Sumandar aur safed gulaab - 1 - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 1 - 3

समंदर और सफेद गुलाब

3

मैं सोया तो था ही नहीं...मेरे मन में आया कि आंखें खोलूं और देखूं कि मुंबई आने में कितना समय बाकी रह गया है। मैंने धीरे से आंखे खोलीं और अपनी घड़ी की ओर देखा। मैंने पाया कि अभी लगभग आधा घंटा और पड़ा है। मैंने फिर से आंखें बंद कर लीं। मैं फिर से यादों के समंदर में तैरने लगा।

*****

मुझे याद आई वो घटना जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान की लड़ाई शुरू हुई थी। शायद 1971 की बात है। तब मैं था तो छोटा ही लेकिन इतना भी नहीं था। इसके बावजूद भी मुझे बापू के सामने जाकर भीगी बिल्ली बनकर ही बैठना पड़ता। उन दिनों रात को ब्लैक आऊट हो जाती थी। हमने अपने छोटे से घर के कमरों में रौशनदानों के बाहर गत्ते काटकर लगा दिए थे ताकि रौशनी बाहर न जा सके। इसी चक्कर में बापू मुझेे सुबह चार बजे उठा देता और लैम्प जला देता। बस फिर वही होता जो पहले होता रहा। बापू की कडक़ती आवाज मेरे कानों को चीरती, ‘चलो जल्दी उठो.. बस्ता लेकर मेरे पास आ जाओ।’

फिर वही पहले वाला इतिहास दोहराया जाता। मैं उसी लैंप की रौशनी में पढऩे लगता। अगर गलती से भी मिट्टी का तेल कम होने के कारण लैम्प की रौशनी कम होने लगती तो उसी वक्त छित्तर परेड होने लगती। सन्नाटे के निस्तब्ध मौन को चीरती हुई आवाज मेरे कानों में ऐसे पड़ती, जैसे किसी ने कानों में गर्म लोहा पिघलाकर डाल दिया हो, ‘तुम्हें कितनी बार समझाया है कि रात को सोने से पहले लैम्प में तेल चेक करके सोया कर..... लेकिन तुम किसी चिकने घड़े से कम थोड़ा ही हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारा बाप बकवास करता है, करने दो। बोल-बाल के चुप हो जाएगा, इसलिए एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो।’ कहते-कहते बापू सुबह सवेरे ही हांफने लगता। उन दिनों मेरे अंदर भी रोष आना शुरू हो ही चुका था। मैं मुंह से तो कुछ न बोलता लेकिन मेरे अंदर सवालों की झड़ी सावन की झड़ी के समान लग जाती।

कई बार मेरा मन करता कि बापू के सामने डटकर खड़ा हो जाऊं और विरोध करूं लेकिन मेरी हिम्मत जवाब दे जाती। मैं डर जाता... कहीं गालियां और डंडे एक साथ न बरसने लगें।

बापू के दिमाग में एक ही धुन थी कि उसका बेटा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने और लोग कहें कि ‘वो देखो मास्टर के बेटे ने अपने पिता का नाम रोशन कर दिया।’ लेकिन हर काम का कोई ढंग तरीका भी होना चाहिए।

मेरे अंदर ही अंदर गुस्सा धधकने लगा था, लेकिन मैं उस गुस्से को पीता रहता। ऐसे ही समय गुजर रहा था। उन दिनों आठवीं, नौवीं और दसवीं की कक्षा बोर्ड की थी और स्कूल घर से थोड़ा दूर था। उन दिनों कुछ नये दोस्त बने, जिनसे मिलकर स्कूल से बंक मारना शुरू कर दिया था। कई दिन लगातार स्कूल नहीं गया था। स्कूल से मेरा नाम कट गया था।

एक दिन, एक चिट्ठी डाकिया घर फैंक गया। उस चिट्ठी में लिखा था कि ‘आपका बेटा कई दिनों स्कूल नहीं आ रहा है, इसलिए हमने उसका नाम स्कूल से काट दिया है।’

