Sumandar aur safed gulaab - 2 - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 2 - 6

समंदर और सफेद गुलाब

6

बंदर ने कहा, ‘क्यों क्या हो गया..मेरी बीवी है, साथ लाया हूं साथ लेकर जाऊंगा।’

मगरमच्छ ने बड़े प्यार से कहा, ‘यह तो मेरी बीवी है।’

बस फिर क्या था, बात बढ़ गई और समंदर के छोटे-बड़े सब जानवर इकट्ठा हो गए... लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई जो कह सके, कि यह बंदर की बीवी है। सबने कहा, ‘मगरमच्छ ठीक कह रहा है।’

कहकर सब लोग अपने-अपने स्थान को लौट गए। जब सब लोग चले गए तो मगरमच्छ ने बंदर से कहा, ‘ले जाओ अपनी बीवी को। असल में है तो यह तुम्हारी ही बीवी लेकिन समंदर में रहते हुए, मगरमच्छ से बैर कोई नहीं ले सकता। यह समंदर है, यहां दूर-दूर तक मेरा साम्राज्य है। मैं जो चाहूंगा, वही करूंगा।’

कहानी सुनकर हम हंसने लगे।

अनिल बोल पड़ा, ‘अरे भई...! यह कहानी मैंने इसलिए सुनाई है क्योंकि इस इंडस्ट्री में भी कुछ मगरमच्छ हैं। जो वो चाहते हैं, वही होता है। मजाल है कि उनकी मर्जी के बिना यहां परिंदा भी पर मार जाए। मेरा ख्याल है, कोई दस लोग होंगे इस इंडस्ट्री में घूम-फिरकर आखिर में पैसा उन्हीं की जेब में आ जाता है और वही राज कर रहे हैं किसी मगरमच्छ की तरह... और बाकी तो सफेद गुलाब बनकर जीने के लिए मजबूर हैं।’

‘वाह! क्या शानदार अंत किया है कहानी का अनिल जी।’ मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा।

मैंने साथ ही कहा, ‘एक कहानी छोटी-सी मुझेे भी याद आ गई। समंदर एक बार नदिया से पूछता है कि जब तुम मुझमें समाती हो, तो तुम कितना कुछ अपने साथ बहाकर ले आती हो। जब अपने पूरे उफान पर होती हो तो ऊंची-ऊंची इमारतों को भी जमींदोज कर देती हो, यहां तक कि वर्षों पुराने दरख्त भी अपने साथ ही उखाडक़र बहा ले आती हो। तबाही के मंजर जगह-जगह देखे जा सकते हैं, लेकिन तुम अपने साथ कभी बांस लेकर नहीं आती।’

नदी बड़ी विनम्रता से कहती है, ‘बात तो आपकी ठीक है, लेकिन जब भी मैं वहां से गुजरती हूं तो बांस इस कदर धरती पर लेट जाता है कि मैं उसके ऊपर से निकल आती हूं। इसीलिए मैं बड़े-बड़े पहाड़ तो अपने साथ ले आती हूं लेकिन बांस को लाना मेरे वश में नहीं है।’

समंदर चुपचुप नदी की बात सुनता है और कहता है, ‘बात तो तुम बिल्कुल सही कह रही हो। फलैक्सीबिलिटी में भी बड़ी ताकत है। जिसमें फ्लैक्सीबिलिटी रहती है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता... और जो अकड़ा रहता है उसे कोई बचा नहीं सकता।’

यह कहानी सुनाने के बाद मैंने कहा, ‘दोस्तो... जीवन का भी यही नियम है। जब तक आपके शरीर में फ्लैक्सीबिलिटी है, तब तक सब सही है। लेकिन जैसे ही रिजिडिटी आती है, आदमी खत्म होना शुरू हो जाता है। झुके हुए पेड़ पर ही फल लगते हैं। जो जहां झुकता है, उसे वहीं पर फल लगने शुरू हो जाते हैं। आम नीचे झुका तो नीचे ही फल लग गए। अमरूद भी नीचे ही झुक जाता है तो फल लगने शुरू हो जाते हैं। पपीता और नारियल कितना ऊपर जाकर झुकते हैं, उन्हें ऊपर ही फल लगते हैं। सफेदा झुकता ही नहीं, तो उसे फल ही नहीं लगते। यही जिंदगी का फंडा है। मेरा मतलब है, जो कुदरत का फलसफा है वही जिंदगी का फलसफा है, लेकिन हम लोग जान नहीं पाते।’

