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अपना आकाश - 35 - अपना आकाश खींच लाना है



अनुच्छेद- 37
अपना आकाश खींच लाना है

हठी पुरवा में एक ही मंडप में कभी दो विवाह नहीं हुए थे और न कभी दिन में कोई शादी हुई। माँ अंजलीधर की योजना से दोनों संभव। आज हठीपुरवा उत्सव में डूबा हुआ। बाल युवा वृद्ध सभी के चेहरे खिले हुए। सभी अपने साफ-सुथरे दमकते कपड़ों में दौड़-दौड़ कर काम करते माँ अंजलीधर के निर्देशन में। माँ जी का भी उत्साह सातवें आसमान पर। रोटी, पूड़ी, सब्जी, खीर, पुलाव की महक परिवेश में। अंगद पुरवे के लोगों के साथ भोजन की तैयारी में। नन्दू और हरवंश तथा अन्य युवा जलपान का दायित्व सँभालते हुए । तन्नी अपनी सहेलियों के साथ मंडप की सजावट में लगी हुई। ढोल और झांझ के साथ युवाओं का दल राधा, कलावती गीत गाने वाली महिलाओं का नेतृत्व करने के लिए गुनगुना कर अपने को तैयार करती हुई। सभी काम पुरवे के लोग ही कर लेने को तत्पर । तरन्ती का परिवार गद्गद् । पुरवे के लिए यह नया अनुभव ।
रात में बर्दवान से कुल ग्यारह लोगों की आमद । पाँच महिलाएँ और छह पुरुष जिसमें विपिन के भाई, भाभी, माँ भी ।
विपिन के आवास पर ही विश्राम और जलपान की व्यवस्था ।
दिल्ली से दस लोगों का आगमन । प्रातः की गाड़ी से वे लोग आ गए। माँ जी के निर्देशन में अंगद, नन्दू ने सभी को एक छोटे पंडाल में ठहराया। जलपान, स्नान की व्यवस्था । तरन्ती के पिता केशव को लगता कि तरन्ती की शादी का भार भी माँ जी ने उठा लिया है।
माँ जी बराबर यह ध्यान रखती कि दोनों (वत्सला और तरन्ती) के लिए वस्त्र, आभूषण, बारात सेवा किसी में रंच मात्र का फर्क न हो। वे कहतीं, ‘दोनों मेरी बेटियाँ है भेद कैसा?" अंगद ही नहीं सभी पुरवे के लोगों को समझातीं', 'सामूहिकता में जीना सीखो। सभी के लिए जियो।' अपने आचरण में भी उतारतीं। बेटियों को समझाती गहने से लदने की आदत छोड़ो। काम काजी बनो। एक दो गहने ही बहुत हैं ।
माँ जी ने तरन्ती के लिए एक गले की जंजीर, घड़ी और मोबाइल की व्यवस्था की। वत्सला के लिए भी उसी तरह की जंजीर। घड़ी और मोबाइल उनके पास था ही। दोनों के लिए एक सी साड़ियाँ, चूड़ियाँ और चप्पलें, सूटकेस, बिस्तर बन्द में ओढ़ने- बिछाने के लिए सामग्री, रसोई के लिए कुकर, थाली कटोरी चम्मच आदि। दोनों सास के बक्सों को सजाकर माँ थोड़ी आश्वस्त हुईं। और तरन्ती की माँ फूलमती को सब सामान सौंप कर माँ जी ने भोजन, जलपान की व्यवस्था का जायजा लिया। आश्वस्त हुई। तब तक दस बज गया था। फागुन के दिन फागुन में यह पहली शादी ।
दो बोलेरो रात से ही काम पर लगी हैं। उन्हें विपिन के आवास पर भेजा गया बारात लाने के लिए। साढ़े ग्यारह बजे दिन से विवाह का कार्यक्रम । दिल्ली से आए हुए बाराती भी तैयार होने लगे। दोनों बारातों में स्थानीय लोग भी आकर सम्मिलित हुए।