वह चिट्ठी मां ने संभालकर रख ली। मां ने मुझेे भी इसकी भनक तक नहीं लगने दी। शाम को जैसे ही बापू ने स्कूल से आकर अपनी साइकिल अंदर लगाई, तो मां ने पानी का गिलास पिलाते ही बापू के हाथ में वह चिट्ठी थमाते हुए कहा, ‘देख लो, अपने बेटे की करतूत। इसने क्या नाम रोशन करना है? यह तो बना हुआ नाम भी डुबोने पर तुला है।’

मां को मैंने पहली बार इतने गुस्से में देखा था। बापू ने दोनों हाथों से अपने चश्मे को ठीक किया और चिट्ठी पढऩे लगा। पढ़ते-पढ़ते ही बापू आग बबूला होने लगा। जैसे-जैसे पढ़ रहा था, उसकी भृकुटि तन रही थी।

क्रोध में आग बबूला बापू गरजा, ‘मास्टर का बेटा और यह करतूत।’

बापू ने झोले से डंडा निकाला और फिर मेरे शरीर के किस-किस हिस्से पर पड़ा, यह बताना आज भी मुश्किल है। उस दिन मां भी एक कोने में खड़ी तमाशा देखती रही। उस दिन आंसू पोंछने के लिए भी कोई नहीं था।

उस दिन मुझेे ऐसा भी महसूस हुआ कि क्या यह मेरे ही मां-बाप हैं? उस रात मैं सो नहीं पाया था। कई सवाल मेरे मन में आते जा रहे थे। लेकिन बापू रात भर खर्राटे मारता रहा।

अगले दिन बापू स्कूल गया और नाम फिर से दाखिल करवा आया। मेरे अंदर चिंगारियां धधक रही थीं लेकिन मैं इन बातों से बेखबर था। मुझेे इस बात का पता उसी दिन चला कि वो चिंगारियां धधक-धधककर शोला बन चुकी थी। मैंने मन में ठान ही लिया था कि अब मैंने पढऩा ही नहीं।

यह तब की बात है, जब मैं ग्यारहवीं में था। उस दिन बापू ने किसी बात पर मुझे बेतहाशा मारना शुरू कर दिया। मेरे अंदर पता नहीं कहां से हिम्मत आ गई और मैंने खुद पर बरस रहे डंडे को कसकर हाथ से पकड़ लिया।

बापू ने लाख कोशिश की उस डंडे को छुड़वाने की लेकिन मेरी मजबूत पकड़ के चलते बापू की एक न चली। अब तो बापू का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। बापू ने डंडा छोड़ा और मेरे गाल पर दनादन थप्पड़ मारने शुरू कर दिए। डंडा मेरे हाथ में लहरा रहा था। फिर पता नहीं कहां से हिम्मत आ गई और मैंने खुद को थप्पड़ों से बचाने के लिए उस डंडे को गाल के सामने कर दिया।

बापू का जोरदार हाथ अब की बार डंडे पर जा पड़ा। डंडे पर हाथ पड़ते ही बापू दर्द से बिलबिलाते हुए जोर से चिल्लाया और अपने हाथ को दूसरे हाथ से पकड़ लिया। मां भी रसोई से भागी-भागी आई और बापू के हाथ को देखने लगी। हाथ पर मुंह से फूंक मारने लगी और मुझेे दुनियाभर की गालियां देने लगी। मैं मन में सोचनेे लगा कि मैं सारी जिंदगी पिटता रहा, किसी ने उफ्फ तक नहीं की लेकिन मैंने अभी कुछ किया भी नहीं और मुझेे गालियां पड़ रही हैं।

मैंने उस दिन मां से कहा भी था, ‘सच में मां मैंने कुछ नहीं किया। हां... अगर कुछ किया, तो वो केवल अपना बचाव, वो भी अपनी रक्षा के लिए। ...तो फिर आज सबकी जान हथेली पर क्यों आ गई?’