मेरी बात सुनकर पांडेय ने मोर्चा संभाला और कहा, ‘आकाश जी... कहानी तो यह भी मस्त है लेकिन हम लोगों को कुदरत ने जो कुछ दिया है, उसका शुक्र अदा नहीं करते। बल्कि जो कुछ नहीं मिला, उसके पीछे भागते रहते हैं।

कहते हैं न.. कस्तूरी मृग के अंदर होती है लेकिन वह सारी उम्र जंगलों में भटकता रहता है, उसे खोजने के लिए। ऐसे ही इंसान को बहुत कुछ दिया है कुदरत ने लेकिन कोई फायदा नहीं। खैर छोड़ो... बातें लंबी हो जाएंगी। वापस भी जाना है। फेयरी निकल गई तो समझो दो-तीन घंटे बर्बाद हो जाएंगे।’

हम लोग कैंटीन वाले को पैसे देकर जल्दी से फेयरी की तरफ बढऩे लगे थे। वहां पर हमने देखा कि लोग फेयरी की तरफ बढ़ रहे हैं। हम लोग भी फेयरी की तरफ बढऩे लगे। खाली जगह देखकर बैठ गए। लोग अभी आ रहे थे। थोड़ा-थोड़ा अंधेरा हो चुका था। फेयरी की बत्तियां जला दी गई थीं। कुछ ही देर में फेयरी अपने गंतव्य की ओर बढऩे लगी। अद्भुत नजारा था।

कुछ ही समय गुजरा था कि अंधेरा समंदर के चारों ओर पसर गया था। समंदर की तरफ देखकर तो डर भी लग रहा था। लेकिन फेयरी में लोकल लोग तो ऐसे सफर कर रहे थे, जैसे हम लोग लोकल बस में सफर करते हैं। कुछ लोग खा-पी भी रहे थे। कुछ प्रेमी जोड़े आपस में बातें करने में तल्लीन थे। वह इस बात से बेखबर थे कि कोई उन्हें देख रहा है। जब आया था, तो मेरे मन में फोटो लेने का कोई विचार नहीं आया था लेकिन अब पता नहीं क्यों, मुझेे लगा कि कुछ फोटो तो जरूर लेनी ही चाहिए। अनिल का कोई इंटरेस्ट नहीं था। पांडेय और मैं फोटो लेने लगे। हमने छोटी-छोटी वीडियो•ा भी बनाईं।

अनिल को हमने कहा, ‘चलिए हमारी कुछ फोटो इकट्ठी खींच दीजिए।’

पांडेय ने कहा, ‘चलिए सैल्फी लेते हैं।’

सैल्फी का नाम आते ही मेरे मन में एक डर पैदा हो गया।

‘न बाबा न।’ मैंने तुरंत कहा, ‘अरे कहीं इधर-उधर हो गए तो सीधा समंदर में जा गिरेंगे और बचाने वाला भी कोई नहीं आएगा।’