माँ जी मंडप में पहुँचीं। तन्नी और अन्य महिलाएँ मंडप को सजा चुकी थीं। कान्ती भाई भी सपत्नीक आ गए। वत्सला और तरन्ती की सहेलियाँ, विपिन के साथी पत्रकार, वत्सला के साथ की अध्यापिकाएँ सभी पहुँचने लगे। घरातियों का अच्छा समागम । बाराती भी आ गए। लड़कियों ने टीका कर सभी का स्वागत किया। तरन्ती के श्वसुर शिवबदन भी माँ जी के व्यवहार से अत्यन्त प्रसन्न । केशव, अंगद, राम दयाल, तरन्ती का भाई बलवीर भी साथ ।
दोनों दूल्हे चन्द्रेश और विपिन एक साथ मंडप में। गाजर का हलवा, गोभी, पालक की पकौड़ियाँ प्लेट में मेज पर रखी गईं। दूध- बादाम की बोतलें, बाराती घराती जलपान करते रहे। वीरू का दल सेवा में लगा हुआ। द्वार पूजा से विवाह की प्रक्रिया प्रारम्भ पंडित जगन्नाथ, फूलमती, भवरी सभी जुटी हुई। जयमाल के लिए चार कुर्सियाँ दो वरों तथा दो वधुओं के लिए विपिन और चन्द्रेश वरों की कुर्सियों पर आसन जमा मुस्कराते रहे। वत्सला और तरन्ती को भी महिलाओं-लड़कियों ने लाकर बिठाया। वीडियो कर्मी सक्रिय हर दृश्य को कैद करते हुए । तालियों की गड़गड़ाहट और साथी फोटो खिंचवाते रहे। नवग्रह पूजा के साथ विवाह की तैयारी कन्यादान नहीं, केवल सिन्दूर दान और श्लोकों - संकल्पों के साथ सप्तपदी पुरवे के लोगों के लिए एक बिल्कुल नया अनुभव। एक घण्टे पच्चीस मिनट में विवाह की कार्यवाही सम्पन्न । न पूरी रात जगना, न प्रकाश का तामझाम, न कोई गोला- तमाशा, न कोई आर्केस्ट्रा पुरवे के लोगों, घराती - बाराती का ही कार्यक्रम सबकुछ सहज, सुरुचिपूर्ण, मोहक ।
बाराती भी मगन, विस्मय विमुग्ध । विपिन के भाई साहब गाँव से शादी करने से थोड़े चिन्तित थे। पर माँ जी का सुरुचिपूर्ण सहज कार्यक्रम देखकर वे विमुग्ध ही नहीं थे, भविष्य के लिए इसे मार्गदर्शी मान रहे थे।
क्या वैवाहिक आयोजनों को हम सरल ढंग से कर सकते हैं? वे भी कभी सोचते थे पर कर न पाए। इस पुरवे में जो हो रहा था, वह सभी के लिए आश्चर्य और मोद से भरा था । तरन्ती के श्वसुर शिवबदन भी गद्गद् थे । वत्सला की सहयोगी अध्यापिकाएँ भी माँ जी की प्रबन्ध कुशलता से प्रभावित हुईं। बीच बीच में माँ जी से बतियातीं। प्रसन्नता जतातीं। माँ जी मुस्कराते हुए अपना काम करती रहतीं। हर जगह उपस्थित पुरवे के कार्यकर्ता जी जान से लगे हुए।
विपिन और चन्द्रेश के साथियों ने नृत्य कर समा बाँध दिया। पूरे चालीस मिनट लड़के नृत्य करते रहे। विपिन के बड़े भाई तथा रिश्तेदार भी सम्मिलित हुए । पुरवे की महिलाएँ, बच्चे सभी आह्लादित। प्रसन्नता का परिवेश । लड़के थके तो महिलाओं का दल गाने लगा। छोटी बच्चियाँ नृत्य करने लगीं। तन्नी ने राधा-कलावती को झकझोरा, 'भाभी'। राधा ने टेर लगाई-