‘बकवास न कर। हमने तुम्हें जन्म दिया है, तुमने हमें नहीं।’ मां ने गुस्से में कहा।

उस दिन मेरी गूंगी जुबान को पता नहीं कहां से शब्द मिल गए। मैंने उसी जुबान में हिम्मत भरते हुए मां से कहा, ‘जानता हूं, आपने जन्म दिया है। बस मुझेे केवल इतना बताओ कि मुझेे कब तक इसका कर्ज चुकाना है? ...और बुत बनकर आपके अत्याचार सहते जाना है?’

मेरी बात सुनकर बापू बोला, ‘चुपकर दयावंती इस हरामखोर को अपने आप पर छोड़ दे। मैंने फैसला कर लिया है कि आज के बाद मैं इसे सुधारने की कोई कोशिश नहीं करूंगा। मैं नहीं मारूंगा इसे आज के बाद, यह मेरा वचन है। जो इसके मन में आए कर ले, मुझेे कोई एतराज नहीं है। मैं हमेशा कहता था कि ‘बिगडिय़ां-तिगडिय़ां दा डंडा पीर ए’ लेकिन जा, तुझे इस डंडे से आज से आजाद किया। जा, जो तेरे मन में आए कर।’ इतना कहने के बाद मां-बापू कमरे में चले गए थे।

मैं वहीं खड़ा सोच रहा था। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी। उस दिन मैंने केवल विद्रोह किया था। उस विद्रोह ने मेरी जिंदगी बदलकर रख दी थी। मार से मुक्ति मिल गई थी। कई दिन घर में मौन पसरा रहा था। मां रोटी बनाकर रख देती और मैं रसोई में जाकर थाली में डालकर खा लेता। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं का रिजल्ट आया तो मैं फेल हो गया।

उस दिन बापू कुछ नहीं बोला। मुझेे उम्मीद थी कि बापू खूब भड़ास निकालेगा लेकिन उसे मौन देखकर मैं खुद हैरान था। लेकिन कहते हैं न कि ‘मौन की भी एक भाषा होती है।’ मैं बापू की उस भाषा को समझ रहा था। उस दिन रात को मैं अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था तो बापू मेरे पास आया।

मैं बापू को अपने पास आया देखकर हैरान हो गया। बापू मेरे पास बैठ गया और कहने लगा, ‘बेटा तू अपनी मर्जी से जो चाहे कर ले, हमें कोई एतराज नहीं है। लेकिन फिल्मों में जाने की बात मत करना। पढ़-लिखकर कुछ बन जा, फिर तुम्हारी जो मर्जी हो कर लेना। मैं जो कुछ भी करता रहा, तुम्हारी भलाई के लिए ही करता रहा।’

आज बापू का स्वर बहुत धीमा था। लग ही नहीं रहा था कि यह बापू की अपनी आवाज है। बापू ने कहना जारी रखा, ‘हो सकता है, मेरा तरीका गलत रहा होगा। मैं समझता हूं कि जब बाप का जूता बेटे के पांव में आ जाए, तो उस पर हाथ नहीं उठाना चाहिए।’ कहते-कहते बापू सिसक-सिसककर रोने लगा था। उस दिन बापू पर मुझेे बहुत दया आई और मैं अपने आप को कसूरवार समझने लगा। मैंने अपने हाथ से बापू की आंखों पर से उसकी ऐनक उतारी और उसके चेहरे को अपने हाथों से साफ करने लगा।

उस दिन मुझेे लगा कि बाप-बेटे में कोई रिश्ता तो है, जो मुझेे ऐसा करने पर मजबूर कर रहा है। उस दिन बापू के प्रति मेरा मन नतमस्तक हो गया। तब मुझेे यह भी आभास हुआ कि मेरा विद्रोह करना ठीक था लेकिन शायद तरीका ठीक नहीं था। आज मुझेे अपने किए पर पछतावा होने लगा था।

खैर... उस दिन से बापू ने मेरे साथ दोस्तों जैसा व्यवहार करना शुरू कर दिया था। रिश्तों के इस उतार-चढ़ाव ने जीवन में भी परिवर्तन ला दिया था। अब मैं बापू से अपने दिल की हर बात सांझी कर लेता था। फिर ऐसे ही समय गुजरने लगा। अगले साल मैंने ग्यारहवीं में खूब मेहनत की और अच्छे अंक लेकर पास हुआ। इसके चलते मुझेे बी.ए.एम.एस. करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