खैर, हमने किसी से गुजारिश की कि हमारी तीनों की फोटो खींच दो तो उस भाई साहब ने तीन-चार फोटो खींच दीं। पांडेय जी ने अपना गूगल मैप खोला हुआ था और बता रहे थे कि अब हम लोग समंदर के इस एरिया से गुजर रहे हैं। ‘देखिए डाक्टर साहब, इस वक्त हम लोग यहां पर हैं। यह रूट इधर से घूमकर जाएगा। उनका कोई भी रूट मेरी समझ में नहीं आ रहा था लेकिन उनकी हां में हां मैंने मिला दी थी। मेरे फोन में भी जियो का 4-जी फ्री नैट चल रहा था। मैंने भी कुछ फोटो फेयरी की और कुछ पैगोडा की फेसबुक पर अपलोड कर दीं। अभी अपलोड करते हुए कुछ ही समय गुजरा था। देखा तो दोस्तों के कॉमैंट भी आना शुरू हो गए थे। मैं उन्हें देखने में मग्न हो गया। समय कैसेे बीता, पता ही नहीं चला क्योंकि फेयरी अपने गंतव्य तक पहुंच चुकी थी, अर्थात् हम लोग जिस बीच से चले थे, उसी बीच पर वापस लौट आए थे। रुकते ही फेयरी में यात्रा कर रहे कुछ लोगों ने लंबा लकड़ी का फट्टा फेयरी के आगे रख दिया था। उससे होते हुए लोग नीचे जाने लगे थे। मैंने देखा, वहां तो पानी था। कुछ लोगों ने अपनी पैंट को नीचे से फोल्ड करके चप्पलें हाथ में पकड़ रखी थीं और बड़ी आसानी से उतर रहे थे। कुछ लोग वहां जाकर लंबी छलांग लगा रहे थे। मैंने सब कुछ देखते हुए अनिल से कहा, ‘अनिल जी, मैं तो ऐसे नहीं उतर पाऊंगा। कैप्टन को बोलो न, थोड़ा-सा आगे कर दे वर्ना जूतों के अंदर तक पानी चला जाएगा।’

मेरी बात सुनकर अनिल कैप्टन के पास गया और कहा कि ‘इन्हें थोड़ी प्राब्लम है, आप फेयरी थोड़ा आगे कर दें। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।’

वह मान गया और बोला, ‘लोगों को उतरने दो, कर देता हूं।’

हम लोग किनारे पर खड़े हो गए और लोगों को उतरते हुए देखने लगे। जैसे ही लोग उतरे, कैप्टन ने उस फट्टे को पीछे करवाया और फेयरी को आगे की तरफ बढ़ा दिया। मैंने महसूस किया कि फेयरी का जैसे ज्यादा जोर लगा हो, क्योंकि वहां पर पानी था ही नहीं। उसका अगला किनारा लगभग रेत के ऊपर था। वहां लगाकर उसके आदमी ने फट्टा फिर से वहीं रख दिया। अब वह फट्टा पानी को पार करवाने में पूरी तरह से सक्षम था। हम लोग धीरे-धीरे फट्टे पर चलते हुए नीचे आ गए। मैंने पाया कि रेत गीली है।

हमारे साथ-साथ फेयरी का एक बंदा भी चल रहा था और हमें हिदायत दे रहा था कि ‘इस तरफ से चलें... इसके ऊपर से मत जाना।’

यह सारा नजारा देखने लायक था। मैंने दोनों से कहा, ‘भाई जी तेज मत चलना, मेरे साथ साथ ही रहना।’

पांडेय ने सुनते ही कहा, ‘अरे आकाश जी.. चिंता न करें। हम आपके साथ-साथ ही हैं।’

चलते-चलते पांडेय ने कहा, ‘अरे आकाश जी...! आपने एक चीज नोट की? जब हम गए थे, यहां पर पानी था और फेयरी तो इससे भी कहीं आगे आकर लगी थी। पानी काफी नीचे उतर गया लगता है। जब हम गए थे तो हमें इतना गीली रेत पर चलना भी नहीं पड़ा था। पानी बहुत नीचे चला गया लगता है?’

मैंने हैरानी से कहा, ‘पानी इतना नीचे चला जाता है रात को?’

