Sumandar aur safed gulaab - 2 - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 2 - 5

समंदर और सफेद गुलाब

5

मेरी बात सुनकर अनिल बीच में ही बोल पड़ा, ‘अरे डॉक्टर साहब... ऐसा है तो आप कोई और रोल कर लें, उसमें दिक्कत ही क्या है?’

‘बिल्कुल नहीं, मैं जो घर से सोचकर आया था और जिस रोल के लिए मैं आया था, वही करूंगा वर्ना नहीं। वो तो मैं वहां से निकलना चाहता था इसलिए उस राज बाबू को बोल दिया। क्योंकि मैं कोई झगड़ा नहीं चाहता था। मैं एक लेखक हूं और गुस्से पर काबू पाना मुझेे खूब आता है। वैसे भी लेखक को जिंदगी में नये-नये तुजुर्बों से गुजरना ही चाहिए और यह मेरे लिए बहुत अच्छा तुजुर्बा है कभी न कभी एक उपन्यास के रूप में बाहर आ जाएगा। आप भले ही किसी भी ब्रेन की बातें करें लेकिन मेरा ब्रेन यहां रहने की इजाजत नहीं देता चाहे कुछ भी हो जाए।’

मेरी बात सुनकर पांडेय जी बोले, ‘आपकी बॉडी लैंग्वेज में ही विरोध झलक रहा है। मैं तो आपको शुरू से ही वॉच कर रहा हूं। आपके चेहरे के भाव भी मुझसे छिपे हुए नहीं हैं। एक तरह से आपने समझौता न करके अच्छा ही किया है। इससे पता चलता है कि आपके अंदर अभी आदमी जिंदा है, वर्ना इस शहर में तो आदमी के रूप में राक्षस वास कर रहे हैं। यहां के लोग आपको भले ही बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में घूमते हुए नजर आएं लेकिन उनका खून सफेद हो चुका है। यहां मतलब की दोस्ती है। मतलब हो तो ठीक, नहीं तो कोई किसी को नहीं पूछता। सच पूछो तो यहां के लोगों, खासतौर पर फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की स्थिति उस सफेद गुलाब की तरह है, जो चारों तरफ से कांटों में उलझा हुआ है।’

मैंने पांडेय की बात सुनते ही कहा, ‘अरे, फिर क्या हुआ? अगर सफेद गुलाब है, तो आखिर है तो फूल ही न? इसका कोई तो मतलब होगा ही न?’

मेरी बात सुनते ही प्रोफैसर साहब बोले, ‘मैं अभी गूगल पर सर्च मारकर पता कर लेता हूं कि सफेद गुलाब का क्या मतलब होता है। अपने पास जियो की सिम है और वह भी फोर-जी और तिस पर चलती भी फ्री है।’

प्रोफैसर साहब ने गूगल खोला और ‘व्हाइट रो•ा’ लिखकर सर्च करने लगे। उसमें ‘व्हाइट रो•ा’ के कई मायने थे लेकिन जो उन्होंने हमें सुनाया, वह काफी दिलचस्प था। वह बताने लगे कि ‘यार ये तो एक साथ दो चीजों को रिप्रिजेंट करता है ‘बिगनिंग ऑफ लव’ और ‘फेयरवेल टू लव।’

उनकी बात सुनते ही मैंने कहा, ‘अरे, क्या बात है यार... म•ाा आ गया, इसका मीनिंग सुनकर तो। अरे.... प्यार का प्रतीक भी और अलविदा का भी यानी एक ही सिक्के के दो पहलू जैसी ही बात हुई न फिर तो!’