मोर पिछवरवा लवंगिया कै बगिया
लवँगा फुलै आधीराति रे ।
तेहितर उतरे दुलहा दुलरुआ
तुरलें लवँगिया के फूल रे ।
राधा का स्वर आरोह-अवरोह घराती बाराती को मुग्ध कर गया । विपिन की माँ उठकर आ गई, राधा और कलावती के सिर पर हाथ फेरा। जी भर आशीष दिया । तन्नी ने विपिन की भाभी सुप्रिया से कहा- 'भाभी आप भी ।' वे उठीं। उनका मैका उत्तर प्रदेश के जौनपुर में था। एक गीत उन्होंने टेरा-
‌ आज सोहाग कै राति चंदा तू उड़हौ ।
चंदा तू उइहौ सुरूज मत उइ हौ ।।
मोरा हिरदव विरस मत कीन्हेउ मुरुग मत बोलिहौ ।।
मोर छतिया बिहरि जनि जाइ तु पह जनि फटिहौ ।।
धिरे - धिरे चलि मोरा सुरुज बिलम करि अइहौ ।।
आज करहु बड़ि राति चंदा तू उइहौ ।।
बर्दवान से आने वाली महिलाओं ने साथ दिया।
गाँव की स्त्रियाँ तालियों से उत्साहवर्द्धन करती रहीं। बहुत दिनों के बाद आज भँवरी को प्रसन्न मुद्रा में दौड़ दौड़ कर काम करते देखा गया। माँ अंजलीधर भी विपिन की माँ के पास थोड़ी देर के लिए बैठ गईं ।
अब रामजस 'नादान की गायक मंडली ने ढोल-मंजीरे, हारमोनिय पर हाथ लगाया। दल के लोग महिलाओं के गायन और नृत्य से उत्साहित थे । 'नादान' ने भी लोकगीत की ही टेर भरी-
आधे तलवा माँ हंसा चूनइ आधे मा हंसिनि हो
तबहूँ न तलवा सोहावन एक रे कमल बिन ।
आधी बगिया मा अमवा बौरइ आधी मा इमिली हो
तब हूँ न बगिया सोहावनि एक रे कोइलबिन
आधी फुलवरिया गुलबवा गमकय आधी मा केवड़ा हो
तब हूँ न फुलवा सोहावन एक रे भँवर बिन
सोने के सुपवा पछोरें मोतिया हलोरैं हो
तब हूँ न पुरुष सोहावन एक रे सुनरि बिन
नादान की मंडली ने लोगों का मन मोह लिया। सुप्रिया और उनके साथ की महिलाएँ ही नहीं, पुरुष भी विभोर हो उठे ।
शिवबदन और उनके बाराती भी मुग्ध हो रसपान करते रहे। कैमरे और वीडियों का प्रकाश क्षण क्षण चमक उठता। व्यक्तिगत कैमरे ही नहीं पत्रकारों के कैमरे भी दृश्यों को कैद करते रहे। विपिन के साथी भी दौड़ते रहे । विपिन के बड़े भाई जतिन और भाभी सुप्रिया हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराते । माँ अंजलीधर विपिन की माँ के साथ रहते सभी कार्यक्रमों पर दृष्टि रखतीं ।
हँसी ठिठोली के बीच गाँव और शहर आपस में मिलते, बतियाते । डेढ़ बजे गीत-नृत्य का अनुष्ठान सम्पन्न हुआ। गरम गरम भोजन तैयार था ही। बाराती भोजन करने लगे । वरवधू के दोनों जोड़ों के लिए मेज और कुर्सियाँ लगाई गईं। शेष सभी सारस भोज में सम्मिलित वीरेश और तन्नी दोनों जोड़ों की सेवा में। कलावती और सखियाँ सरस गाली न्योत चुकी थीं-
राम लखन जी जेंवन बैठे देत सखी सब गारी कि हाँ जी ।