मेरी बात सुनकर जो आदमी हमारे साथ चल रहा था उसने कहा, ‘ऐसा रोज नहीं होता लेकिन महीने में चार-पांच दिन होता है... और हमें इसकी पहले से ही खबर रहती है। इसीलिए तो चल रहा हूं, आप लोगों के साथ। कहीं रास्ता ही न भटक जाओ, किसी रेतीली जगह में फंस ही न जाएं और हां... सामने सरकारी दफ्तर है, जिस तरफ जाना मना है।’

हम लोग धीरे-धीरे चलते हुए उस जगह तक पहुंचे जहां से सूखी रेत शुरू होती है। अब यहां से चलना मुश्किल था क्योंकि रेत जूतों में पडऩे के चक्कर में मैं जाते समय भी धीरे-धीरे चला था और अब भी यही हाल था। खैर, हम लोग सडक़ तक आ गए। वहां पर एक ठेली से कुछ भुट्टे खरीद लिए और चलते-चलते खाने लगे।

अनिल ने कहा, ‘मुझेे इतने साल मुंबई में रहते हुए हो गए लेकिन इस कदर समंदर को नीचे उतरते हुए नहीं देखा।’

‘अरे डाक्टर साहब, आप लक्की हैं। कुदरत ने आपको एक ही दिन में मुंबई के कितने रंग दिखा दिए। जो रंग लोग सालों तक नहीं देख पाते। आपने तो एक ही दिन में देख लिए।’

पांडेय जी ने बात सुनते ही कहा, ‘असल में जब पूर्णिमा का चांद होता है, या संक्रांति होती है, उस वक्त समंदर नीचे की और चला जाता है और अपने पहले वाले किनारे छोडक़र नए किनारे बना लेता है। ये समंदर है भाई, इसे देख सकते हैं, इसके बारे में बातें कर सकते हैं लेकिन इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। इसका कारण क्या हो सकता है कि जब सुनामी आती है तो किसी को पता नहीं चलता, इसका पूर्वाभास तक नहीं होता। इसीलिए गुरु नानक देव जी ने अपनी वाणी में लिखा है ‘समुंद सा सुल्तान।’

अनिल भी बीच में ही बोल पड़ा, ‘वैसे मुझेे तो यह समंदर भी मायानगरी के समान ही लगता है, पता नहीं इस पर मायानगरी का असर हुआ है या मायानगरी पर इसका असर।’

हंसते-हंसते कहने लगा, ‘भई कहना मुश्किल है। इस पहेली को कोई नहीं सुलझा सकता। यह अनबूझ है। मैंने कहीं सुना है कि हम जब दोबारा किसी नदी के पास जाते हैं, जिसके पास हम पहले भी जा चुके हों तो दोबारा न तो पानी वह होता है और न ही वो इंसान। यानी दोनों के दोनों ही बदल चुके होते हैं। फिर यह तो समंदर है भाई।’

हम लोग बातें कर रहे थे और पैदल ही चल रहे थे क्योंकि अनिल ने कहा, ‘आराम से भुट्टा खाते हुए ही चलेंगे। ऑटो तो चाहे कहीं से भी पकड़ लो।’ मैंने देखा कई लोग हाथों में हाथ डालकर चल रहे थे तो कई किनारों पर ही एक-दूसरे के साथ लिपट-चिपटकर बैठे हुए थे। बेपरवाह...बेखौफ...बेलगाम... जिन्हें पूछने वाला कोई नहीं।

मैं हैरानी से उन लोगों को देखने लगा।

मेरी समस्या अनिल समझ गया और बोला, ‘अरे भई, मैं कई बार कह चुका हूं कि यह मायानगरी है, ऐसे घूर-घूरकर उन लोगों की तरफ मत देखो। कहीं ऐसा न हो कि कोई आपके गले आकर पड़ जाए और झगड़ा करने लगे।’

कहते-कहते वह चुप हो गया लेकिन फिर बोला, ‘यही अंतर है महानगरों और नगरों की जिंदगियों में। महानगरों खासतौर पर मुंबई में तो लोग टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी जीते हैं, और आप लोग उस बांस की तरह ही हैं जो अपनी जान बचाने के लिए अपना परिवार बचाने के लिए नीचे तक झुक जाता है। अरे भई, इस शहर में तो संभव ही नहीं है। आपके शहरों में लोग जड़ से नहीं उखड़ते लेकिन इस शहर की समस्या यही है कि यहां पर जड़ ही नहीं है। पर एक बात है आकाश जी... यहां पर जो मराठी लोग हैं, वे लोग उन लोगों से बिल्कुल भिन्न हैं जो बाहर से किसी भी कारण आकर बसे हों खासतौर पर फिल्म इंडस्ट्री के लोग। क्या श्रद्धा है उन लोगों में। पाठ-पूजा इतनी करते हैं कि पूछो मत। गणेश चतुर्थी और नवरात्र पर यहां जो माहौल होता है, वह किसी उत्सव से कम नहीं होता। ऐसे लगता है कि जैसे मेले में मेला लग गया हो।’