‘बिल्कुल, डाक्टर आकाश। इसमें कहीं कोई दो राय नहीं है।’

अनिल हमारी बात के बीच में ही कूद पड़ा। फिर कहने लगा, ‘सच मानो तो यह मुंबई सफेद गुलाबों का ही शहर है। यहां जो भी आए किसी को निराश नहीं करता। पहले प्यार से अपनी बाहों में समेटता है और उसे अपना बना लेता है। फिर धीरे-धीरे उसे अपने ही कांटो से लहुलुहान कर देता है जो आदमी को पता ही नहीं चलता क्योंकि आदमी को सारी जिंदगी इसकी खुशबू यहां से वहां तक घुमाती रहती है। कभी किसी प्रोड्यूसर के पास तो कभी किसी डायरेक्टर के पास। वह इसकी सुगंध में मदमस्त हाथी की तरह घूमता रहता है। कोई उसे नहीं समझा सकता। लेकिन जब उसे होश आती है तो सब कुछ लुट चुका होता है। फिर तो इन्सान अपने आप को चारों खाने चित्त पाता है और तड़पता है। लेकिन उसकी पीड़ा का हल यहां किसी के पास नहीं है। वह सोचता है कि किसी तरह से छुटकारा मिल जाए लेकिन यह हो नहीं पाता। मुझे भी फिल्मी पत्रकारिता करते इस शहर में तीन दशक हो गए हैं। मैंने अपनी जिंदगी में इसे फेयरवेल देते हुए किसी को नहीं देखा। जो आया इसकी आगोश में समा गया। यह समंदर है समंदर..... जो इसमें उतरा वह वापस नहीं लौटा।

एक बात कहूं डाक्टर आकाश... आप तो किस्मत के धनी हैं, जिसे यह शहर फेयरवेल दे रहा है। आपको सफेद गुलाब के कांटे तो चुभे हैं लेकिन आप अभी लहूलुहान नहीं हुए हैं। कहते हैं भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है। भविष्य में क्या छिपा है, किसी को नहीं पता। अगर आप उस फिल्म में किरदार निभा लेते और गलती से फिल्म रिलीज हो जाती और गल्ती से फिल्म चल निकलती तो फिर आपको इस गुलाब ने इस कदर अपनी बाहों में कैद करना था कि आप चाहकर भी छूट न पाते। आप के मन में इस कदर भ्रांतियां पैदा हो जातीं कि आपको लगता कि मैं तो पता नहीं आसमान में कौन सा छेद कर सकता हूं। आप सारी उम्र समंदर की तरह गुजार देते। कभी लहरें समंदर की तरह चीरती हुई बाहर आतीं तो कभी दिल तक पहुंच ही न पातीं और सफेद फूल बनकर सारी जिंदगी यहीं पड़े रहते। यहां पर बहुत से लोग हैं मैं आपको कुछ लोगों से मिलवाऊंगा।’

मैं प्रश्नवाचक नजरों से उसे देखने लगा तो बोला, ‘मैं आपको हतोत्साहित नहीं कर रहा हूं। मेरी जिंदगी का अपना तजुर्बा है आपसे शेयर कर रहा हूं। बुरा मत मानना डाक्टर साहब।’

‘नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं। मैं जरूर मिलना चाहूंगा। मैं तो यहां आने से पहले भी यही सोचता था कि मैं मुंबई जाऊंगा जरूर। लेकिन मेरे पास हारने के लिए कुछ नहीं है। अगर कुछ मिला तो ठीक... नहीं तो एक उपन्यास का प्लॉट तो कहीं नहीं गया। ....और देख लो वह प्लॉट मुझेे एक ही दिन में मिला गया। हो सकता है, कुछ लोगों को यहां कई दशक रहकर भी न मिले।’