निहुरे निहुरे परसैं जनक जी धोतिया मइल है जाई कि हाँ जी ।
धोतिया तो हमरी धोबिया का जैहें ऐसे सजन कहाँ पाई कि हाँ जी।
ई गारिन का माख न मानेउ गारी अधिक पियारी कि हाँ जी ।

विवाह का भोजन बिना इस गारी के पूरा नहीं होता। सभी भोजन करते रहे और महिलाओं की गाली का आनन्द लेते रहे। माँ अंजलीधर भी मुस्करातीं रहीं। नादान मंडली अपने गीतों से लोगों का दिल जीत चुकी थी। गीत, कजली, नकटा क्या नहीं सुनाया इस मंडली ने भोजनोपरान्त जब
'प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो'
की टेर लगाई, सभी विह्वल हो उठे । शिवबदन और जतिन 'नादान' से हाथ मिलाने पहुँचे। उनके निकट आने पर नादान मंडली ने हाथ जोड़ लिया। लोगों के दिल जुड़ गए थे। हाथ में हाथ लिए एक दूसरे को आत्मसात करते रहे कुछ क्षण। भोजन कर बाराती कुर्सियों पर बैठ गए। महिलाएँ वधुओं की विदाई में लगीं। पुरवे में पहली बार ऐसा हुआ कि लड़की की विदाई करते समय कोई डिंडकार छोड़कर नहीं रोया । आँखों से अश्रु ज़रूर दुरते रहे। फूलमती सहित सभी महिलाएँ माँ अंजलीधर का ही अनुसरण करती रहीं। माँ जी की आँखें भी नम हुई। बेटी की विदाई का समय हर एक को झकझोर देता है । वधू और वर के जोड़े गाड़ी में बैठे। बर्दवान की बारात विपिन के आवास की ओर दिल्ली की बारात स्टेशन की ओर रवाना हुई। सभी बारातियों के लिए शाम के भोजन पैकेट अंगद ने एक गाड़ी में रखवा कर भेजा ।
अंगद सभी घरातियों को भोजन के लिए बुलाते पर बेटी की विदाई के बाद तुरन्त घराती भोजन कहाँ कर पाते हैं? श्रम से श्लथ घरातियों को कान्ति भाई इकट्ठा कर ही लाए। माँ जी भी आई। इच्छानुरूप बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी ने कुछ न कुछ खाया।
'मुझे भी इसी पुरवे में रहना पड़ेगा अंगद जी एक मड़ई रखना। तुम लोगों से अलग नहीं हो पाऊँगी मैं।' एक रोटी खाते हुए माँ जी कह गईं। केशव और फूलमती ने आकर माँ का चरण स्पर्श किया। 'उऋण नहीं हैं हम', केशव ने कहा।
'क्यों भाई ?, तरन्ती भी मेरी बेटी है। इसमें उऋण होने का सवाल कहाँ से पैदा होता है? क्या तरन्ती मेरी बेटी नहीं हैं?" सभी के सामने माँ ने प्रश्न उछाल दिया।
'क्यों नहीं, क्यों नहीं?, पुरवे के सभी बच्चे आप ही के बेटे-बेटियाँ हैं', अंगद ने उत्तर दिया। विदाई के उस परिवेश में भी कान्ति भाई ठठाकर हँस पड़े। मुख से निकल पड़ा, 'माँ जी....आप......।'
तब तक केशव बोल पड़े, 'आप पूरे पुरवे की माँ हैं।"
'ओह.... । माँ जी के चेहरे पर भी प्रसन्नता झलक उठी।
एक क्षण के लिए सभी के चेहरे पर प्रसन्नता का भाव । लड़की की विदाई के बाद का परिवेश थकान भरा, बोझिल लगता हैं।
बच्चे नवजवान सभी सामान सहेजने में लगे हैं।
माँ जी एक एक को पूछतीं। 'हरवंश कहाँ है?"
