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अपना आकाश - 30 - तुम यहाँ कैसे आ गए विपिन ?



अनुच्छेद- 30
तुम यहाँ कैसे आ गए विपिन ?

माँ अंजलीधर की बैठक। कान्तिभाई, अंगद, तन्नी और विपिन सरकार बैठे विचार विनिमय कर रहे हैं। इन्हें बिठाकर वत्सला जी कालेज चली गई। आज छुट्टी का दिन था पर बहिन जी ने इण्टर की लड़कियों को पढ़ाने के लिए बुला लिया था। माँ जी स्नान कर रही हैं।
'मानवाधिकार आयोग ने भँवरी के प्रार्थना पत्र पर कार्यवाही प्रारम्भ कर दी है। कोतवाल वंशीधर को भी नोटिस भेजी गई है। बृजलाल के शपथ-पत्र को आयोग ने गम्भीरता से लिया है।'
कान्तिभाई बताते रहे।
विपिन ने जानकारी को नोट करते हुए कहा, 'मैं एस. पी. कार्यालय से जानकारी प्राप्त कर लूँगा । इस प्रकरण को गम्भीरता से आगे बढ़ाना है।' 'आप की मदद हमें हर कदम पर लेनी पड़ेगी।' कान्तिभाई फाइल उलटते हुए रहे। बृजलाल के शपथ पत्र की एक फोटो प्रति विपिन को पकड़ा दी।
'इसका मतलब पूरी कहानी ही बदल दी गई।' विपिन चिन्तित हुए। 'हाँ' कान्ति भाई ने कहा।
'इससे तो यह संकेत मिलता है कि मंगल की मौत थाने में हुई। मौत के बाद कोतवाल ने रात में ही लाश को उनके पुरवे के रास्ते पर रखवा दिया और एक नई कहानी गढ़कर लाश जलवा दी।'
'सच तो यही लगता है, भाई साहब।' अंगद ने भी हुँकारी भरी। 'कैसे कैसे लोग कोतवाल हो जाते हैं!' तन्नी के मुख से निकला।
'अपनी चमड़ी बचाने के लिए सभी कोतवाल झूठी पर सच लगने वाली कहानी गढ़ते है ।' विपिन ने कलम को जेब में रखते हुए कहा । कान्तिभाई ने भी समर्थन किया। माँ जी ने स्नान कर साड़ी पहनी। तन्नी अन्दर गई। एक ट्रे में पाँच गिलास पानी तथा तश्तरी में लड्डू लिए लौटी। साथ में माँ जी भी । माँ जी के आने पर सभी खड़े हो गए । 'बैठिए आप लोग' कहते हुए माँ जी बैठ गई। माँ जी ने एक लड्डू उठाया। सभी लोग लड्डू लेकर खाने लगे ।
सभी पानी पी चुके तो माँ जी बोल पड़ी', 'विपिन, मंगल की मौत का रहस्य कुछ कुछ खुलने लगा है। अभी कान्तिभाई ने बताया ही होगा। पुरवे का विकास कार्यक्रम भी चले और मंगल की मौत का पर्दाफाश भी हो। पुलिस अगर कटघरे में आ रही है तो उसे घेरा जाय।' 'ठीक है माँ जी मैं पिछली बैठक में नहीं आ पाया। अब कोशिश करूँगा कि हर गतिविधि में उपस्थित होऊँ । आप, कान्तिभाई और पुरवे के लोग मिलकर जो प्रयास कर रहे हैं उससे सार्थक विकल्प की उम्मीद जगी है।
'मैं यथा संभव सहयोग करूँगा । विपिन के शब्द उनके उत्साह को प्रतिबिम्बित करते हुए । 'पुरवे को सब लोग मिलकर आगे बढ़ाओ', माँ जी का चेहरा प्रसन्नता से दीप्त ।
‌ 'इक्यावन लीटर दूध से डेयरी का काम शुरू होना है माँ जी आप ही द्वारा उसका उद्घाटन होना है।' अंगद ने माँ जी की ओर देखते हुए कहा ।
'देखो अंगद। मेरी बात मानो । उद्घाटन भँवरी करेंगी। तीन किलो लड्डू का प्रबन्ध कर दूँगी मैं। शान्ति पूर्वक काम करो। कोई हल्ला नहीं। पन्द्रह लीटर दूध के ग्राहक हमारे पास हैं। दो लीटर मैं लूँगी। कुछ ग्राहक कान्तीभाई तैयार कर दें। माँ जी कहती रहीं। 'मैंने दस ग्राहक दो-दो लीटर के तैयार किए हैं।' कान्तिभाई बोल पड़े।