‘सो तो है आकाश जी...।’ बीच में ही प्रोफैसर पांडेय बोल पड़े।

अनिल बहुत भावुक हो रहा था। फिर कहने लगा, ‘अरे सर मुंबई मायानगरी है और सफेद गुलाबों से भरी पड़ी है। सब यहां लहूलुहान हैं लेकिन यह उनकी नियति बन चुकी है। उनके रिसते हुए जख्म पर मरहम लगाने वाला कोई नहीं है। सुबह उठो... कभी किसी डायरेक्टर के दरवाजे पर तो कभी किसी के दरवाजे पर दस्तक दो। अपना जमीर मारकर आगे बढ़ो। जब तक आप आगे आने वालों की चूहा रेस में शामिल होते हैं, तब तक आपको धक्का देने वाला भी उसी लाइन में आकर खड़ा हो जाता है। कुछ समय बीतता है तो गुलाब के कांटे अपना फन फैला लेते हैं और हम सोचते हैं, ‘हम तो सीनियर हो चुके हैं इस शहर में। किसी को जरूरत होगी तो वह खुद ही बुलाएगा। हम क्यों जाएं ऑडिशन देने।’ बस एक वीशियस साइकिल उसके इर्द-गिर्द बन जाता है और उसी में जिंदगी गुजार देता है और मजा लेने लगता है। लेकिन एक बात कहते हुए ऐसे लोगों को गर्व होता है कि हमने जिंदगी जैसी भी जी पर जी अपनी मर्जी से... और वैसे भी जो लोग पर्दे पर आपको बहुत बड़े स्टार दिखते हैं न.. कोई नहीं पहचनाता उन्हें। एक सीरियल में काम करने के बाद फिर से काम की तलाश करनी पड़ती है। सीरियल चाहे कितना भी क्यों न चल पड़े। सीधा-सीदा कहूं कि वे लोग फिर से सडक़ के आदमी बन जाते हैं, तो गलत न होगा। इसकी सुगंध में जो फंसा वह कभी बाहर निकल ही नहीं पाया। मुंबई की माया कोई न जान पाया। वैसे भी यह शहर एक टापू है। यहां का दस्तूर भी अलग है। यहां का रीति-रिवाज अलग है। यहां कपड़े उतारने में किसी को शर्म नहीं आती। ये जो सती-सवित्री औरतों जैसी छवि में स्क्रीन पर नजर आती हैं, उन्हें शूटिंग खत्म होने के बाद देखना कभी। होश उड़ जाएंगे। सब छोटी-छोटी बिकनी पहनकर जाम से जाम टकराती हैं तो अच्छे अच्छों के होश गुम हो जाते हैं। आप न तो दारू पीते हैं, न सिगरेट पीते हैं और न ही आपको कोई और काम अच्छा लगता है। आप तो इस मायानगरी के लिए फिट ही नहीं है।’

प्रो. पांडेय सुनते ही बोला, ‘स्कवेयर पैग इन ए राऊंड होल यानि गोल छेद में चौड़ा कील... कैसे फिट होगा डाक्टर साहब?’

जैसे ही प्रोफैसर ने कहा, मैंने प्रोफैसर की तरफ हैरानी भरी निगाहों से देखा। ‘डाक्टर साहब! ऐसे मत देखो, सही कह रहा हूं। जो कुछ मैंने सुना है, उससे तो यही सत्य लगता है। हालांकि मैं इस शहर के मिजाज को नहीं जानता। अपना काम है, कालेज में पढ़ाओ और घर चले आओ। वैसे भी जहां तक मैं आपको जान पाया हूं... मुझेे लगता है कि यह शहर आपके लिए नहीं बना। आप इतने बड़े उपन्यासकार हैं और आपकी किताबें विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं न जाने कितने लोग आपके उपन्यासों पर रिसर्च करके डॉक्टर की उपाधि ले चुके हैं... और कालेजों में पढ़ा रहे हैं। कम से कम इस मायानगरी के लिए आप नहीं बने। आपको यह भी बहुत बड़ी गलतफहमी है कि आपके उपन्यासों पर कोई फिल्म बना देगा। मैं आपको निराश नहीं कर रहा। बन भी सकती है। दुनिया का कोई भी माई का लाल सब कुछ पेट से ही थोड़ा लेकर आता है। अपने कर्मों से ही आदमी आगे बढ़ता है लेकिन कर्म कैसे करने हैं, वह कुदरत निर्धारित करती है। अगर आप चाहते हैं कि आपके उपन्यास पर फिल्म बने तो मुझेे लगता है कि आपको भी समंदर के किनारे आकर सफेद गुलाब बनना पड़ेगा। फिर गुलाब की मर्जी है कि आपको अपनी आगोश में लेकर रखेगा कि आपको फेयरवेल देगा। आपको दर-दर की ठोकरें खानी ही पड़ेंगी। वर्ना यह शहर आपको स्वीकार ही नहीं करेगा।’

अभी प्रोफैसर और बात करना चाहता था। अनिल बीच में ही बोल पड़ा, ‘अरे डाक्टर साहब..! यहां का यह भी दस्तूर है। जिसकी तूती बोलने लगती है, फिर वह पीछे पलटकर नहीं देखता। उस सूरत में भी वह रहता सफेद गुलाब ही है। क्योंकि जैसे ही कोई किसी भी कारण लाइमलाइट में आता है, तो उसके असिस्टेंट उसे यही सलाह देते हैं कि जो लोग आप पीछे छोड़ आए हैं, उनसे दूरी बना लो। अब आप सैलिब्रिटी बन गए हैं। अगर ऐसे ही ऐरे-गैरे से मिलोगे या बात करोगे तो आपकी क्रैडेबिलिटी कम हो जाएगी। अब आपसे बात करने के लिए भी लोगों को पैसे देने पड़ेंगे। आपको मिलने के लिए सबको आपसे एप्वायंटमैंट लेनी पड़ेगी। बस यही चार दिन हैं, पैसा कमाने के। अब आप खास हो गए हैं और खास लोगों से ही मिलेंगे।’

अनिल ठीक ही कह रहा था। वह फिर कहने लगा, ‘मैं भी प्रोफैसर साहब की बात से सहमत हूं। अगर आप यह चाहते हैं कि आपके उपन्यासों पर फिल्म बने तो आप अपने घर बैठे ही इन लोगों के टच में रह सकते हैं। मैं आपको सबके ई-मेल आई.डी. उपलब्ध करवा सकता हूं। आपका आइडिया किसी को पसंद आया तो बात बन सकती है। हां डाक्टर साहब...! मुझेे एक किस्सा याद आया एक लडक़ा नया-नया नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अपना कोर्स खत्म करके मायानगरी में पहुंचा। वह एक प्रोड्यूसर-डायरेक्टर का असिस्टेंट बन गया। उसने एक दिन ऐसे ही कह दिया, ‘सर मुंशी प्रेम चंद की किसी कहानी या उपन्यास पर फिल्म बना लेते हैं।’ तो उसे तुरंत जवाब मिला कि...‘वह कौन है?’

वह लडक़ा भीगी बिल्ली बनकर उसके चेहरे की तरफ देखने लगा लेकिन कह कुछ नहीं सका क्योंकि वह उसका बॉस था। यहां तो कहानी के नाम पर भी खेल होता है। कहानी के नाम पर यहां कहते हैं... मेरे पास फलां हीरो है तो कोई कहता है कि मेरे पास फलां हीरोइन है। फिर तय होता है इतने सीन लड़ाई के डाल दो इतने प्यार के और कुछ दोनों की तकरार के। बस ऐसे ही फार्मूला फिल्में बनती भी हैं और चलती भी हैं। बड़ी-बड़ी अच्छी फिल्में ऐसे औंधे मुंह गिरती हैं कि पानी तक नहीं मांगती। अब यह व्यापार की बहुत बड़ी मंडी है भाई साहब। मेरा कहने का मतलब है कि यहां किसी को समझाना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है। यहां तो चेहरा बिकता है न कि कहानी... और वैसे भी बड़ा स्टार किसी को जीने नहीं देता। फिल्म में करोड़ों लगते हैं। अब यह धंधा है। रेस में पहले तीन-चार दौडऩे वाले घोड़ों पर तो दांव लगता है लेकिन सफेद फूल पर कौन दांव लगाएगा? चलन तो अब यह बन गया है कि बड़े स्टार अब गाना भी गाते हैं, कहानी भी लिखते हैं, कॉमेडी भी करते हैं और बॉडी बनाकर लड़ाई भी खुद ही करते हैं। ऐसे में किसी दूसरे के लिए गुंजायश ही कहां बचती है? ये समंदर और सफेद गुलाब पर्दे पर ही अच्छे लगते हैं। इनका कुनबा ही यहां अलग है। अब तो इनके बच्चे भी फिल्मों में आने लगे हैं। यहां बाप अपने बेटे को नहीं पहचानता। बेटी को अपनी फिल्म में लेता है, तो उससे ऐसे सीन फिल्म में शूट करवा लेता है, जिन्हें देखकर हम लोगों को बाप लफ्ज से ही नफरत होने लगती है। यहां सबका खून सफेद है। भई जिसका नहीं है, वह यहां गुजारा नहीं कर सकता।’

बोलते-बोलते उसने कहा, ‘अरे •ारा पानी की बोतल देना... दो-चार घूंट अंदर डाल लूं, मेरा तो गला ही सूखा जा रहा है।’

पानी पीते ही पांडेय जी ने घड़ी पर निगाह डाली तो बोले, ‘अब यहां से निकल लो। कहीं ऐसा न हो फेयरी फिर से निकल जाए।’

हम लोग फेयरी की तरफ बढ़े तो फेयरी पर लोग जल्दी-जल्दी चढ़ रहे थे। अजीब बात थी कि उसी फेयरी पर लोग मोटरसाइकिल, स्कूटर एवं साइकिल तक लादकर साथ ले जा रहे थे।

मैंने अनिल से पूछा तो बोला, ‘यह यहां का चलन है। अगर यह लोग रोड से होकर जाएंगे तो इन्हें दो-तीन घंटे लगेंगे... और फेयरी से जाएंगे तो यहां से कुछ ही समय के बाद समंदर के उस पार पहुंच जाएंगे। लोग कह तो रहे हैं, कि यहां कभी न कभी पुल बनेगा। अगर पुल बन गया तो इन लोगों का धंधा खराब हो जाएगा। ये लोग भी मन ही मन दुआ करते हैं कि पुल न ही बने तो अच्छा है। लेकिन विकास के नाम पर सरकार किसी की नहीं सुनती चाहे कितनी ही बेरोजगारी बढ़ जाए।

खैर, फेयरी के चलने की आवाज ने हमारी बातचीत करने का सिलसिला रोक दिया। मैं समंदर के पानी को देखने लगा। यह ऐसा पहला मौका था कि जब मैं समंदर की यात्रा किसी फेयरी से कर रहा था। क्या अदभुत नजारा था। पूरी की पूरी फेयरी लोगों से लदी हुई थी। हम लोग अपनी सीट पर बैठे रहे। किसी से ज्यादा बात नहीं की। मैंने अपने मोबाइल से कोई तस्वीर भी नहीं ली। नहीं तो, मैं कहीं भी जाता तो झट से अपने मोबाइल फोन के कैमरे से तस्वीरें लेना शुरू कर देता और कुछ अच्छी तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट कर देता। लेकिन आज तस्वीर लेने को मन ही नहीं किया। फेयरी अपने गंतव्य पर पहुंच गई थी।

वहां से कुछ देर पैदल चले तो ग्लोबल विपश्यना पैगोडा के द्वार पर थे। क्या विशाल गेट था और इतनी भव्य इमारत मुंबई में कल्पना करना मुश्किल है। इतनी शांति कि परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। अंदर घुसते ही मेरे मन की तस्वीर बदलनी शुरू हो गई थी। मैंने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इतने शांति भरे स्थल में हम लोग प्रवेश कर चुके हैं।

मैंने हर्षित मन के साथ कहा, ‘धन्यवाद, डाक्टर पांडेय।’

‘किस बात के लिए भाई?’