इससे पहले कि मैं ‘मेले में मेला’ शब्द का अर्थ पूछता, उसने खुद ही कह दिया, ‘मेले में मेला इसलिए कहा कि मेला तो यहां हर वक्त लगा रहता है लेकिन उन दिनों जो भीड़ होती है, उसे देखकर तो ऐसा लगता ही नहीं कि मुंबई में इतनी जनता रहती है। पता नहीं लोग कहां कहां से मुंबई में आ जाते हैं। पूरी मुंबई श्रद्धा में डूब जाती है। वैसे भी ये दिन न भी हों तो पूरी मुंबई घूमकर देख लें, जो लोग मराठी हैं, उनके घरों में शाम को घंटियों की आवाज जरूर सुनाई देती है। कहीं आने-जाने से पहले भगवान को माथा टेकना नहीं भूलते। अब समंदर का किनारा है, भांति-भांति के फूल उसके चारों ओर खिल चुके हैं। उन्हें खिलने से भी कोई नहीं रोक सकता। लेकिन जहां तक मेरी नजर जाती है, मुझेे सफेद गुलाब ज्यादा नजर आते हैं।

चलते-चलते पांडेय जी ने घड़ी की तरफ देखते हुए कहा, ‘अब ऑटो पकड़ लें। वो बुढ़ऊ इंतजार कर रहा होगा और देर से गए, तो रोटी से हाथ धोना पड़ेगा।

‘चिंता न करें प्रोफैसर साहब।’ अनिल ने फौरन जवाब दिया।

‘वो आकाश जी के यहां आने से काफी खुश हैं। कई दिन से यही गीत गा रहे थे कि ‘आकाश आएगा, तो उसे मैं अपने पास ही रखूंगा और उसे जो नया कंबल और चादर बैड के बाक्स में पड़ी है, वही निकालकर दे दूंगा। और हां... उस बुढ़ऊ ने वो कपड़े-बिस्तर आदि कभी किसी को नहीं दिए। कोई रिश्तेदार आ जाए, उसे भी नहीं... और मैंने किसी के आने पर उन्हें इतना उत्साहित होते हुए भी नहीं देखा।’

मैंने बात सुनते ही कहा, ‘होगा कोई पिछले जन्म का लेखा-जोखा। वैसे मेरी मुलाकात अनिल जी ने ही करवाई थी। एक बार हमारे घर आए थे जालंधर।’

जैसे ही मैंने यह बात कही तो अनिल जी फौरन बोले, ‘यही बात है आकाश जी, आपने उन्हें जो इज्जत दी थी, उसी के कायल हैं आज भी। बार-बार कहते हैं ‘यार उनके घर के सभी लोग बहुत अच्छे हैं। उनकी पत्नी और बेटे भी इतने संस्कारी हैं कि सबने बारी-बारी मेरे पांव को हाथ लगाकर स्वागत भी किया और विदा भी। वर्ना किसी ने इतनी इज्जत से पांव को हाथ लगाए हों, वो दिन मुझेे कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आता।’

मैंने कहा, ‘ऐसा तो कुछ नहीं है। जितना भी हो सका हमने किया। कुल दो ही दिन तो रहे थे और दो दिन में कोई किसी की क्या सेवा कर सकता है। वो कहावत सुनी है कि ‘मछली और मेहमान तीसरे दिन बास मारने लगते हैं।’ आपने तीसरा दिन दिया ही नहीं, पहले ही निकल आए।’ कहते-कहते मैं हंसने लगा।

