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चरित्रहीन - (भाग-14)

चरित्रहीन........(भाग-14)

जब भी हम सोचने लगते हैं कि अब हमारी लाइफ में सब सही हो गया है....
तभी कुछ न कुछ ऐसा घट ही जाता है,
जिससे लगने लगता है कि हमारे अभी बहुत से इम्तिहान बाकी हैं..... जो भगवान ने लेने हैं। कुछ ऐसा ही तो हुआ था विद्या के साथ, एक महीने में ही उसके मम्मी पापा दोनो ही चल बसे....पहले पापा फिर मम्मी। भाई बहनों के अपने परिवार थे, सब आए और सब क्रियाकर्म की अंतिम रीति रिवाज को निभा कर चले गए। भाई चाहता था कि दुकान और घर बेच कर वो उनके पास रहने आ जाए। बहनें तो अपने अपने परिवार में मस्त थीं,फिर भी उन्होंने कहा कि बारी बारी से वो सब के साथ रहेगी तो उसका मन भी बहल जाएगा। सब अपने अपने डिसीजन विद्या पर थोपना चाह रहे थे।
वो अपनी भाभी के स्वभाव को भी जानती थी और बहनों के व्यवहार को भी समझती थी। उसने किसी की नहीं सुनी और अकेले ही अपने घर में रहने का फैसला ले लिया। मेरी नजर में बिल्कुल ठीक फैसला लिया था उसने, हम सब दोस्त उसके साथ थे। विद्या की दूसरी मुश्किलें बढ़ गयी...दुकान और मकान पापा के नाम थे तो भाई भाभी ने हिस्सा तो माँगना ही था। नाम उसके भाई का था पर भाभी की इच्छा थी कि दुकान को बेचकर पैसा उसके बच्चों के फ्यूचर के लिए सेव कर लिया जाए.....दोनो बहनें चुप थी, उन्हें शायद लगा हो कि भाई भाभी के साथ न बिगड़ जाए। उसका भाई अच्छे से जानता था कि उसकी बहन को जरूरत है, वो क्या करेगी? उसकी बीवी तो उसको रखेगी नहीं.....यही सोच कर कई दिन चलते रहे ड्रामें को उसके भाई ने ये कह कर बंद कर दिया कि," जब जरूरत होगी तब देखेंगे, अभी दीदी को संभालने दो"। विद्या का भाई समझदार निकला वरना घरों को टूटते देर नहीं लगती। खैर दिन तो कट जाता था उसका पर रात को घर में अकेले उसको घबराहट होती थी, मैंने उसे अपने घर कुछ दिन रहने के लिए बुला लिया....!! हम दोनो सुबह निकलते और शाम को मिलते....मैं पहले आ जाती थी घर, कई बार सीधे उसकी दुकान पर ही चली जाती थी और उसको अपने साथ ले आती। मुझे भी साथ मिल गया था बाते करने के लिए, साथ खाना खाने के लिए.....तो कुल मिला कर हम दोनों ही खुश थे। वरूण, नीरा और बच्चों सब को बता दिया था विद्या के बारे में .....हम खाली होते तो फिल्मों,फैशन और घूमने की जगह सब की बातें करते और अपने पुराने दिनों और बचपन की बातें करके खुश हो लेते...... संडे को ऊपर से मधु दीदी भी शामिल हो जातीं हमारी बातों में......ऐसे ही एक दिन हम फिल्मों की बातें कर रहे थे तो "फायर" फिल्म की बात आयी साथ ही याद आया उस फिल्म पर विवाद भी। कई जगह फिल्म शायद लगी ही नहीं थी। मैंने वो फिल्म नहीं देखी थी, पर विद्या ने देखी थी तो वो मुझे कहानी की स्टोरी बताने लगी जो लेस्बियन पर बेस्ड थी......नयी तरह के विषय को हम लोग जल्दी से कहाँ एक्सेप्ट करते हैं न ही पहले किया जाता था। ये फिल्म 1996में आयी थी.....!