'चौदह लीटर के ग्राहक और तय कर लो। विपिन तुम्हें दूध की ज़रूरत नहीं है क्या? 'नहीं माँ जी' विपिन के कहते ही माँ जी के मुख से निकल गया, 'बिनु घरनी घर भूत का डेरा।' 'बिना घरनी के घर ही नहीं होता, माँ जी।' कान्तिभाई चहक उठे।
'ठीक कहते हो।' माँ जी मुस्करा उठीं। विपिन भी सलज्ज मुस्कान बिखेरते रहे ।
'अभी दो दिन का समय है। ग्राहक खोज लूँगा।' अंगद ने कहा ।
'बेटा, साफ सुथरा स्वच्छ शुद्ध दूध हो। सफाई से पैक हो। मैं आँऊगी पर उद्घाटन भँवरी ही करेंगी।'
'आपकी आज्ञा का पालन होगा माँ जी।' अंगद ने माँ जी को आश्वस्त किया। 'माँ जी, अब आज्ञा दीजिए। अभी बाज़ार में कुछ डेयरी का ही काम है।' कान्ति भाई ने उठते हुए माँ जी को प्रणाम किया। अंगद और तन्नी ने माँ जी का चरण स्पर्श किया। विपिन से भी राम राम करते हुए तीनों उतर गए। 'विपिन मंगल की मौत का पदार्फाश करने में मदद करो। आप लोग तो जानकारी इकट्ठी करने में कुशल होते ही हैं। मुझे क्या बताना ?'
'करूँगा माँ जी। अच्छी तरह खोजने का प्रयास करूँगा। लगता है पुलिस ने अपनी गलती छिपाने के लिए एक कहानी गढ़कर परोस दी। कोशिश की जायगी तो रहस्य से पर्दा ज़रूर उठेगा माँ जी । मैं पूरी कोशिश करूँगा ।' 'और अपनी गृहस्थी के लिए भी सोचो। अकेले रहने का इरादा तो नहीं कर लिया है?"
'नहीं माँ जी। अकेले रहने का इरादा तो नहीं है।' 'देखो विपिन अकेले रहने में स्वतंत्रता तो होती है पर अकेलापन स्वयं में कष्ट भी देता है। मन चाहता है कि कोई विश्वसनीय साथी हो जिससे सुख-दुख बाँट सकें। पति-पत्नी दो शरीर एक आत्मा होते हैं। स्त्री भी आन्दोलित है। वह पुरुष के समकक्ष ही नहीं, आगे भी जाना चाहती है। यह भी सच है कि उसने बहुत भोगा है, आज भी भोगती है। पर कहीं न कहीं नर-नारी में सामंजस्य की ज़रूरत होती है 'दुश्मन के साथ सोना' एक स्थिति हो सकती है। पर वह स्थायी स्थिति नहीं है ।'
'सच है माँ जी। नर-नारी दोनों को एक दूसरे का सहयोग करना होगा । समानता के साथ सहयोग, सम्मान का भाव रखना होगा।'
‘नर-नारी दोनों को अपनी इच्छानुसार रहने का हक है। अलग-अलग रहते हुए भी वे सामाजिकता से बहुत दूर नहीं जा पाते। समाज के बीच अन्तर्विरोध भी पनपते हैं पर उनका समाधान भी आदमी ही करता है। सोच विचार लो, यदि विवाह करने की स्थिति हो तो समय से कर लेना ही ठीक है। वैसे विवाह की कोई उम्र अब तो रह नहीं गई है। साथ-साथ रहना, शादी न करना, यह सब भी चलन में आ गया है। परिपक्व होने पर सोच समझ कर ही निर्णय करना चाहिए। जिसे देखकर मन न उमगे उससे निभेगी कैसे? यह भी सच है विपिन । पर मन उमगने वाली स्थितियाँ पैदा करनी पड़ती हैं।'
'सच है माँ जी । चाहे पति-पत्नी की तरह रहें या सहयोगी की तरह एक दूसरे पर विश्वास एवं संवाद रहना जरूरी होता है। माँ जी अब चलूँ ।' 'अभी रुको विपिन । वत्सला के आने का समय हो गया है। आज यहीं खाना खाओ हम लोगों के साथ।' माँ जी के कहते ही सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वत्सला आ गई। माँ जी प्रसन्न । विपिन को देखकर वत्सला मुस्कराती हुई अन्दर गईं। अपना बैग रखा। मुँह धोकर तौलिया से साफ किया । तौलिया लिए हुए बैठक में आ गई। 'बेटी, विपिन को हमने रोक लिया है। हम तीनों साथ खाएँगे।' कहते हुए माँ जी उठीं, उन्हीं के साथ वत्सला भी ।