‘आप जो भी कहो आकाश जी, अब जो भी है आपके सामने है। उन्होंने रोटी-सब्जी बनाकर रखी होगी सबके लिए। हमारा इंतजार कर रहे होंगे।’ अभी अनिल ने इतनी बात की ही थी तो उसके मोबाइल फोन की घंटी बजी और देखा तो उन्हीं का फोन था।

उधर से आवाज आई, ‘अरे भई, घर लौटने का इरादा है कि नहीं।’

‘बस लौट रहे हैं।’ अनिल ने तुरंत कहा।

‘ठीक है, जल्दी लौटिए। मैं खाने पर आपका इंतजार कर रहा हूं।’

अनिल ने कहा, ‘वही बात हुई न..जो हम लोग कह रहे थे।’

*****

रात को अभी हम सोने के बारे में सोच ही रहे थे कि डोरबैल बजी। अनिल ने दरवाजा खोला और किसी को देखते ही उसने कहा, ‘बेदी साहब आप..आओ बैठो।’

मेरी तरफ इशारा करके कहने लगा, ‘डा. साहब...यह बेदी साहब हैं। लुधियाना से हैं और यहां एक बैंक में नौकरी करते हैं। यह अक्सर बताते हैं कि इनके पापा का एक मामा यहां फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल करने आया था और यहीं का होकर रह गया।’

उसकी बात सुनकर मेरी उत्सुकता बढ़ गई और मैंने झट से पूछा, ‘वो कैसे?’

मेरी तरफ इशारा करते हुए अनिल ने कहा, ‘बेदी साहब, वो कहानी एक बार डाक्टर साहब को जरूर सुनाओ।’

पहले तो वह थोड़ा हिचकिचाया और फिर बोला, ‘असल में मेरे बापू की काफी उम्र हो गई है। दादी भी नब्बे से ऊपर की हो गई है। मेरा बापू मेरी दादी से अक्सर यह कहता था कि ‘मां वह वाली कहानी सुनाओ न जब पिता जी ने मामा की सगाई तय कर दी थी।’ बापू की बात सुनकर दादी हंसने लगती और कहती, ‘अच्छा बताती हूं। बात यह है कि एक बार तुम्हारे बापू ने तेरे मामा की कहीं सगाई पक्की कर दी। उस वक्त ज्यादा देखने-दिखाने का प्रचलन नहीं था। तेरे बापू के साथ लडक़ी वालों ने बात चलाई और तेरे बापू को लडक़ी पसंद आ गई और इन्होंने जगीर सिंह के लिए हां कर दी। इनके हां करने की देर थी उधर लडक़ी वालों ने एक डिब्बा लड्डुओं का और सवा रुपये शगुन के तौर पर तुम्हारे बापू को पकड़ा दिए। तुम्हारे बाप ने घर आकर सारी बात बताई तो तेरे मामा जागीर सिंह की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं रहा। उसने अपनी साइकिल उठाई, पगड़ी बांधी और दाढ़ी को फिक्सो लगाने के बाद अपने आप को आइने में देख-देखकर खुश हो रहा था। दोपहर के बाद शाम का समय था। उसकी मौसी के लडक़े यानी कि मेरी बहन के दो लडक़े कुछ ही दूरी पर रहते थे। जागीर सिंह घंटी बजाता हुआ उनके घर पहुंच गया और मूछों को ताव देकर अपनी सगाई वाली बात बताने लगा लेकिन जागीर सिंह की बात सुनकर वे दोनों हंसने लगे और उन्होंने मजाक करते हुए कहा, ‘ओए तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। लगता है जवानी में ही सठिया गये हो।’

उसने हैरानी से पूछा, ‘क्यों क्या बात है?’