विद्या और मैं फिर उलझ गए फिल्म की कहानी के पीछे तर्क वितर्क पर। फिल्मों और कहानियों में वही तो दिखाया जाता है जो हमारे समाज में हो रहा होता है। विद्या का कहना था कि दो लड़कियाँ या दो लड़के भी आपस में एक दूसरे को सेटिस्फाई कर सकते हैं, पर मेरा कहना और मानना था कि ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि जैसा हमारा शरीर प्रकृति ने बनाया है और उसके हिसाब से संतुष्टि मेल और फिमेल के सेक्स करने से ही मिल सकती है....."लेस्बियन्स या गे" उस चीज को कभी फील नहीं कर पाते। विद्या भी कम नहीं थी, उसका कहना था कि ये जरूरी नहीं है....किस को कैसे संतुष्टि मिलती है हम नहीं कह सकते !इस फिल्म की बातें शुरू करके हमारे बीच हमारी शारीरिक जरूरतों की बातें शुरू हो गयीं।
हम दोनों एक ही दौर से गुजर रहे थे। लोगो की नजरों का वो भी सामना करती आ रही थी और आदमियों के डबल मीनिंग वाले शब्दों को सुन कर ना रियेक्ट करने की आदत तो बन गयी थी। विद्या के दिमाग में न जाने क्या आया और वो बोली, "चल आज हम दोनो ही फायर वाली कहानी को सच करके देखते हैं, फिर पता चल जाएगा कि हमें कैसे महसूस हुआ" ! मैंने आना कानी कि तो बोली," मैं कोई आदमी थोड़े ही हूँ जो तुम्हें आकाश की यादों को धोखा देने को कह रही हूँ, मैं तो तेरे शादी न करने के डिसीजन की रिस्पेक्ट करती हूँ"। उसका बातों ही बातों में आ कर ये नया प्रयोग करना बहुत बचकाना लग रहा था मुझे, पर उसने मुझे आखिर मना ही लिया ये कह कर कि हम दोनों में से किसी एक को भी ठीक नहीं लगा तो ये बात कभी रिपीट नहीं होगी....... मैंने उसके इस प्रयोग में साथ देने के लिए "हाँ" कर दी!
हम दोनो ही औरते ही तो थी, उसके पास भी वही था, जो मेरे पास एक औरत होने के नाते था.....पर हमें एक दूसरे के शरीरों को छूना कुछ अलग सा लगा। शायद शरीर को किसी और ने बहुत वक्त के बाद ऐसे छुआ था, चाहे फिर छूने वाली औरत ही थी। कुछ अलग सा ही अहसास था वो। बहुत अच्छा नहीं तो बुरा भी नहीं लगा, पर आप सब को अजीब जरूर लगेगा क्चोंकि हम आमतौर पर ऐसा सोचते नहीं हैं.....उस दिन से पहले मैंने भी कभी इस तरीके से नहीं सोचा था। हम अपनी इच्छाओं को इस तरीके से पूरी करके थोड़ा हल्का तो महसूस कर ही रहे थे। हमारी आदते वैसी तो हरगिज नहीं थी, पर बात जरूरत की थी। उस वक्त तक तो विद्या की बातों से यही समझी थी ......एक आदमी की इच्छा अगर पूरी न हो तो बीवी के होते हुए भी वो प्रॉसिट्यूट के पास जाने से भी नहीं झिझकता, फिर अगर पुरूष की पत्नी न रहे या वो तलाकशुदा हो तो कॉलगर्ल के पास जाना कितनी आसानी से हम उसकी जरूरत समझ कर आँखे मूंद लेते हैं , पर औरत से इन सब की उम्मीद नहीं करता हमारा पुरूष प्रधान समाज.....! विद्या के ये तर्क ठीक थे, "पर क्या औरत पुरूष वेश्या के पास जा सकती है" ? ये एक ऐसा सवाल था जिसके लिए औरते के ही अलग अलग मत होंगे....इस बात में कोई दो राय नहीं है। खैर ये सब तर्क तो अपने को सही साबित करने के लिए हैं, जिनसे हम दोनो का ही वास्ता नहीं था। जो उस दिन हुआ वो हम दोनो के बीच बहुत महीनों के बाद फिर हुआ....। ऐसा करके हम एक दूसरे को थोड़ी देर बहला लेते थे। विद्या कुछ दिनों के बाद अपने घर रहने चली गयी थी क्योंकि उसकी छोटी बहन रहने आने वाली थी। बच्चों के भी बोर्ड पेपर खत्म हुए तो आरव और अवनी दोनो घर आ गए। आरव ने 12 वीं के पेपर दिए थे तो वो कॉलेज यहीं से करने वाला था। अवनी 10वीं के दे कर आयी थी तो उसे रिजल्ट के बाद वापिस जाना था। वरूण और नीला दोनो को छोड़ कर वापिस चले गए वैभव को लेकर......