उस साल बापू ने मेरी बहुत मदद की थी, जिसके चलते आज मैं डॉक्टर हूं और अपनी रोटी-रोजी सुखपूर्वक चला रहा हूं। विद्रोह वाली बात सोचता हूं तो लगता है कि शायद मैं पितृ ऋण से कभी मुक्त न हो पाऊं! जब बी.ए.एम.एस. में मेरे आखिरी साल का रिजल्ट आया तो बापू इतना खुश था, जिसे बयान करना मुश्किल है। बापू ने अपनी साइकिल उठाई और हलवाई की दुकान से अपने थैले में लड्डू भर लाया। चार-चार लड्डू आस-पड़ोस के घरों में भेज दिए। जान-पहचान वालों के घर मुझे साथ लेकर लड्डू देने गया था। लड्डू देते हुए फख्र से कहता, ‘मेरा बेटा डॉक्टर बन गया है।’ शायद बापू की खुशियों को नजर लग गई थी। मेरी शादी से पहले ही बापू हार्ट अटैक के चलते पंचतत्व में विलीन हो गया।

सोचते-सोचते मेरा मन घबराने लगा और मैंने आंखें खोल दीं। घड़ी पर नजर डाली तो पाया कि जहाज अब जल्द ही मुम्बई पहुंचने वाला है। एनाऊंसमैंट फिर से शुरू हो गई, ‘कृपया बैल्ट बांध लें, हम लोग जल्द ही मुम्बई पहुंचने वाले हैं। हमारे साथ यात्रा करने के लिए आपका धन्यवाद।’

और भी कई घोषणाएं होती रहीं, मैंने ध्यान नहीं दिया। सब लोगों में हिलजुल शुरू हो गई थी। सब अपना-अपना सामान इकट्ठा करने में जुट गए। देखते ही देखते जहाज टर्मिनल पर जा लगा। मैं भी जहाज से बाहर जाने के लिए पंक्ति में खड़ा हो गया और धीरे-धीरे बाहर जाने लगा।

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बाहर आया तो अनिल लेने के लिए आया हुआ था। हम लोग गर्मजोशी से मिले। औपचारिक खैरियत पूछने के बाद हम लोगों ने टैक्सी ली और घर की तरफ रवाना हो गए।

घर पहुंचकर सब लोगों से मिला। अनिल ने सबसे मेरा परिचय करवाया।

एक व्यक्ति से मिलवाते हुए अनिल ने कहा, ‘यह प्रोफैसर पांडेय हैं। इन्होंने मनोविज्ञान में पी.एच.डी. की हुई है और इमोशनल इंटेलीजैंस पर इनकी खास पकड़ है। वैसे तो मूल रूप से ग्वालियर के रहने वाले हैं लेकिन नौकरी के चक्कर में यहां आए हुए हैं। आपको तो पता ही है कि रोजी-रोटी के लिए इन्सान कहां-कहां नहीं भटकता।’

मैंने उनसे हाथ मिलाया तो अनिल ने कहा, ‘ प्रोफैसर साहब मानव जी के कमरे में पेइंग गैस्ट हैं।’

उसकी बात सुनकर मेरे मन में ख्याल आया

‘नक्क नत्थ खसम हत्थ

रिजक धक्के दे

जहां दाणे वहां खाणे

नानका सच्च एह।’

मैंने हैरानी से कहा, ‘पेइंग गैस्ट...? कृष्ण जी तो खुद ही किराए पर रहते हैं। ये किराए के कमरे में ही पेइंग गैस्ट का क्या माजरा है?’

अनिल ने झट से कहा, ‘यह मुम्बइया अंदाज है आकाश जी। यहां पर ग्यारह महीने की एडवांस सिक्योरिटी राशि देनी पड़ती है। जो सिक्योरिटी देता है, उसका यह हक बनता है कि अपनी सुविधा अनुसार वह एक या दो पी.जी. रख सकता है।’

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