वे दोनों व्यंग्य से बोले, ‘तू सोच अगर तुम्हारी कुड़माई हो गई होती तो घर में लाऊड स्पीकर न बजता। और तो और मोहल्ले में दो-दो लड्डू भी न बंटते?’ उन दोनों की बात सुनकर जागीर सिंह सोढ़ी उल्टे पांव वापस घर लौट आया। तुम्हारे बापू तो काम पर जा चुके थे। उसने आकर खाना नहीं खाया और अपने कमरे में जाकर सो गया। मैंने रोटी के लिए पूछा तो मना कर दिया। लेकिन उसके मुंह से शराब की गंध आ रही थी। मैंने समझा कि आज खुशी के मारे रोटी-शोटी बाहर से ही छक कर आया है। लेकिन बात उस समय गंभीर हो गई जब सुबह नाश्ते के समय भी नहीं उठा। मैंने आवाज दी तो अंदर से ही बोल दिया, ‘अभी कुछ देर में उठता हूं।’

कुछ देर बाद तुम्हारे बापू ने आवाज लगाते हुए कहा, ‘जागीर सिंहा उठ, दिन तुम्हारे सिर पर चढ़ आया है और तुम हो कि अभी तक बिस्तर पर ही लेटे हो।’

तुम्हारे बापू की बात सुनते ही उसने झट से दरवाजा खोल दिया और बाहर बरामदे में पड़ी चारपाई पर मुंह लटकाकर बैठ गया। उसकी सूरत देखकर तुम्हारे बापू को दाल में कुछ काला दिखा तो उन्होंने झट से पूछ लिया, ‘जागीर सिंहा क्या बात है, तुम्हारी सगाई हुई है, तुम्हारे पांव तो जमीं पर नहीं लगने चाहिएं उल्टा तुम मुंह लटकाकर बैठे हो।’

लेकिन तुम्हारे बापू की बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया। तुम्हारे बापू ने अपना सवाल फिर से दाग दिया। लेकिन जब फिर से वह कुछ नहीं बोला तो तुम्हारे बापू ने कहा, ‘क्या बात है जागीरे, तू इस कुड़माई से खुश नहीं है?’

अभी तुम्हारे बापू ने इतना ही बोला था कि वह जोर से बोल उठा, ‘बिल्कुल नहीं।’

तुम्हारे बापू ने पूछा, ‘क्यों?’

उसने रोष प्रकट करते हुए कहा, ‘खुशी की तो कोई बात ही नहीं है। न कोई लाऊड स्पीकर न किसी के घर में लड्डू बंटे।’ तुम्हारा बापू जागीर सिंह का रोग समझ गया। उसने कहा, ‘ऐसा करते हैं, सबके घरों में लड्डू बंटवा देते हैं और लाऊडस्पीकर वालों को बोल दो और थोड़ी देर तक बजवा लो।’ इतनी बात सुनते ही जागीर सिंह की आंखों में नशा छा गया और अपनी साइकिल पर घंटी बजाता हुआ वह गले में सैल वाला रेडियो डालकर गाने सुनता हुुआ घर से बाहर हो गया।’

‘फिर क्या हुआ?’ मैं अक्सर जिज्ञासा प्रकट करता व पूछता।

‘फिर वही हुआ, जो वह चाहता था। शाम को उसने स्पीकर पर इतनी जोर से गाना लगा दिया कि पूरा गांव उसे सुन सकता था। लेकिन कुछ घंटों बाद जब बापू ने उसे कहा, ‘जागीर सिंहा अब तो बहुत हो गया गाना-बजाना। अब इसे वापस कर आ।’

जागीर सिंह बापू की बात सुनते ही बोला,‘मैंने तब तक वापस नहीं करना है, जब तक उनके कानों के पर्दे न फट जाएं।’

बापू ने सुनते ही कहा, ‘किसके कानों के पर्दे?’

‘मौसी के लडक़ों के, कहते थे तेरी कुड़माई नहीं हुई। अगर हुई होती तो बाजा न बजता।’ इतनी बात सुनते ही हम सबको बात समझ में आ गई और उसे कहा, ‘चलो अब काफी हो गया। अब तो गांव के सभी लोगों को पता चल चुका है।’

उसने फिर कहा, ‘यह तो बजना ही चाहिए।’