‘यहां लाने के लिए। मुझेे तो पता ही नहीं था कि यह जगह असीम शांति से भरी हुई है।’

प्रोफेसर साहब ने तुरंत कहा, ‘इसीलिए तो मैंने कहा था यहां आने के लिए। आप तो आनाकानी कर रहे थे। अब बताओ। अरे..! छोड़ो उस बात को, भूल जाओ। यही उसूल है, जिंदगी में आगे बढऩे का। अगर हम चीजों को पकडक़र रखेंगे तो आगे नहीं बढ़ पाएंगे। आप चिंता न करें यहां पर दस मिनट के लिए मेडीटेशन करवाते हैं। हम लोग वो भी करेंगे।

मैंने कहा, ‘पक्का करेंगे।’

हमने चप्पल उतारी और उस हॉल में प्रवेश किया जो दूर से किसी सोने का बना हुआ लगता है। हॉल में जाने से पहले हमने वहां एक व्यक्ति से पूछा, ‘मेडीटेशन कहां होता है?’

उसने कहा, ‘इस हॉल को देखकर आओ तो वापसी में बताता हूं।’

अनिल का कोई इंटरेस्ट नहीं था। उसने कहा, ‘आप लोग देखकर आओ, मैं कैंटीन में चाय-कॉफी पीता हूं।’

हम लोग हॉल देेखकर वापस लौटे तो बाहर आकर उसी व्यक्ति से पूछने लगे। उसने बताया, ‘अगर आप शांति की तलाश में भटक रहे हैं, तो हमारा दस दिन का मेडीटेशन कोर्स लगाएं। आपको आपके सवालों का जवाब मिल जाएगा। एक बात और... हम लोग किसी को बुद्ध धर्म अपनाने के लिए नहीं कहते। हम तो केवल उनकी टीचिंग्स के द्वारा ही लोगों को सब कुछ बताने की कोशिश करते हैं लेकिन आने से पहले बुकिंग करवानी पड़ती है। और हां... वो सामने जो हॉल दिख रहा है न, उसमें दस मिनट की मेडीटेशन होती है। आप वहां जाकर मेडीटेशन कर सकते हैं।

हम लोग उधर की तरफ हो लिए और उस हॉल में जाकर बैठ गए। कुछ लोग पहले से ही वहां बैठे हुए थे। एक व्यक्ति वहां भी बैठा हुआ था। कुछ देर के बाद वह उठा और उसने द्वार को बंद कर दिया। कुछ ही समय के बाद एक कैसेट बजनी शुरू हो गई। उसी से सारा दिशा-निर्देश हो रहा था। आंखें बंद करके मैं सुन रहा था। जैसे-जैसे वह कह रहा था, मैं सुन रहा था। दस मिनट कैसे बीत गए, पता भी नहीं चला क्योंकि कैसेट बजनी बंद हो गई थी और मेन द्वार फिर से खोल दिया गया था। हम लोग बाहर निकलने लगे लेकिन कुछ लोग अंदर आने की तैयारी में थे।

मैंने महसूस किया कि मेरा मन शांत है। आने से पहले पता नहीं कहां-कहां भटक रहा था लेकिन अब वह भटकन लगभग समाप्त हो चुकी थी। मैंने पांडेय जी का फिर से धन्यवाद किया और कहा, ‘सच में यहां आने से तो मेरे मन से बहुत सी बातें निकल गई हैं। ऐसा लगता है कि मन बहुत हल्का हो गया है। वर्ना यहां आने से पहले तो मेरा मन बहुत उदास था और मेडीटेशन करने के बाद वह उदासी मन से निकलकर पूरे शरीर से कहीं बाहर निकल गई है।

मेरी बात सुनते ही पांडेय जी ने कहा, ‘हम लोग यही तो पढ़ाते हैं।’

मैंने पी.एच.डी. भी इमोशनल इंटैलीजेंस के ऊपर की है। असल में मन किसी बंदर की तरह है जो हर वक्त उछलता कूदता रहता है। अगर कहूं कि हर वक्त भटकता रहता है, तो गलत न होगा। हम जब मेडीटेशन करते हैं, तो मन पर फोकस करके अपनी सांसों पर भी फोकस करते हैं। धीरे-धीरे हमारा मन उसी में उलझ जाता है और बाकी बातों को भूल जाता है। लेकिन यह प्रक्रिया बार-बार करनी पड़ती है, नहीं तो मन इतना चंचल है कि आप उस पर काबू नहीं रख सकते। अगर कहूं कि मन बेलगाम घोड़ा है, तो गलत न होगा। मेडीटेशन उस चंचल मन को काबू करने के लिए ही की जाती है। धीरे-धीरे मन उसी में खुशी ढूंढने लगता है और बाकी बातों को भूलना शुरू कर देता है।

