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कवियों के सरोकार

मंच के कवि

उभरते हुए युवा कवि जिसे देखा उसे पकड़कर ले गये और अपनी कविता पेल दी। हालांकि कविता सुनाने के पहले चाय कचौड़ी का आदेश दे मारते थे। उन्हें फायदा यह हो जाता था कि एक श्रोता को ही चाय कचौड़ी खिलानी पड़ती थी और उसे माध्यम बनाकर वे पूरे रेस्त्रां के ग्राहकों को अपनी कविताएं सुना डालते थे। सुनाने के बाद, वे प्रतिक्रिया जानने की गरज से, लोगों के चेहरे देखते । कोई न कोई कह ही बैठता - वाह साब! आप तो कमाल की कविता करते है।

वे जब कभी अखबार देखते केवल कवि सम्मेलन की खबरे पढ़ते थे। अगर उन्हें मालूम हो जाये कि आने वाले दिनों में फलां जगह कवि सम्मेलन है, तो वहाँ पहुँच जाते, आयोजकों से सम्पर्क करते। कहते - मै रेवाड़ी कवि सम्मेलन से आ रहा था आपके प्रोग्राम के बारे में मित्रों से सुना तो आ गया - चलो कुछ नहीं तो यहाँ का कवि सम्मेलन तो सुनेंगे।

-सुनाइये! क्या लिखते हैं? आयोजकों ने पूछा।

-अरे साब लिखते तो कुछ नहीं है। मगर सहारनपुर में लोगों ने जो प्यार दिया, मैं उसे भूल नहीं सकता आयोजकों को मजबूरन हजार रूपये की राशि देनी पड़ी। एक दो वजनी व्यंग्य कविता सुनाकर प्रभावित करने की कोशिश करते। फिर परिचय देते, पूरा परिचय लेते। व्यक्तिश: घुलेंगे मिलेंगे और दोस्ती गाँठेंगे।

होता अक्सर यह था कि उन्हें भी मंच पर सवार होने का चांस मिल ही जाता था, थोड़ी बहुत दान दक्षिणा भी । फिर वे इस बात का ध्यान रखते कि कवि सम्मेलन की रपट अखबारों में भेजते, दो तीन प्रसिद्ध नाम के बाद अपना नाम घुसेड़कर लिखते कि युवाकवि कल्पित की हास्य व्यंग्य कविताओं पर खूब तालियाँ पिटी।

अखबारों की कटिंग सहेजकर रखते थे जैसे विद्यार्थी अपने प्रमाण पत्र सम्भाल कर रखता है, इस तिकड़म से उन्हें विशेष फायदा नहीं हुआ तो नई योजना बनाई. किसी प्रसिद्ध कवि के नाम से, वे स्वयं आयोजकों को चिठ्ठी लिखते कि कवि कल्पित को जरूर बुलाया जाये मंच पर नई जमीन तोड़ रहे है।

धीरे-धीरे उन्होंने काम के आदमियों को पकड़ा, जो उन्हें कवि सम्मेलन दिलवा सके। इसके लिए उनके पास एक अमोध अस्त्र था।

कहते, “हमारा विभाग वर्ष भर में दो कवि सम्मेलन करवाता है। यहाँ अपने अलावा है कौन? निमन्त्रण मैं ही भिजवाता हूँ, आप निश्चिन्त रहे अगली बार निमन्त्रण आपके पास पहुंच जाएगा. कई बार ऐसा होता कि उनकी लिस्ट से भी एक–दो कवि बुलवा दिये जाते। जिनको भी आफीशियल निमन्त्रण जाता अपनी तरफ से और चिठ्ठी लिख देते कि निमन्त्रण भिजवा रहा हूँ, अवश्य आइयेगा आदि। फिर इन्कवारी भी कर लेते, इन्दौर या जयपुर कवि सम्मेलन का क्या हुआ । मुझे निमन्त्रण भिजवा रहे हैं न?

अब सुनते हैं महीने का दस हजार रूपया औसतन कमा लेते हैं। आयोजकों की बोतलें, अण्डे और चिकन साफ कर लेते हैं। मंच पर वे कवि के बजाय एक्टर हो जाते हैं, भावुकता में आवाज भर्रा जाएगी, आखें भर आएगी, चेहरे पर करूणा के भाव गहरा जाएँगे। भई कविता पढ़ना परफोर्मिंग आर्ट है इसलिए यह सब करना पड़ता है।

करूण व्यंग्य लिखते हैं। अजमेर में लड़कियाँ इसी तरह के कारूणिक आख्यान पर रो पड़ी थी। जाहिर है रोते हुए आदमी को देख, श्रोता कम से कम सहानुभूति अवश्य दिखाते।

वे असंतुष्ट थे कि कवि पाँच-पाँच हजार कूट लेते हैं एक कवि सम्मेलन में । दिल्ली में ए-वन फ्लेट है गाड़ी है, आधुनिक सुख-सुविधाएँ हैं मुझे अभी भी क्लर्क की नौकरी करनी पड़ रही है।

आयोजकों को राजी करने के लिए, प्रोग्राम खत्म होने पर नोन- वेजिटेरियन कविताताएं, चुटकुले या दोहे सुनाते ताकि उनका दिल जीता जा सके और अगली बार का निमन्त्रण पक्का हो जाय।

एक बार आत्मीय क्षणों में उनसे बात होने लगी -

- आखिर आप मंच क्यों चाहते हैं?

- (आत्मविभोर होकर) हजारो-हजार श्रोता मेरा नाम सुनेंगे।

-क्यों आपकी कविता नहीं सुनेंगे।

-कविता तो माध्यम है। इस माध्यम से सुन तो मेरा नाम ही रहे हैं।

-जब तालियाँ बजती हैं तो-?

-तो मैं आत्म मुग्ध हो जाता हूँ जैसे मेरी जय जयकार हो रही है।

-यानी आपकी कविता कहीं नहीं होती।

-वे बोले जा रहे थे - आयोजक सम्मान करते है। कविगण स्नेह करते हैं। कवत्रियाँ भी अतिस्नेह रखती है। महिला श्रोता ओटोग्राफ लेती है। चाय पर बुलाती हैं। बस मजे ही मजे हैं।

वामपथी साहित्यकार के साथ एक साक्षात्कार

-जनसंख्या विस्फ़ोट जैसी गम्भीर समस्या के संबंध में आपके साहित्य का क्या योगदान है?

-आज मुख्य अंर्तविरोध पूंजी और श्रम के बीच है और हम प्राथमिकता के रुप में इसी पर बल देते है।

-पर्यावरण की ग्लोबल समस्या का आपके साहित्य में क्या स्थान है?

-पर्यावरण की समस्या पूंजीवाद की समस्या है क्योंकि पूंजीवाद बेतहाशा व्यक्तिगत लाभ अर्जित करता है और साधनों का दोहन कर प्रदूषण पैदा करता है और पर्यावरण पर कोई तव्ज्जो नही देता इसीलिए हमारे साहित्य में पूंजीवाद का जबरदस्त विरोध है।

-जात-पात व अन्य सामाजिक कुरीतियाँ के बारे में आपकी क्या राय है?

-जात-पात व अन्य सामाजिक कुरीतियाँ सामंती व्यवस्था की देन है , और पूंजीवाद उसे राजनीतिक एवं अन्य कारणों से पुख्ता करता है। इसलिए हम सामंतवाद और पूंजीवाद के विरोध में है। बल्कि सामंतवाद और पूंजीवाद के अपवित्र गठबंधन के विरोध में है जबकि होना तो यह चाहिए था कि पूंजीवाद सामंतवाद को नेस्तनाबूद कर देता । हमारा साहित्य इस अपवित्र गठबंधन के सख्त खिलाफ़ है।

- धार्मिक अंधविश्वास को मिटाने में वामपंथी साहित्यकार क्या योगदान कर रहे है?

-विज्ञान की शिक्षा का अभाव अंधविश्वास का जन्मदाता है कई अंधविश्वास धार्मिक आस्था से भी संबधित है। इसलिए भी हम धर्म का विरोध करते है। धर्म एक नशा है जो श्रम की विद्रोह शक्ति का दमन कर देता है। फ़िर माकर्सवाद एक वैज्ञानिक विचारधारा है इसी का प्रसार करने से अंधविश्वास टूटेगे। इसलिए हम साहित्य के माध्यम से मार्क्सवाद का प्रचार करते है।

-यानी आपका साहित्य प्रचारात्मक है?

-हाँ है, हर साहित्य प्रचारात्मक है गोर्की की 'माँ' और टैगोर की 'गीतांजली' सभी।

-तात्पर्य यह कि लेखक के तईं उसकी अपनी अभिव्यक्ति का कोई महत्व नहीं। आप हर पुस्तक को मार्क्सवाद के पक्ष या विपक्ष घोषित कर देंगे।

-हमारी घोषणा महत्वपूर्ण नहीं है। हर अभिव्यक्ति या तो मार्क्सवाद के पक्ष में होती है या विरोध में। इट्स सो सिम्प्ल।

आम आदमी से रिश्ता

एक समय की बात है, प्रशासन व सरकार साहित्यकारों को घास तक नहीं डालती थी, तो साहित्यकारों ने एक सम्मेलन आयोजित किया। प्रस्ताव पास किया कि आम आदमी के साहित्य को जानबूझकर उपेक्षित किया जा रहा है क्योंकि सरकार पूंजीपतियों की है। सम्मेलन में उन्होंने सरकारी एवं प्रशासनिक उपेक्षाओं के प्रति जमकर विक्षोभ प्रकट किया। आम आदमी के सरोकारों से एकजुटता दिखाते हुये संघर्ष छेड्ने का प्रस्ताव पास किया।

सरकार मुस्करायी, साहित्य एकेदमी के दरवाजे खोले, अनुदानों की थैली का मुँह चौडा किया, संस्थाओं में साहित्यकारों को नियुक्त किया और इस तरह आम आदमी के साहित्य को बचा लिया गया उन्हें पुरुस्कारों से सम्मानित एवं सुशोभित कर आम जनता पर थोप दिया।

उनकी पुस्तकें सरकारी खरीद के बाद गोदामों तथा पुस्तकालयों में शोभित होने लगी। इस बीच उभरते लेखकों ने महसूस किया कि पुरानी पीढ़ी ने उनके विकास के सारे दरवाजे बंद कर दिये है। अतः वे पुरानी पीढ़ी के प्रति आक्रोश से भर उठे। उनका कहना था कि बढऊ दकियानूस ही नही चाटुकार भी है। वे अपने लेखकीय दायित्व को भूलकर केवल अपने आकाओं की प्रशस्तियाँ लिख रहे हैं। विदेशों की सैर या उदघाटन-विमोचन करते फ़िर रहे है। कोई संसद में मनोनीत होना चाहता है तो कोई विश्वविद्यालय का वायस चांसलर बनना चाहता है। वे सब पद, प्रतिष्ठा और पैसे की होड़ में लगे है। साहित्य में आम आदमी की राजनीति कर रहे लेखक, विहस्की पीकर ठर्रे के बारे में लिख रहे हैं।

फ़िर उन्होंने भूखे नंगे एवं प्रतिभाशाली तरुण लेखकों का एक सम्मेलन आयोजित किया। सम्मेलन में तेज तर्रार बहसें हुई। भाषा आरोप से आरम्भ होकर गाली गलौज तक उत्तर आई।

कुर्सियों पर लदे साहित्यकारों व लदने को उत्सुक साहित्यकारों, तुम्हारा आम आदमी से क्या रिश्ता है?