उसकी बात सुनकर हम लोग मंद-मंद मुस्कुराने लगे थे लेकिन वह हमारी मुस्कुराहट को समझ रहा था और उसने आवाज और ऊंची की और मौसी के लडक़ों के घर की तरफ स्पीकर का मुंह कर दिया। सचमुच वही बात हुई जिसके बारे में जागीर सिंह ने कहा था, तुम्हारे बापू की रात की ड्यूटी थी और शाम होते ही घर से निकल जाता था। उस शाम घर से ड्यूटी पर जाने ही वाला था कि जागीर सिंह की मौसी के दोनों लडक़े आ गए और बोले, ‘इस स्पीकर को बंद करवा दीजिए हमें पता चल चुका है कि इसकी कुड़माई हो गई है।’

यह बात जागीर सिंह के कानों में पड़ी तो उसने झट से कहा, ‘जब तक तुम्हारे कानों के पर्दे न फट जाएं, यह ऐसे बजता ही रहेगा। खैर तेरे बापू ने ड्यूटी पर जाने से पहले उसे बंद करवा दिया और हम सबने चैन की सांस ली।’

यह बात तो दादी बताती थी लेकिन बापू ने बताया कि उसे फिल्म इंडस्ट्री में जाने का बड़ा शौक था। यह कीड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। असल में बापू का मामा अंग्रजों के जमाने में तहसीलदार था। उस वक्त जब बंटवारा हुआ तो फिरोजपुर में बावन एकड़ जमीन उसके हिस्से में आई। दो बहनें थीं जिनकी ठाठ-बाट से शादी कर दी गई और वह अपने घर में खुश थीं। धीरे-धीरे यह आदत बढ़ती गई और वह एक दिन मुम्बई कूच कर गया। कभी-कभार गांव आता, एक एकड़ जमीन बेचता और मुम्बई जाकर फिल्म बना लेता। जब भी गांव आता, यही कहता कि ‘मैं मुम्बई में बहुत बड़ा प्रोड्यूसर हूं, देखना एक दिन मेरा बहुत नाम होगा।’ देखते ही देखते बावन एकड़ जमीन मुम्बई की मायानगरी में भेंट हो गई। बावन एकड़ जमीन ताश के बावन पत्तों की तरह इस मायानगरी ने लील ली। आजकल मलाड में एक फ्लैट में रहते हैं जो किसी वक्त उन्होंने लिया था। वहां पी.जी. रखे हुए हैं, उनसे जो पैसा आता है, उसी से गुजारा करते हैं। बूढ़ा हो चुका है, फिर भी कहता है, देखना एक न एक दिन मैं बहुत बड़ा प्रोड्यूसर बनूंगा। यह बात मुझे इसलिए मालूम है क्योंकि कभी-कभार मैं उससे मिलने के लिए जाता हूं। उसकी बहनें भी उसे मिलने के लिए आती हैं और कहती हैं कि अब भी समय है, अपने गांव लौट जाओ लेकिन वह कहता है, कुछ भी हो जाए, लकडिय़ां मुम्बई की ही पड़ेंगी।’

यह सुनते ही मेरे मुंह से निकला, ‘सफेद गुलाब..।’

बेदी साहब ने पूछा, ‘क्या कहा..?’

तो मैंने जवाब दिया, ‘कुछ नहीं, ऐसे ही।’

बेदी साहब ने चाय पी और इजाजत लेकर अपने कमरे में चले गए।

उनके जाने के बाद मेेर मुंह से एकदम निकला, ‘वारिस शाह न आदतां जांदियां ने चाहे कटिए बोटी-बोटी।’

अनिल ने कहा, ‘नहीं, यह फिल्म इंडस्ट्री का कीड़ा है जो कभी नहीं मरता। फिल्म इंडस्ट्री में यह बात प्रचलित है कि जब इंडस्ट्री के किसी आदमी की क्रिमेशन सेरेमनी होती है तो वह कीड़ा उसके शरीर से निकलकर किसी और के शरीर में अपना स्थान बना लेता है।’

बात सुनकर हम सब लोग हंसने लगे।

धीरे-धीरे बातें भी खत्म हो गईं और हम लोग भी सोने की तैयारी करने लगे क्योंकि सारा दिन घूमकर हम शारीरिक और मानसिक रूप से थक चुके थे।

*****