होती है। देवी लाकिनी जीव के प्राण शक्ति को लेकर खुद को और शक्तिशाली बनाती है। प्राण शक्ति चूस लेने के बाद उस शरीर में खून व जान कुछ नहीं बचता। पंद्रह से इक्कीस दिन के बाद साधक की मनोकामना पूर्ण होती है लेकिन इसके बाद जब साधक उन्हें विसर्जन करने जाता है तभी लाकिनी अपना असली रूप दिखाती है। वह कई प्रकार के डर व वहम माया से साधक की हत्या करने में भी पीछे नहीं हटती। वह मानव जगत में रहकर ही एक के बाद एक शिकार करती रहती है। विसर्जन किये बिना लाकिनी के हाथ से बचने का एक ही उपाय है लेकिन वह कोई स्थाई समाधान नहीं है। जिस मूर्ति में लाकिनी को जागृत किया जाता है उस मूर्ति के मालिक का बदलाव करने पर वह नया शिकार पा जाती है। क्योंकि वह मूर्ति लाकिनी का आधार है इसलिए कोई अगर मूर्ति किसी को हस्तांतरित करता है तो वह खुद लाकिनी से मुक्ति पा जाता है लेकिन जिसके पास यह मूर्ति रहता है उसके ऊपर घोर संकट आ जाता है। "

इतना सब कुछ एक साथ बताकर कृष्ण प्रसाद जी कुछ देर शांत हुए। मैं समझ गया कि मैक्लोडगंज के बाजार में उस आदमी ने उतने उत्साह से मुझे यह मूर्ति क्यों दे दिया था। उस आदमी ने भी शायद मेरी तरह बिना कुछ जाने मूर्ति को अपने पास रख दिया था। इसके बाद अवश्य ही उसके जीवन में कोई ना कोई घटना घटी होगी इसीलिए मुझे दुकानों में मूर्ति खोजते हुए देख उस आदमी ने इस मूर्ति से मुक्ति पाना चाहा।

कृष्ण प्रसाद भट्टराई जी ने फिर से बताना शुरू किया।
" अब तुम्हें बताता हूं कि मुझे अतीत से क्या पता चला? इस मूर्ति को पाल साम्राज्य में किसी बौद्ध संन्यासी ने पंचधातु से बनाकर साधना करके किसी दुर्लभ पोथी के लिए लाकिनी को जागृत किया था। उसका वह कार्य पूर्ण नहीं हुआ तथा लाकिनी ने ही उसका भयानक तरीके से हत्या किया था। उसके बाद से आज तक इस मूर्ति का विसर्जन संभव नहीं हुआ या फिर कह सकते हो कि किसी बड़े साधक के पास यह मूर्ति नहीं पहुंचा व शायद लाकिनी विसर्जन की प्रक्रिया वह नहीं जानता था। "

इतनी देर के बाद अवधूत ने कुछ बोला,
" इसका मतलब है इतने सालों से....? "

" हाँ, इतने सालों से लाकिनी ने ना जाने कितनों का शिकार किया है। पता नहीं कितनों ने बिना जाने अपने जीवन में सर्वनाश को बुला लिया।"

कमरे के अंदर कुछ देर शांति बनी रही। फिर अवधूत ही बोला,
" इसका मतलब लाकिनी से छुटकारा पाने का कोई उपाय ही नहीं है?"
कृष्ण प्रसाद जी ने कुछ देर आंख बंद किया फिर कुछ सेकंड बाद आँख खोलकर बोले,
" हम्म! है। "
अवधूत के अंदर अब कौतुहल दिखाई दिया।
" क्या है वह प्रक्रिया क्या आपको पता है? "
हां में सिर हिलाकर कृष्ण प्रसाद जी ने जवाब दिया,
" मैं उस वक्त नेपाल में था। वज्रगुरु के साथ मठ में रहकर वज्रयान शाखा की कई साधना को सीखा था। वहाँ एक गांव में एक आदमी ने इस साधना को किया था लेकिन वह भी लाकिनी को विसर्जन करने में असफल रहा। इसके फलस्वरूप पूरे गांव में मौत का तांडव होने लगा। गुरु के साथ मैं भी उस गांव के अभिशाप को खत्म करने के लिए गया था। उस वक्त वज्रगुरु को लाकिनी विसर्जन की प्रक्रिया करते हुए देखा था। बाद में उनसे यह प्रक्रिया सीख भी लिया था मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि वह विद्या आज काम आएगा। तुम दोनों एकदम सही जगह पर आए हो। चिंता मत करो अब इसका खेल समाप्त। "