उन्होंने पूछा। 'भोजन के पैकेट के साथ गया है।' अंगद ने बताया ।
माँ जी, कान्ति, उनकी पत्नी शची पंडाल में बैठे रहे जब तक सामान सहेज नहीं लिया गया शामियाना गिराने को हुआ तो तीनों बाहर आ गए। पाँच बजे तक सभी सामान सहेज दिया गया। रुपया-पैसा आयोजन सब कुछ अंगद को सौंप कर माँ जी निश्चिन्त थीं। अंगद सब कुछ अपनी डायरी में अंकित करते । खर्चे का हिसाब रखने में तन्नी मदद करती । सामाजिक सहभागिता का अद्भूत नमूना ।
माँ जी, कान्ति भाई उनकी पत्नी चलने को हुए तो पुरवे के लोग फिर इकट्ठे हो गए। गाय-भैंस को नाँद पर बाँध वे दौड़े, तीनों को विदा करने के लिए भरपूर प्यार का प्रतिदान। अंगद ने फोन करके गाड़ी मँगवाई। माँ जी, कान्ति भाई सपत्नीक बैठ गए।
तीनों ने जैसे हाथ जोड़ा, सभी के हाथ जुड़ गए। गाड़ी बढ़ चली। देर तक सभी गाड़ी को जाते देखते रहे।
हठी पुरवा में विवाह की गहमागहमी उसी समय एक दरोगा सादे वस्त्र में प्रधान जी के यहाँ बैठे चाय पीते हुए हठी पुरवा के लोगों के बारे में जानकारी ले रहे थे। साथ में एक सिपाही वर्दी में। बहुत कुछ उन्हें आसपास के लोगों से मालूम हो चुका था। प्रधान से भेंट हो गई तो उनके यहाँ चाय पीना ही था । 'हठी पुरवे के बच्चे कैसे हैं?' उन्होंने प्रधान जी से पूछ लिया । 'बच्चे ऐब वाले तो नहीं हैं, गाँजा, शराब नहीं पीते पर हठी हैं साहब बड़ा खतरनाक पुरवा है। सारा वोट एक ही जगह पड़ेगा। हमें तो एक वोट भी नहीं मिला उस पुरवे से । हमने भी बदला चुका लिया। पुरवे का कोई आदमी न तो बी.पी.एल. में है और न जाब कार्ड धारक । ठीक किया न?"
दरोगा ने हुँकारी तो न भरी पर उनकी चुप्पी को प्रधान जी ने हुँकारी ही समझा।
"इसका मतलब यह कि पुरवे के लोग ज़बान के पक्के हैं। एक जुट हैं।' दरोगा जी ने कुरेदा। 'हाँ यह तो है।' प्रधान जी कह गए।
चाय पी कर दरोगा जी उठे बुलेट पर बैठे सिपाही को बिठाया और किक । धीमी गति से चलते हुए वे हठीपुरवा के पास से गुज़रे उत्साह के परिवेश की भनक लगी। पुरवे में प्रवेश करना उन्होंने उचित नहीं समझा। उनके हाथ में जो कागज है यहाँ के बच्चों की प्रकृति उससे बिल्कुल भिन्न । संगठित होना कोई अपराध नहीं है। लोग डेयरी चला रहे हैं। आगे बढ़ना चाहते हैं। ऐसे बच्चे ! काग़ज का पेट कैसे भरा जायगा ? नहीं, तुम पकड़ने आए हो, तुम्हें वह काम करना ही है। अदालतें जो करना होगा करेंगी। दरोगा सुकान्त को अभी कुल पाँच वर्ष ही हुए हैं सेवा में आए। वे भारतीय प्रशासनिक या प्रादेशिक सेवा में जाना चाहते थे। चार वर्ष उन्होंने खपाया भी। उसमें तो न आ सके पर दरोगा की परीक्षा में सफल हुए तो आँसू जैसे पुंछ गए। अभी उनका ईमान कहीं सही-गलत का प्रश्न उठा ही देता है इसीलिए.....संशय, तर्क वितर्क की गुंजाइश बनती है। ज़मीर मरा नहीं है अभी संभावना दिखती हैं कि कुछ बदल सकते हैं हम। दस-बीस वर्ष बाद शायद यह तर्क वितर्क उनका दिमाग न करे।
गाड़ी चलाते हुए वे कोतवाली पहुँचे। कोतवाल साहब को अपनी कार्ययोजना बताई। उनके निर्देश से सभी व्यवस्था हो गई।