माँ जी टमाटर, प्याज, मूली के साथ चाकू लिए लौट आईं। सब्जी, दाल बनी थी वत्सला रोटी बनाने लगीं। विपिन ने माँ के हाथ से चाकू ले लिया। स्वयं सलाद काटने लगा ।
भोजन के बाद माँ जी अपने कमरे में लेट गईं। वत्सला और विपिन बैठक में आ गए। 'माँ जी हठीपुरवा के बारे में ही इस समय सोचती हैं। उनकी सक्रियता.......।’
'मेरे पिता जी सामाजिक कार्यकर्त्ता थे। जनहित के ही कामों में लगे रहते। माँ जी भी उनका साथ देतीं। आर्थिक दबाव के कारण ही माँ ने अध्यापन का कार्य शुरू किया। छठा दशक था। उस समय अर्थ व्यवस्था का विस्तार हो रहा था। उन्हें काम मिल गया। आज का दिन होता तो काम मिलना ही मुश्किल हो जाता।'
'उसी संस्कार के कारण माँ जी का मन जनहित के कार्यों में रमता है।' विपिन ने अपनी ओर से जोड़ा।
'वह तो रक्त में समाया है।' वत्सला का चेहरा भी खिल उठा। विपिन खिला चेहरा देखता रह गया। ऐसा परिवार कम मिलता है, वह सोचता रहा।
'क्या सोचने लगे विपिन?" वत्सला खिलखिला पड़ीं। 'आप कितनी भाग्यशाली हैं? ऐसा परिवार......जो अपनी चिन्ता छोड़ समाज की चिन्ता करता है। दूसरों को रोटी मिले.....अपनी रोटी की चिन्ता ही नहीं।' माँ जी बताती थीं, बड़े कठिन दिन थे वे। माँ जी ने अपनी सोने की चूड़ियाँ बेचीं । कान की बाली भी बेच दी। पर इन सबसे कब तक काम चलता। पिता जी ने ही कहा, अंजली इस तरह कैसे चलेगा? तुम नौकरी करो। नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। माँ ने नौकरी शुरू की। बी. एस. सी थीं। विज्ञान, गणित, पढ़ाने का काम । पिता जी कहते, अंजली बच्चों के साथ पूरा न्याय हो । कमजोर बच्चों को अलग से देख लिया करो माँ जी मन लगाकर पढ़ातीं । छुट्टियों में पिताजी के साथ सामाजिक कार्यों में जुट जातीं। कितनी ऊर्जा थी उनमें?'
'अब भी उनकी ऊर्जा में कोई कमी नहीं है। सामाजिक कार्य ही जैसे उनकी ऊर्जा का स्रोत हो।' 'है ही। सामाजिक कार्य के लिए खाना-पानी भी भूल जाती हैं, माँ जी।'
ऐसे लोग अब कहाँ मिलेंगे?"
'मिलेंगे क्यों नहीं? समाज में अच्छे सच्चरित्र लोगों की कमी नहीं है । आप भी तो मूल्यों के लिए ही कितना सहते हैं?"
'अभी मैंने कितना सहा है?
मुझे स्वतंत्र रूप से काम करना पड़ा है। यह अच्छा ही है। महीने में चार-छह आलेख भी निकल गए तो काम चल जाता है। अपेक्षाएँ भी बहुत नहीं पालता ।' 'पर घर बसाना चाहोगे तो खर्च बढ़ेगा ही।'
'माँ जी तो हर बार यही कहती है घर बसाने का इरादा हो तो देर न करो।'
'आप क्या सोचते हैं?"
'अभी सोचा ही नहीं है।'
'किसी बंगाली लड़की से ही.......।’
'नहीं, ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। बंगाली लड़की हम लोगों के पारिवारिक संस्कारों से परिचित होगी। इससे थोड़ी सुविधा ज़रूर होती है। पर कोई भी समझदार लड़की कहीं भी सामंजस्य बिठा लेती है।'
‘पर लड़का भी समझदार हो।'
'ठीक कहती हैं आप। दोनों का समझदार होना ज़रूरी है। पिता जी तो मेरे भी नहीं है। माँ बड़े भाई के साथ बर्दवान में रहती हैं। भाई साहब के पास कागज की एजेन्सी है ।' 'तुम यहाँ कैसे आ गए विपिन ?"
'केवल खाक छानने।' कहकर विपिन हँस पड़ा।
वत्सला भी खिलखिला पड़ीं।