सामने रखे लाकिनी मूर्ति को देखते हुए इन बातों को कृष्ण प्रसाद जी ने बोला। इसके बाद फिर बोले।
" अब हमें देर नहीं करना चाहिए। प्रतिदिन प्राणशक्ति का रस पाकर लाकिनी को अब इसकी आदत हो गई है। "
इसके बाद अवधूत की ओर देखकर बोले,
" तुम्हारे ऊपर खतरा है। ज्यादा दिन तक किसी रक्षा मंत्र के द्वारा लाकिनी को नहीं रोक पाओगे। वह तुम्हें मारने के लिए उत्सुक है इसीलिए सावधान रहना। किसी शक्तिशाली रक्षा मंत्र धारण किए बिना बाहर मत टहलना।"

इतना बोल उठकर एक शेल्फ से कृष्ण प्रसाद जी एक रोल किया हुआ थांका ले आए तथा उसे खोलकर हमारे आंखों के सामने फैलाया।
थांका पर एक भयानक दर्शन के देवता का चित्र बना हुआ है। तिब्बती दुकानों में ऐसी मूर्तियां व चित्र दिखाई देता है। थांका पर बने देवता का शरीर स्थूलकाय, देह का रंग नीला , दाहिना पैर थोड़ा ऊपर उठाकर तथा बायां पैर थोड़ा पीछे की ओर करके खड़े हैं। कमर में बाघ का खाल लपेटे, एक हाथ ऊपर, उस हाथ में जो है उसे मैं पहचानता हूं। उसे वज्र कहते हैं। अधिकांश तिब्बती देव - देवी की हाथ में यह रहता है। बाएं हाथ से मुद्रा सुशोभित है। देवता के चेहरे का भाव बहुत ही डरावना है। तीनों आंखों से मानो आग निकल रहा है। उनके भौह , दाढ़ी, मूंछ सबकुछ मानो आग द्वारा बनाया गया है। आग के लपटों की तरह उनके बाल हवा में उड़ रहे हैं तथा उनके शरीर के चारों तरफ भी आग ही आग है।

कृष्ण प्रसाद भट्टराई जी बोले।
" इनका नाम देवता वज्रपाणि है। चतुर्भुज अवस्था में इनका नाम ही भूत डामर है। तुम्हारे हिंदू धर्म में इन्हे महाकाल रूद्र के क्रोध रूप में सम्बोधित किया गया है। हाँ , ये तुम्हारे हिन्दू तंत्र में वर्णित क्रोध भैरव ही हैं। जगत के सभी नकारात्मक शक्ति, भूत , प्रेत, पिशाच इन्हीं के अधीन हैं। देवता वज्रपाणि के शरण में जाने से वो साधक को सभी डर व भयानक शक्ति से मुक्ति दिलाते हैं और अपने हाथ में पकड़े क्रोध वज्र से उसे छिन्न-भिन्न या घोर नरक में भेज देते हैं। इसीलिए लाकिनी के हाथ से छुटकारा पाने के लिए हमें देवता वज्रपाणि के शरण में जाना होगा। उन्हें वज्रपाणि चक्र में आह्वान करना होगा। अगर मंत्र द्वारा वो खुश हुए तो इस भयानक शक्ति को हमेशा के लिए नरक में भेज देंगे। इसी तरह लाकिनी से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जायेगा। "...

क्रमशः.....