सुबह पाँच बजे का समय। फागुन के दिन, गुलाबी ठंड । दिनभर विवाह की दौड़ धूप से थके हठी पुरवा के जन घोड़े बेच कर सो गए थे। डेयरी के काम ने अंगद को जगा दिया था। उन्होंने नन्दू, हरवंश को भी जगाया। थोड़ी देर में तन्नी भी आ गई। डेयरी का दूध लिया जाने लगा। पैकिंग की तैयारी होने लगी। इसी बीच एक जीप आकर रुकी। एक दरोगा, दो महिला तथा दो पुरुष सिपाही । दरोगा जी ने अंगद को अलग ले जाकर बताया। नन्दू, हरवंश और तन्नी को कोतवाल साहब ने बुलाया है। इन लोगों ने मंगल के सम्बन्ध में जो रजिस्ट्री भेजी थी उसी के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करेंगे। कुछ आवश्यक जानकारी लेंगे।
सभी को कुछ शंका जरूर हुई। दरोगा जी ने इतनी मासूमियत से बात रखी जिससे आशंका को अधिक प्रश्रय नहीं मिला। इस बार तीनों को अपने कपड़े पहनने दिया गया। घर पर सूचना हो गई कि कोतवाल साहब ने बुलाया है, मंगल के बारे में जानने के लिए । पुराने कोतवाल तो हैं नहीं जो सब जानते थे ।
हरवंश, नन्दू के पिता भी आ गए। 'अगर प्रार्थना पत्र दिया है तो पैरवी करनी ही पड़ेगी।' दरोगा जी ने बताया। कल विवाह में बनी मिठाइयाँ कुछ बची थीं। अंगद उसे लाए। दरोगा जी को दिया, सभी सिपाहियों और नन्दू, हरवंश, तन्नी को भी पानी पीकर सभी जीप पर बैठे। नन्दू, हरवंश तन्नी भी। अंगद ने सभी को समझाया, 'कोई बात नहीं है। कोतवाल साहब से मिलकर सभी आ जाएँगे।'
'काका डेयरी का दूध ले जाने के लिए 'नादान' को बुला लेना।' नन्दू ने जाते हुए कहा । जीप कोतवाली पहुँची। दोनों को दफ़्तर में बिठा दिया गया। दरोगा जी अपनी तैयारी में लग गए। तीनों चुप चाप बैठे रहे। कभी कभी एक दूसरे को देखते। संकेत करते-कब पूछ ताछ होगी? दुग्ध वितरण कर अंगद ने माँ जी को फोन मिलाया। वे रेलवे स्टेशन पर बारात के साथ वत्सला को विदा करने के लिए उपस्थित थीं। लगभग दस बजे वे छुट्टी पा सकीं। उसी बीच कान्ति भाई का फोन आ गया। 'यह क्या हो गया?" उन्होंने कान्ति भाई से पूछा। ‘यदि मंगल के प्रकरण पर पूछताछ के लिए बुलाया गया है तो कोई बात नहीं है। माँ जी, रात में आप सो नहीं पाई हैं। विपिन की माँ के साथ बातों में ही रात बीत गई। आप थोड़ा आराम कर लें। मैं पता करता हूँ। स्थिति से आप को अवगत कराऊँगा।' कान्ति भाई की बातों से माँ जी थोड़ी आश्वस्त हुई। वे अपने आवास पर आगईं। नहाने धोने की तैयारी करने लगीं।
डेयरी का काम निबटाकर अंगद, हरवंश के पिता नरसिंह तथा नन्दू के पिता रामसुख अपनी साइकिलों से कोतवाली पहुँचे। पता चला कि दो लड़के, एक लड़की सुबह लाए गए थे। दरोगा जी उन्हें लेकर कचहरी गए । 'कचेहरी!' अंगद चौंके। तीनों कचहरी की ओर बढ़ गए।
'क्या हो गया भाई अंगद ?' रामसुख ने प्रश्न किया। 'चलो चलकर देखते हैं।' अंगद ने कान्ति भाई को फोन मिलाते हुए कहा । कान्ति भाई भी तैयार हो रहे थे। कहा, 'चलो मैं कचहरी ही आता हूँ ।"