मुझेे याद आया, जब मैं बी.ए.एम.एस. कर रहा था। उसमें मन के बारे में पढ़ा था तो जाना था कि अणुत्व और एकत्व मन के दो ऐसे गुण है जिसके चलते मन यहां बैठा कुछ भी कर सकता है और कुछ भी जान सकता है। इसी जगह पर बैठकर आप अमेरिका की कल्पना कर सकते हैं। यही नहीं, मन अपनी उड़ान लगाकर किसी भी देश के कोने में जा सकता है। वहां की गलियों में भटक सकता है। वहां के होटलों में खाना खा सकता है। सब कुछ मन ही करता है।

जब डाक्टर गक्खड़ क्लास में पढ़ाते तो अकसर बताते, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ तब उनकी बात मेरी समझ में नहीं आती थी लेकिन इतने सालों के बाद उनकी बात का सही अर्थ जान पाया हूं।

मेरी तंद्रा को प्रो. पांडेय ने फिर भंग किया और कहने लगे, ‘चलो अनिल के पास चलते हैं।’

वहां पहुंचे तो अनिल कॉफी पी चुका था। उसने पूछा, ‘आप लोग क्या खाएंगे, क्या पीएंगे? बता दो, उसी हिसाब से आर्डर कर देते हैं।’

साथ ही उसने कहा, ‘मैंने कॉफी पी ली है लेकिन खाया कुछ नहीं। आप लोगों के आने की इंतजार कर रहा था।’

मैंने कहा, ‘मैं तो सैंडविच खा लूंगा।’

पांडेय साहब ने कहा, ‘मैं पैटी•ा खाऊंगा।’

अनिल ने अपने लिए भी पैटी•ा का ही आर्डर दिया। हम खाते-खाते फिर से बातें करने लगे।

पांडेय ने अनिल से कहा, ‘डाक्टर साहब को यहां आकर काफी अच्छा लगा है, लेकिन आने से पहले तो आनाकानी कर रहे थे। यहां तो पूरी दुनिया से लोग आते हैं। अगर न आते तो सचमुच आप इसे सारी जिंदगी मिस करके पछताते रहते।’

मैंने फिर कहा, ‘सचमुच! मजा आ गया पांडेय जी। इसीलिए तो आप सचमुच इमोशन्स के डॉक्टर हैं जो दूसरों के मन को पढ़ लेते हैं।’

मेरी बात सुनकर अनिल बोला, ‘अरे आकाश जी! ...भूल जाइए उस घटना को कोई बुरा सपना समझकर। वैसे भी आपको एक बात बताऊं...? यह एक्टिंग नाम की चिडिय़ा कुछ भी नहीं है। ऐसे ही लोग दीवाने हुए पड़े हैं। इस शहर में लड़कियों के लिए अलग पैमाना है और लडक़ों के लिए अलग। लडक़ी सुंदर होनी चाहिए बस। उसे हिंदी बोलनी आती हो या न हो यह बात कतई मायने नहीं रखती। सारी फिल्म डब हो जाती है।