वैभव को रोकना चाहा पर वो बोला बुआ आप आ जाओ कुछ दिन के लिए, मेरे तो स्कूल हैं अभी। अनुभा बिल्कुल हमारी मम्मी जैसी ही दिखने लग गयी थी और बात करने का ढँग भी तो कुछ कुछ ऐसा ही था.... बच्चे ऊपर रहने वाले बच्चों के साथ घुलमिल गए थे जो मेरे लिए अच्छा भी था। होस्टल में रहने की वजह से वो दोनो ही काफी काम खुद ही कर लेते थे। बच्चे बड़े और समझदार हो गए थे। सब कुछ ठीक था, बस ऑफिस में मुश्किले बढ़ गयी थी। रोहित ने ऑफिस में आना तो छोड़ दिया, पर मैनेजर साहब मेरे पीछे पड़े रहते.....एक दिन उन्होंने मेरे कंधों पर हाथ रख दिया पीछे से....मैंने घूम कर देखा तो बहुत गंदी हँसी थी उसके चेहरे पर....... मैंने उसका हाथ हटाया तो वो बेशर्मी से बोला,"बॉस का टच तो तुम्हें बहुत पसंद आता है, मैंने कंधे पर ही हाथ रखा है बस, क्यों इतना उबल रही हो"? मैंने आसपास देखा तो सब जा चुके थे, मैं ही काम खत्म करने में लगी थी और टाइम नहीं देखा था। चपरासी को आवाज लगायी तो वो तुरंत स्टोर से बाहर आ गया। 40-45 साल का आदमी था चपरासी, मेरी आवाज मैं गुस्सा और डर भाँप गया था वो......" मैडम आप जाइए, मैं सर के जाने के बाद ऑफिस बंद करता हूँ, वो इतना कह कर मेरे और मैनेजर के बीच मों खड़ा हो गया और मैं घर आ गयी। मैंने उली रात बॉस को ईमेल करके अपना इस्तीफा भेज दिया कारण के साथ......अगले दिन बॉस का फोन सुबह सुबह ही आ गया तो मैंने उन्हें सब बता दिया और आगे काम न करने के लिए भी कह दिया। उन्हें भी बुरा लगा कि उनकी नौकरी करने वाले आदमियों की क्या राय है अपने मालिक और अपनी कलीग के लिए.....वो मैनेजर को निकालना चाहते थे, पर इससे कुछ ठीक नहीं हो सकता था। आदमी हमेशा ऐसी ही सोच का मिलेगा ही हर फील्ड में...बेशक मेरा भाई, देवर, पति और पापा की सोच अलग थी, पर ज्यादातर पुरूष को घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरत मनोरंजन का साधन ही लगती है.....! मेरी विद्या से बात हुई तो मैंने उसे बताया कि मैंने जॉब छोड़ दी है और छोड़ने का कारण भी बता दिया....उसके पूछने पर!
कुछ दिनों बाद हम सब दोस्त फिर मिलें और विद्या ने वहाँ सबके सामने मैंने नौकरी छोड़ दी बता दिया....रोहित ने वजह पूछी तो विद्या मैडम ने बता दिया कि मैनेजर की बदतमीजी की वजह से मैंने रिजाइन किया है....तो सब चुप हो गए।"आगे के लिए क्या सोचा है तुमने फिर वसुधा", राजीव ने पूछा तो मैंने कह दिया की अभी सोचा नहीं ठीक से, पर जॉब नहीं करूँगी.....शायद अपना ही ऑफिस बना लूँ ? "ये तो बहुत अच्छा सोचा है, हम सब हैं तुम्हें सपोर्ट करने के लिए...किसी चीज की जरूरत हो बता देना"! राजीव ने बोला तो सब ने उसकी "हाँ में हाँ" मिलायी। रश्मि का पति वैसे तो मुझसे खास बात नहीं करता था, पर उस दिन उसने भी कहा, "रश्मि की हेल्प चाहिए हो तो बेझिझक बुला लीजिएगा...
आप दोनो के सब्जेक्ट सेम रहे हैं तो मदद कर सकती है.....अब बच्चे भी बडे हो गए हैं तो मैनेज कर लेंगे"....! शायद वो रश्मि को भी काम करने का मौका देना चाह रहे था तो मैंने भी कह दिया कि "जी जरूर" !
क्रमश: