Sumandar aur safed gulaab - 1 - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 1 - 2

समंदर और सफेद गुलाब

2

देखते ही देखते हवाई जहाज में चढऩे के लिए लाइन लग गई। मैं भी लाइन में खड़ा हो गया। कुछ ही देर में मैं जहाज के अंदर अपनी सीट पर बैठा था। लेकिन जहाज के अंदर का नजारा तो ऐसा था कि, पूछो ही मत। सीट पर बैठकर मुझेे ऐसा महसूस हुआ कि मैं उस शहर में जाने के लिए तैयार हूं, जहां जाने के लिए वीजा लेने की जरूरत तो नहीं होती लेकिन इस इंतजार में सारी जिंदगी निकल गई। इस शहर में आना मेरे लिए कनाडा अमेरिका में जाने से भी कठिन हो गया था। मैं कल्पना में तो कई बार उड़ान भरता लेकिन कुछ देर बाद फिर अपने ही हाथों अपने परों को काट देता और लहूलुहान होकर निढ़ाल होकर गिर जाता। ऐसा भी नहीं है कि मैं इस शहर में कभी आया ही नहीं लेकिन वह न कर पाया, जो मैं चाहता था।

एक बात और भी है कि मैं जब भी यहां आया हूं, लहूलुहान होकर ही गया हूं। यह महज एक संयोग है या फिर बुरी किस्मत... कह पाना मुश्किल है। अगर कहूं कि, इस शहर ने मुझेे बाहें फैलाकर कभी स्वीकारा भी नहीं तो कहना गलत न होगा। फिर न जाने उस शहर के बारे में क्या-क्या सोचता लेकिन किसी नतीजे पर बिना पहुंचे ही कभी अपने आप को कोसता, कभी घरवालों को तो कभी पत्नी को। बस ऐसे ही गुजर गए जिंदगी के कई वर्ष। अब अट्ठावन पार करते-करते यहां आना भी महज एक संयोग है और वो भी सीधा उसी काम के लिए जिस काम के लिए हमेशा मेरा मन उडक़र यहां आ जाता था।

मेरा दोस्त अनिल जो बचपन में मेरे साथ ही जालंधर में पढ़ता था, उसके पिता जी सेंट्रल स्कूल में टीचर थे। उनकी ट्रांसफर कहीं न कहीं होती ही रहती। उसे मेरे दिल की सारी बात का पता था। ऐसे ही एक दिन खबर आई कि उसके पिता जी की कहीं ट्रांसफर हो गई थी। उनका अपना घर-बार करनाल में था। उसके दादा-दादी भी वहीं रहते थे। वह भी हमेशा कहता था कि ‘रिटायरमैंट के बाद तो करनाल में ही सैटल होंगे और मैं भी ग्यारहवीं के बाद करनाल में पढ़ूंगा। वहां दयाल सिंह कालेज है, वहीं से बी.ए. करूंगा।’

वे लोग करनाल जाकर बस चुके थे। इस बात को कई साल हो चुके थे। हम लोगों की दोबारा कभी मुलाकात नहीं हुई थी और न ही कभी खतो-किताबत ही हुई। मेरी शादी को भी कई साल हो गए थे।

एक दिन मैं घर आया, तो देखा एक खत पड़ा था। खत अनिल का था। उसमें उसने लिखा था कि ‘मैंने एम.ए. पूरी करके एक अखबार में नौकरी कर ली थी। कुछ साल तक नौकरी की। मुंबई में फिल्मी पत्रकारिता करता हुआ, यहां आ पहुंचा। तुम्हारा पता मेरे पास था। मैंने संभालकर रखा हुआ था और मुझेे तुम्हारे शौक का भी पता था। अगर कभी मौका मिला तो कोई न कोई अवसर तुम्हारे लिए तलाश करूंगा क्योंकि हमारा वास्ता यहां के प्रोड्यूसर एवं डायरेक्टरों से पड़ता ही रहता है। उसने अपना लैंडलाइन फोन नंबर भी भेजा था और लिखा था कि जहां मैं रहता हूं, यह फोन नंबर उस घर का है। जब कभी चाहो, इस नंबर पर फोन कर सकते हो। मुझेे तुम्हारा सपना कभी नहीं भूला। जब भी मैं मुंबई में किसी स्ट्रगलर को देखता हूं, तो लगता है कि वह तू है। अगर तू भी यहां आता, तो ऐसे ही आता। बाकी भगवान की इच्छा है। उस भगवान की इच्छा न हो, तो परिंदा भी पर नहीं मार सकता।’

खैर, इस बात को भी कई साल बीत गए थे। मैं इस बीच तीन बार मुंबई गया लेकिन उससे मुलाकात नहीं हो पाई। एक बार फोन किया था, तो वह घर पर नहीं था। उसके बाद उसने वहां से कमरा ही छोड़ दिया था और किसी दूसरी जगह रहने लगा था। यह उसकी पहली मकान मालकिन आंटी ने ही बताया था।

ऐसे ही कई साल गुजर गए। फिर अनिल का कोई अता-पता नहीं चला लेकिन करीब तीन साल पहले वह फेसबुक पर मिल गया और दोस्ती हो गई। मोबाइल नंबरों का आदान-प्रदान हो गया। जब दिल करता, हम लोग मोबाइल फोन से बात कर लेते। इससे पहले भी उसने मेरे लिए एक फिल्म में काम के लिए सिफारिश की थी।

तब भी मैंने अपने कम्पाऊडर से कहा था कि ‘किसी न किसी तरह पंद्रह दिन क्लीनिक तुम संभाल लेना, बाकी मैं आकर देख लूंगा।’

हालांकि जाने से पहले भी घर में खामोशी पसर गई थी लेकिन बच्चों ने इस बात का हल निकाल दिया था और कहा था, ‘मम्मी, पापा पंद्रह दिन के लिए ही तो जा रहे हैं। इतने दिन तो लोग घूमने भी चले जाते हैं। आप भी किस युग में जी रही हैं।’

पत्नी ने रोने के सिवा कुछ नहीं किया था। मैंने भी इस बार सोच लिया था कि कुछ भी हो जाए, कमजोर नहीं पडऩा है। लेकिन किस्मत ही खराब निकली। वो फिल्म शुरू ही नहीं हो पाई और मैं मुंबई जा ही नहीं पाया।

इस बीच अनिल एक बार हमारे घर भी आया था। उसके साथ एक बूढ़ा आदमी भी था जिसे वह मानव जी कहकर संबोधित करता था, वह फिल्म इंडस्ट्री में लेखक के तौर पर काम करता था और यदा-कदा कोई न कोई भूमिका भी निभाता था। कहने का अभिप्राय: यह कि जो भी काम मिलता, वह कर लेता था। इस बात को भी एक साल से ज्यादा गुजर चुका है।

अनिल का एक दिन फिर से फोन आया, ‘अरे डाक्टर आकाश! मैंने आपके लिए एक रोल का इंतजाम कर लिया है। मेरी निर्माता से बात हो गई है। मैंने उसकी फिल्म का प्रचार-प्रसार का जिम्मा लिया है। और हां...एक बात और है। मैं आपको उसका नंबर देता हूं। आप फोन भी कर लेना। वैसे तो, वह खुद ही फोन करेगा। मैंने उसे बता भी दिया है कि आप बहुत बड़े लेखक हो और एक्टिंग तो सिर्फ अपना शौक पूरा करने के लिए ही कर रहे हो। वह खुश है और कह रहा था कि अगली फिल्म आकाश जी के किसी उपन्यास पर बना देंगे।’

‘यह तो सही है।’ मैंने झट से कहा था।

‘आकाश ...! यार यहां सही कुछ भी नहीं है। यह मायानगरी है। यहां पल भर का भरोसा नहीं। यह फिल्म शुरू होने दो, बाकी बाद की बाद में देखी जाएगी। लेकिन इस बार यह बात तो पक्की है कि यह फिल्म शुरू जरूर होगी क्योंकि इसके दो गाने रिकार्ड कर लिए गए हैं। टैलीविजन के जाने-माने कुछ चेहरों को बुक भी कर लिया गया है। आप बस तैयारी रखिए। शूटिंग शैड्यूल तय होते ही आपको सूचित कर दिया जाएगा। आप चिंता नहीं करना, भगवान ने चाहा तो सब ठीक ही होगा। आजकल मैं उन्हीं मानव जी के साथ ही रह रहा हूं।’

‘कैसेे हैं, मानव जी ठीक हैं?’ मैंने पूछा।

‘हां ठीक हैं, किसी तरह जिंदगी काट रहे हैं। असल में अब बूढ़ हो गए हैं लेकिन आपका तो बुहत गुणगान करते हैं। उन्हीं ने लिखी है इस फिल्म की स्क्रिप्ट। बूढ़े तो हो गए हैं लेकिन आज की डेट में भी बहुत दूर-दूर तक जाकर एक्टिंग के लिए ऑडिशन दे आते हैं। यह मुंबई है। यहां सर्वाइवल सबसे पहले है, बाकी बातें बाद में हैं। चलो ठीक है, जल्द ही मिलेंगे मुंबई में। फोन रखता हूं, मुझेे एक फिल्मी पार्टी की प्रेस कांफ्रैंस के लिए निकलना है।’

‘ठीक है।’ मैंने कहा।

इस बीच निर्माता से कई बार फोन पर बात हुई और मानव जी से भी।

अनिल ने कहा था, ‘आप लकी हैं कि आपको घर बैठे-बिठाए सैट पर जाने का मौका मिल रहा है, वर्ना मायानगरी मुंबई तो कई बार अच्छे-अच्छों के घुटने टिकवा देती है।’

मैं तंद्रा से मुक्त हुआ क्योंकि हवाई जहाज ने टेक ऑफ के लिए चेतावनी देकर सीट बैल्ट बांधने के लिए कह दिया था। सब लोग बैल्ट बांधने में व्यस्त हो गए थे। मैंने भी बैल्ट हाथ में पकड़ ली थी लेकिन बांधने में असमर्थ था। मैं इधर-उधर देखता हुआ कोशिश करने लगा और अंत में कामयाब हो गया।

तभी एक और एनाऊंसमैंट हुई। एयर होस्टस साथ में एक्शन करके बता रही थी, ‘आपकी सीट के नीचे एयर बैग पड़े हैं। किसी भी आपातकालीन स्थिति में जहाज को पानी के ऊपर उतारा जा सकता है। आपको अपने बैग को निकालकर उसमें थोड़ी-सी हवा भरनी है।’

और भी न जाने क्या-क्या बताया था एयर होस्टेस ने लेकिन मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मैंने अपने साथ वाले से पूछा तो उसने हंसते हुए कहा, ‘कुछ नहीं... ऐसे ही है। भगवान न करे, कुछ ऐसा-वैसा घटे, जब कुछ ऐसा-वैसा घटेगा तो इतना कुछ करने का समय ही नहीं मिलेगा। सीधा ‘राम-नाम सत्य है’ वाली स्थिति हो जाएगी।’

उसने तो हंसते हुए कहा था लेकिन मैं उसकी बात सुनकर डर गया।

देखते ही देखते चार एयर होस्टेस अपनी दो ट्रॉलियों के साथ पूरे जहाज में घूम-घूमकर खाने-पीने का सामान बेचने लगीं। लोग खाने-पीने में बिजी हो गए।

मैंने भी चाय का कप मांगा तो उसने कहा, ‘कॉफी है... चाय नहीं है।’

मैंने पैसे देकर कोल्ड ड्रिंक ली और पीने लगा।

धीरे-धीरे जहाज में खुसर-फुसर कम हो गई थी। कुछ लोग ऊंघने लगे थे। मेरे साथ वाला तो इस कदर ऊंघ रहा था कि बीच-बीच में वह मेरे ऊपर ही गिर पड़ता।

मैंने घड़ी पर नजर मारी तो पाया कि अभी तो एक घंटा पड़ा है, मुंबई पहुंचने में। मैंने भी सिर को पीछे टिकाया और आंखें बंद कर लीं, लेकिन नीद मुझसे कोसों दूर थी। मैं सपनों में खो गया। आज तो सपने भी आसमान में देखने का मौका मिला था, मानो सोने पर सुहागे जैसा ही आनंद आ रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं जैसे किसी परीलोक में जा रहा था।

इसके बावजूद मैं जानता था कि मेरे अंदर का एक एक्टर कब का दम तोड़ चुका था और अब एक लेखक जिंदा हो गया था, लेकिन यदा-कदा मेरे अंदर का एक्टर अंगड़ाई लेता, तो मुझेे बहुत परेशान करता। थिएटर में या किसी सीरियल में कोई कलाकार घटिया डायलॉग बोलता, तो मेरे अंदर का एक्टर परेशान हो जाता और मैं टैलीविजन को बंद करने के लिए मजबूर हो जाता।

अचानक मेरा मन यादों के समंदर में गोता मारने लगा। याद आने लगा वो दिन, जब मैंने बापू से कहा था कि ‘मुझेे फिल्म इंडस्ट्री में जाना है और एक्टिंग करनी है। मुझेे किसी ऐसी जगह एडमिशन ले दें जहां एक्टिंग का कोर्स करवाया जाता है।’

मेरी बात सुनते ही बापू का चेहरा लाल हो गया। बापू ने घूरकर मेरी तरफ देखा और कहने लगा, ‘तू मास्टर का बेटा है, वो भी उस मास्टर का जिसने आज तक एक पैसा भी हराम का नहीं कमाया। वर्ना अंग्रेजी के टीचर पता नहीं कितना पैसा ट्यूशन पढ़ाकर ही कमा लेते हैं। एक मैं ही हूं, जो घर आकर गली-मोहल्ले के बच्चों को फ्री पढ़ाता हूं। वैसे भी यह एक्टिंग कोई काम है? नाचने-गाने वाले लोग हैं ये सब। सच पूछो तो मिरासियों का काम है एक्टिंग। तू बोल, क्या तुझे मिरासी बनना है? बोल..?’

बापू की बात सुनकर तो जैसे मेरी बोलती ही बंद हो गई थी। मुझेे बापू से और खासकर बापू के गुस्से से बहुत डर लगता था। बचपन से लेकर जवानी तक बापू ने डराने के अलावा किया ही क्या था? बस बचपन सारा गालियां खाते और पिटते हुए ही बीता है। पिटता भी खूब था। कभी हाथों से तो कभी लातों से। गुस्सा ज्यादा होने पर जब बापू का इससे भी मन न भरता तो बापू के झोले वाला डंडा कब बाहर आकर मेरे शरीर पर बिन बादल बरसात की तरह बरसने लगता, पता ही नहीं चलता था। बस फिर क्या था कभी हाथों की तलियां तो कभी पैरों की तलियों पर बरसने लगता।

बापू सामने होता तो हमेशा एक खौफ मेरे मन-मस्तिष्क पर छाया रहता।

मन में हमेशा डर रहता कि पता नहीं कब, किस बात पर, किसी छोटी-बड़ी गलती पर मार पडऩी शुरू हो जाएगी। जब भी मुझे मार पड़ती तो मैं मां की तरफ भागता और उसकी साड़ी के पल्लू में छुपने की कोशिश करता। कई बार तो मां बचाव करती, लेकिन कई बार बेबस हो जाती। जब मां भी मुझे बचाने में बेबस हो जाती, तो बस फिर मुझे बचाने वाला कोई न होता। मारते-मारते बापू हांफने लगता लेकिन मेरे चीखने-चिल्लाने का उस पर कोई असर न होता। मानो बापू पत्थर का बना हो और उसके शरीर में दिल नाम की कोई चीज ही न हो। बापू जब मुझे मारते-मारते खुद भी हांफ जाता और मेरे भी आंसू निकलकर सूखने लगते तो वह पानी पीने लगता और मुझसे भी पूछता, ‘पानी पिएगा?’

मेरी तो पानी मांगने की भी हिम्मत न होती कि इतना कह सकूं कि ‘पानी पीना है’ या ‘नहीं पीना है।’ लेकिन मैं सिसकियां लेता-लेता पानी के घूंट भरने लगता। इतने में बापू की लहराती हुई आवाज मेरे कानों में गूंजती, ‘जल्दी कर, यह नौटंकी नहीं चलेगी.... और हां, अब तेरी आवाज तक मेरे कानों में नहीं पडऩी चाहिए। नहीं तो फिर....।’

बापू की यह बात सुनते ही मैं सिसकियों को नियंत्रित करने का एक असफल प्रयास करता और झट से पूरा का पूरा पानी गटक जाता। बापू फिर से डंडा उठाता और कहता, ‘अपनी हथेली आगे कर। केवल दो-दो डंडे दोनों हाथों पर पड़ेंगे।’

मैं तब भी सोचता था और आज भी कई बार सोचता हूं कि क्या वो दो-दो डंडे खाना मैंडेटरी था कि जब तक वो दो-दो डंडे नहीं पड़ेंगे, मैच खत्म नहीं होगा। बस, यही तो चलता रहा बचपन से लेकर दसवीं की कक्षा तक। पहले बेहिसाब मार फिर हिसाब लगाकर तय किए गए दो-दो डंडे।

उस मार ने मुझसे मेरा बचपन तो छीना ही, साथ में मुझसे मेरे अरमान भी छीन लिए। कई बार मन में कई तरह के प्रश्न उठते लेकिन वे भी मेरे ही सीने में दफन होकर रह जाते।

दिल में उठी हूक तक किसी को बताने की इजाजत नहीं थी। कभी कोई बात मन में आती भी तो रेत के महल की तरह धराशायी होकर गिर जाती और मैं कुछ न कर पाता।

तल्ख हकीकत तो यह है कि बापू के सामने कोई किंतु-परंतु मेरी जिंदगी में कभी कोई स्थान नहीं ले पाया। बचपन में बस एक ही बात का इंतजार रहता था कि बापू जिस साइकिल से स्कूल जाता है, वह रास्ते में ही पंक्चर हो जाए और बापू घर लेट आए या फिर कभी-कभी और भी ख्यालात आते जिनके बारे में आज सोचता हूं तो मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। फिर मैं अपने आप से सवाल पूछता हूं क्या कोई बेटा अपने बाप के बारे में ऐसा भी सोच सकता है? मेरा मन डर जाता है और मैं जल्दी से आंखें बंद कर लेता हूं। फिर सोचता हूं कि यह तो बचपन की सोच थी। लेकिन कहते हैं न ‘कसाइयों के कहने से भैंसें नहीं मरा करतीं।’

शाम होते ही बापू रूपी जिन्न घर में टहलने लगता और मैं दुबका-सा किसी कोने में जाकर छुपने की कोशिश करता, लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी? आए दिन बापू की जोरदार आवाज पूरे घर में गूंज उठती।

मेरे कानों के पर्दे तो मानो फटने को ही आ जाते, जब बापू की सिंह गर्जना मेरे कानों में पड़ती, ‘आकाश... अपना बस्ता लेकर आ जाओ।’ मुझेे तो सांप ही सूंघ जाता। मैं अधमरा सा कांपती टांगों के साथ बापू के सामने चला जाता।

बापू की लहराती आवाज फिर कानों में पड़ती, ‘बस्ता खोलो और दिखाओ... आज स्कूल में क्या करवाया है?’

मैं डरता हुआ सारी की सारी कापियां बापू के सामने रख देता। कांपते हाथों से कभी-कभी कापियां नीचे गिर जातीं। मैं और भी डर जाता। कापियां देखते हुए भी बापू चुप न करता। अक्सर यही कहता, ‘मास्टर भी स्कूल में टाइम पास करने के लिए आते हैं। आए..क्लास में बैठे...गप्पे हांकी और उठकर घर को चल दिए। अपना दायित्व तो निभाने के लिए कोई तैयार ही नहीं है। इन मास्टरों को यह भी नहीं पता कि अगर बचपन से ही नींव कमजोर रही तो बच्चे आगे चलकर कुछ नहीं कर पाएंगे।’

मेरे बस्ते की तरफ देखकर तो बापू अक्सर व्यंग्य से कहता, ‘हुंह..नालायकों का बस्ता हमेशा भारी होता है।’

उसके बाद दो घंटे मेरी खैर नहीं। कापी देखते-देखते इन घंटों में बापू के रटे-रटाए डायलॉग मेरे कानों से टकराते, ‘लिखाई सुधारो...मात्राएं सही डाला करो...सवाल सही से हल क्यों नहीं करते?’

कहते-कहते बापू को गुस्सा आ जाता और फिर एक तरह से चिल्लाकर कहता, ‘बार-बार कहता हूं लेकिन तुम हो कि तुम्हारे सिर पर जूं तक नहीं रेंगती। अरे...! वो कहावत सुनी है न कि ‘जिसका बरामदा साफ सुथरा है उसके घर में हर कोई आना चाहेगा।’ ऐसे ही जिसकी लिखाई अच्छी है, उसे बाकी बच्चों से एक दो-अंक ज्यादा मिलते हैं। वैसे भी आगे बोर्ड की क्लास आने वाली है। लेकिन तुम मेरी बात मानते ही नहीं। लगता है कि हड्डिया लऊं-लऊं कर रही हैं तुम्हारी।’

अगर बोलते-बोलते बापू को ज्यादा गुस्सा आ जाता तो लऊं-लऊं करती हड्डियों को ठंडा करने के लिए बापू का हाथ कब उठा जाता, मुझेे आभास तक न होता। पता तब चलता जब एक जोरदार थप्पड़ मेरे गालों पर तड़ाक से पड़ता। खैर... ऐसे हालातों का मैं भी आदी हो गया था। मार खाते-खाते इतना पक गया था कि बापू की डांट एक कान से सुनता दूसरे से निकाल देता.... लेकिन बापू के डर ने मुझेे बापू से इतना दूर कर दिया था जिसकी कल्पना करना आज भी मेरे लिए बहुत मुश्किल है।

मुझेे याद हैं वो समय, जिन दिनों बापू को टाइफाइड बुखार हुआ था। उन दिनों टाइफाइड बुखार होने का मतलब बहुत बड़ी बीमारी होना माना जाता था। टाइफाइड से पीडि़त बापू लेटा होता तो मां कई बार कहती थी, ‘जा... अपने बापू को दवा दे आ।’

मां काले चने की तरी कटोरी में डालती और बापू को देने के लिए कहती। मैं बड़ी सी कटोरी में चने की तरी लेकर जाता तो मेरे हाथ कांपने लगते। मैं उन्हीं कांपते हाथों में कटोरी लेकर बापू के पास पहुंचता। कांपते हाथों से ही मैं वह कटोरी बापू को पकड़ा देता। उस वक्त तो मुझेे कुछ समझ में ही नहीं आता था कि बीमारी की हालत में बापू में कुछ बदलाव आया है या नहीं?

लेकिन इतना तो जरूर समझ में आता कि बीमारी में बापू का कुछ अंदाज जरूर बदला है क्योंकि उस एक-डेढ़ महीने में मुझेे मार नहीं पड़ती थी। उन दिनों मुझेे ऐसा लगने लगा था कि मेरे अंदर भी एक मन है, जो सोच सकता है, समझ सकता है और उड़ भी सकता है।

उन दिनोंं, एक रात पहली बार मुझे नाइटफॉल हुआ था। मैं तो डर ही गया था कि यह क्या हो गया? शर्म के मारे किसी से बात करने में असमर्थ था। केवल इतना ही याद रहा था कि रात को एक सपना देखा था। सुबह उठा तो वह सपना तो भूल चुका था लेकिन एक लिजलिजा एवं सुखद अनुभूति का एहसास मेरी जिंदगी में जुड़ गया था। उस अहसास तक मैं दोबारा पहुंचना चाहता था लेकिन रास्ता ही नहीं पता था। बस फिर क्या था... चीजें धीरे-धीरे समझ आना शुरू हो गई थीं। हर दिन एक नया एहसास मन में उमंग भरने लगा और वहां तक पहुंचने का रास्ता भी खुद-ब-खुद पता चल गया था, जिसके चलते सपने भी अंगड़ाई लेने लगे थे।

एक दिन बाजार गया, वहां से कुछ हिंदी की किताबें किराए पर घर ले आया और छुपाकर रख दीं। फिर अंदर छुपे हुए सफेद फूल को खिलाने का तरीका भी समझ में आ गया। फूल खिलता तो उस फूल का सफेद रस देखने को मन बेचैन होने लगता।

एक दिन तो मैं घबरा ही गया था क्योंकि उससे पिछली रात सफेद फूल का रस दो बार देखा था क्योंकि एक ही रात में दो बार नाइट्रफाल हुआ था। मैंने डरते-डरते स्कूल में अपने एक दोस्त से इस बाबत पूछा तो दोस्त कहने लगा, ‘ऐसा होने से शरीर में बहुत कमजोरी आ जाती है।’

यह सुनकर चिंता होने लगी। जब थोड़ा सा बड़ा हुआ और उम्र के किशोर पड़ाव तक पहुंचा तो मुहल्ले की एक क्लीनिक में डॉक्टर के पास गया। झिझकते हुए सारी बात उसे बता दी थी।

डाक्टर ने फौरन कहा, ‘इसमें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह तो कुदरत का ही एक नियम है। कुदरत ने सारे गुण इंसान में भर रखे हैं। ये गुण तो जानवरों में भी हैं, और तुम तो इंसान हो। देखो, एक घड़ा है, जब उसमें पानी भर जाएगा तो क्या होगा?’

डाक्टर की बात सुनकर मैं सोच में पड़ गया था।

डाक्टर खुद ही बोला, ‘अगर उसमें और पानी पड़ेगा तो घड़े से बाहर बह जाएगा। है न...? ऐसा ही हमारे शरीर में होता है। यह हार्मोनल चेंजेस हैं जो हरेक के शरीर में होती हैं। इससे कमजोरी नहीं आती है। ऐसे ही लोगों को वहम है। शायद यही वजह है कि सरकारें अब विदेशों की तरह हिंदुस्तान में भी सेक्स एजुकेशन की तरफ ध्यान देने लगी हैं, ताकि बच्चे अपने अंदर होने वाले बदलावों को समझ सकें।’

डाक्टर ने और भी बहुत सारी बातें की लेकिन कुछ मेरे पल्ले पड़ीं, कुछ नहीं। लेकिन इतना तो मैं समझ ही गया कि इससे कमजोरी नहीं होती और डरने की कोई बात नहीं है। डॉक्टर की बात सुनकर मैं घर आ गया था। उस रात भी मैंने सफेद फूल को बड़े चाव से खिलाया और उसका आनंद लेने लगा। समय इसी तरह बीतता जा रहा था। बापू की गालियों और मार का शिकार बनते-बनते बड़ा हो रहा था।

अलबत्ता उन दिनों मेरे अदर एक बदलाव तो निश्चित तौर पर आ गया था। मुझेे वो बात कभी नहीं भूलती जब एक दिन बापू मुझेे मार रहा था तो मैंने कोई प्रतिक्रिया ही नहीं की थी। मैंने प्रतिक्रिया करना बंद कर दिया था।

मुझेे कई बार लगने लगा था कि शायद बापू का पढ़ाने का तरीका ही यही है। शायद वह यही चाहता है कि उसका बेटा पढ़ाई में दुनिया का सबसे होशियार बेटा बने? इन सब बातों ने मेरे अंदर सुगबुगाहट शुरू कर दी थी लेकिन वह कभी जुबां तक नहीं आई।

मैं अपने मन में कई तर्क-वितर्कखुद से ही करता। कई बार सोचता कि यह ठीक वैसा ही नहीं है कि जैसे किसी बर्तन को ज्यादा साफ करने के चक्कर में उसे रगड़ते रहो, रगड़ते रहो। जब बर्तन हद से ज्यादा रगड़ा जाएगा तो अंत में उसमें छेद हो जाएगा और फिर बर्तन किसी काम का नहीं रहेगा... या मेरा जीवन उस कपड़े की तरह हो गया था, जिसे साफ करने के चक्कर में बार-बार धोया जाता है और अंत में उस कपड़े को फटना ही होता है। कई बातें उन दिनों मेरे दिमाग में चलनी शुरू हो गई थीं।

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