अगर लडक़ों को रिजैक्ट करना हो तो झट से कह दिया जाता है ‘आपकी लैंग्वे•ा पर कमांड नहीं है, आपके बोलने का अंदाज सही नहीं है।’ वह बेचारा जगह-जगह जाकर सीखना शुरू कर देता है और बाद में पता चलता है कि सीखते-सीखते ही उसकी उम्र बीत गई लेकिन अंदाज वहीं का वहीं रहा। इस बीच न जाने कितनी नई लड़कियां फिल्मों में आईं और चलीं भी गईं लेकिन वह बेचारा तो सीखता-सीखता ही बूढ़ा हो जाता है। यहां एक्टिंग से किसी का दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। सच में बताऊं तो जो लोग एक्टर हैं वे थिएटर कर रहे हैं और जिन्हें एक्टिंग नहीं आती वह सिनेमा। सारी दुनिया जानती है कि एक पोर्न स्टार फिल्मों में काम करने लगी है। इंडस्ट्री ने उसे अपना भी लिया है। अरे भई...! इंडस्ट्री तो उसे अपनाएगी ही, क्योंकि मीडिया उसके साथ है और धीरे-धीरे मीडिया वाले उसे इस तरह से महमामंडित कर देंगे कि एक दिन पब्लिक को भी उसे अपनाना पड़ता है। हमारे बच्चे उन्हीं लोगों को देखकर बड़े होते हैं। जब ऐसा रोल मॉडल देखकर बच्चा जवां होता है तो उसके विचार कैसे होंगे, आप खुद ही सोचिए?

मैं लगातार उसकी बातें सुनता जा रहा था और हैरान हो रहा था कि यह इन्सान कितनी गहराई से फिल्म इंडस्ट्री को समझता है।

उसने आगे कहा, ‘ये बातें मैं इसलिए आपको बता रहा हूं कि कल को आप इसे किसी उपन्यास में इस्तेमाल कर सकते हैं। आप खुद ही देखो, जितने भी बड़े-बड़े स्टार हैं, रोटी तो हिंदी सिनेमा की खाते हैं लेकिन गुणगान अंग्रेजी का करते हैं। कभी किसी स्टार को देखा है, हिंदी में इंटरव्यू देते हुए। अरे..डाक्टर साहब वे तो हिंदी चैनल्स पर भी धड़ल्ले से अंग्रेजी में बोलते हैं और चैनल वाले यह तक नहीं कह सकते कि भई हमारे दर्शक हिंदी में सुनना पसंद करते हैं। आप हिंदी में बात करें। चूंकि उन्हें एड भी मिलती है और मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोसो, वो चल जाएगा। आप को सच बताऊं तो हमारे पास अंग्रेजी में इंटरव्यू आते हैं और उसे हिंदी में अनुवाद करके देश की विभिन्न अखबारों को भेजते हैं। ऐसा केवल मैं ही नहीं करता बल्कि हर फिल्मी पत्रकार को करना पड़ता है। इंडस्ट्री में बहुत-सी हीरोइन्स विदेश से आ रही हैं। उन्हें तो हिंदी का क, ख, ग तक नहीं पता लेकिन हैं हिंदी फिल्मों की हीरोइन। यहां तो मगरमच्छों का राज है। भई होगा भी क्यों नहीं.. क्योंकि समंदर है, तो जाहिर है मगरमच्छ तो होंगे ही। लो... इसी बात पर मैं आपको एक मगरमच्छ की कहानी सुनाता हूं जो मायानगरी में खूब चलती है।

हमारी दिलचस्पी कहानी सुनने में थी।

वह सुनाने लगा, ‘आपने बंदर और मगरमच्छ की कहानी तो सुनी होगी लेकिन उसका नया वर्जन मार्कीट में आया हुआ है। एक बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती हो गई। बंदर की शादी हुई तो मगरमच्छ ने कहा, ‘अरे यार, हम लोग दोस्त हैं। तुम अपनी बीवी के साथ हमारे घर आओ ताकि हम आपके स्वागत में एक बहुत बड़ी दावत कर सकें। आखिर दोस्त हैं हम लोग।’ बंदर ने कहा, ‘बिल्कुल किसी दिन प्रोग्राम बना लेंगे और मैं अपनी बीवी को लकर आपके घर जरूर आऊंगा। फिर क्या था, वह दिन आ गया जिस दिन बंदर अपनी बीवी को लेकर मगरमच्छ के घर जा पहुंचा। उन दोनों का बहुत स्वागत हुआ। उन्होंने सारा दिन वहीं गुजारा और उनकी अच्छी खातिरदारी हुई। लेकिन शाम को जब बंदर जाने लगा तो मगरमच्छ ने कहा, ‘अरे भई इस बंदरिया को कहां ले जा रहे हो?’

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