जब तक अंगद, रामसुख और नरसिंह कचहरी पहुँचे, तीनों अभियुक्त मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी के यहाँ पेश हो चुके थे। दरोगा सुकान्त ने इनके खिलाफ पत्रजात प्रस्तुत किया । कान्ति भाई भी पहुँच गए। उन्होंने अपने एक परिचित वकील को लगाया। पर अदालत ने तीनों को बहराइच ले जाने की अनुमति दे दी। वकील से ही पता चला कि बहराइच नेपाल सीमा के कुछ माओवादियों ने इन तीनों का नाम अपने साथियों में गिनाया है। 'अरे,' अंगद के मुख से निकला। 'अब अरे कहने से काम नहीं चलेगा। इसकी ठीक से पैरवी करनी पड़ेगी।' वकील साहब ने समझाया।
कान्तिभाई ने तुरन्त योजना बनाई। रामसुख और नरसिंह को साथ भेजा जाय। अंगद गाँव नहीं छोड़ेंगे। डेयरी के काम को निरन्तर बिना किसी व्यवधान के चलाना होगा। नन्दू, हरवंश, तन्नी से लोग मिले। वकील साहब ने उन्हें ढाढस बँधाया। लड़कर छुड़ा लेंगे, चिन्ता न करो।'
वकील साहब ने आश्वस्त किया । तुरन्त पाँच सौ रुपये का प्रबन्ध हुआ । रामसुख और नरसिंह इन बच्चों के साथ जाने के लिए तैयार हुए। दरोगा जी को बताया गया । उन्होंने कहा, 'ठीक है चलें।' तीन मासूम हाथों में हथकड़ियाँ देखकर हर कोई एक बार सोचने को विवश होता।
'अंगद काका, भँवरी काकी और वीरू का ध्यान रखना।' नन्दू, हरवंश और तन्नी की सवालों से भरी आँखें । 'तुम लोग निश्चिन्त रहो। हम लोग सब देखेंगे।' कान्ति भाई ने हाथ हिला जैसे आशीष देते हुए विदा किया।
दरोगा जी एक महिला एक पुरुष सिपाही के साथ तीनों को डोरिया कर चले। पीछे पीछे रामसुख, नरसिंह ।
एक बज कर दस मिनट पर अंगद और कान्ति भाई ने माँ जी का दरवाजा खटखटाया। वे रात भर जगीं थीं। उन्हें गहरी नींद आ गई थी। तीन बार खटखटाने पर माँ जी जग गईं। आकर दरवाजा खोला। दोनों बैठक में आ गए। एक तश्तरी में लड्डू ले आईं। कहा 'पानी पियो। तत्काल पुरवे पर पहुँचना बहुत ज़रूरी है। वे चटपट तैयार हुईं। थैले में अपने कुछ कपड़े वगैरह भी लिया। ताला लगाया। वे रिक्शे पर बैठीं, कान्ति भाई और अंगद साइकिलों पर दिमाग उनका चलने लगा । कान्ति भाई और अंगद के दिमाग में भी अनेक प्रश्न उठ रहे थे। माँ जी का रिक्शा जैसे ही गाँव पहुँचा, महिलाओं, पुरुषों, बच्चों ने घेर लिया। माँ जी रिक्शे से उतरीं, एक गहबर पेड़ के नीचे ज़मीन पर बैठ गईं। कान्ति भाई के साथ गाँव के लोग भी ज़मीन पर बैठ गए। माँ जी का चेहरा अंगारा हो रहा था। पर उन्होंने संयम रखा। कहना शुरू किया, "भैया लोगो जब तक नन्दू, हरवंश और तन्नी को नहीं ले आएँगे हम चैन से नहीं बैठेंगे। यह मुश्किल समय है। हमें धीरज नहीं खोना है। इस समय तीनों बच्चों को छुड़ाना सबसे ज़रूरी काम है। कान्ति भाई हमारे साथ हैं। इसकी पैरवी करेंगे। पर डेयरी को ठीक से चलाना। सबके घर में चिराग जलाना कम ज़रूरी नहीं है। ऐसे मौके पर लोग धीरज खो देते हैं, हताश होने लगते हैं। आपने पुरवे के विकास का जो सपना देखा है उसे पूरा करने में जो बाधाएँ आएँ, उनका मुकाबला करना होगा। कल आपने जिस उत्साह से दो बच्चियों को विदा कर भेजा है, उसी उत्साह से आगे बढ़ना है। विकास की लौ और तेज करनी है। इसीलिए अंगद का पुरवे में रहकर डेयरी का काम मुस्तैदी से सँभालना जरूरी है। हमें विकास के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए जीना है। गाँव का भविष्य बदलना है। अपना आकाश खींच लाना है।' बोलो, 'कोई हताश तो नहीं होगा?"
'नहीं माँ जी', समवेत स्वर उभरा।
'इस समय कुछ ऐसी स्थिति बन गई है कि किसी को भी माओवादी कह कर जेल में डाला जा सकता है। इसी का फायदा उठाया गया है। पर धुन्ध छँटेगी । हम जीतेंगे। अच्छी तरह जीने के लिए भी संघर्ष करना होता है। आज से मैं यहीं रहूँगी। मंगल की मड़ई में मेरे लिए भी एक तख्ता डलवा दो अंगद भाई । जब तक तन्नी और दोनों बच्चे लौटकर नहीं आते मुझे यहीं रहना है।' उन्होंने पाँच-पाँच सौ के दस नोट कान्ति भाई को पकड़ाते हुए कहा, आप बच्चों को छुड़ाने का प्रबन्ध करे। जरूरत के हिसाब से और प्रबन्ध किया जाएगा।' कान्ति भाई ने नोटों को लिया। माँ जी उठ पड़ीं। पूरा पुरवा उनके साथ।
'आपको यहाँ कष्ट होगा।' कान्ति भाई के कहते ही वे बोल पड़ीं, 'मुझे कोई कष्ट नहीं होगा। दो टिक्कर कहीं बन जाएगा। इस समय पुरवे में साहस का मंत्र फूँकना ज़रूरी है। दूर की लग्गी से काम नहीं चलेगा। इस पुरवे को ही नहीं पूरे समाज को खड़ा होते देखना चाहती हूँ मैं।'
सबके साथ चलते माँ जी भँवरी के दरवाजे पर पहुँच गईं। वीरू ने दौड़कर तख्ते पर एक दरी बिछाई। माँ जी बैठ गई। उनका झोला अंगद ने मड़ई में टाँग दिया। कान्ति भाई माँ जी को प्रणाम कर चल पड़े। माँ जी आ गई हैं, हर आदमी का आत्म विश्वास लौट रहा था। हरवंश और नन्दू की माँ भी आकर माँ जी के पास बैठ गई ।
'अंगद भाई अपना काम सँभालो । हमारी चिन्ता छोड़ो। मैंने लोगों के बीच रह कर काम किया है। आगे भी करना है। भँवरी, नन्दू और हरवंश की माँ के साथ मैं आराम से हूँ । इस पुरवे के लोगों को अपना आकाश चाहिए । सभी वंचितों को अपना आकाश चाहिए। हम सबको इसी में लगना है।'
सभी लोग अपने कामों में लगने लगे। माँ जी महिलाओं के बीच। माँ का होना ही पर्याप्त है पुरवे के लिए।
'तुम आवश्यक काम देखो हमें महिलाओं को कठिनाइयों से निबटने के लिए तैयार करना है।’ माँ जी ने अंगद को सहेजा ।
जिस समय माँ जी महिलाओं में साहस का जज़्बा भर रही थीं। ठीक उसी समय पुलिस उपाधीक्षक वंशीधर ने अपने आवास से निकल दरोगा सुकान्त से फोन मिलाया, जानकारी ली।
'तीनों को ला रहा हूँ, सर', सुकान्त ने बताया। 'ठीक है', वंशीधर ने फोन बंद किया। वे आवास के सामने खाली पड़ी जमीन पर घूमने लगे। आवाज़ निकली 'हूँ' और......' और दौड़ो मानवाधिकार के आगे-पीछे। बच्चू, नानी याद आ जाएँगी। पुलिस के खिलाफ उठने का मजा देखो अब । और फिर -........मैं ' वंशीधर हूँ।' कहते हुए उन्होंने जूते की नोक से ज़मीन खुरचते हुए थोड़ी मिट्टी उछाल दी.........।