समंदर और सफेद गुलाब
दूसरा दिन
1
सूर्य की हल्की-हल्की किरणें खिडक़ी से होती हुई कमरे में प्रवेश कर रही थीं। मैं जमीन पर बिस्तर लगाकर लेटा हुआ था। अब तक प्रोफैसर पांडेय और मानव जी सो रहे थे। मैं भी इसी कशमकश में पड़ा था कि उठ जाऊं या लेटा रहूं। कहीं ऐसा न हो कि मेरे उठने से इन लोगों की भी नींद खराब हो जाए।
मैंने बिना सोचेे-समझे चादर मुंह पर तान ली और लेटा रहा लेकिन ज्यादा समय तक लेट नहीं पाया। लेटने से उक्ता गया तो मैंने चादर इकट्ठी की और उठ गया। लगभग ढाई दशक के बाद मुंबई आना और मुंबई की सुबह को गले लगाना, मेरे लिए किसी सपने से कम नहीं था।
मैंने खिडक़ी खोली और सूरज की किरणों को आलिंगन किया और भगवान का शुक्रिया अदा किया। मुंबई की सुबह देखने के लिए तो मेरी आंखें ही तरस गई थीं। बाहर लोगों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी।
मुझेे याद आया, जब पहली बार मुंबई आने का प्रोग्राम बना था। हालांकि सीधा मुंबई नहीं आना था लेकिन घूमने जरूर आना था, इतना तो तय था। असल में नासिक के पास एक छोटी सी जगह है देवलाली। वहां मेरी मौसी रहती थी। एक बार दिसंबर की छुट्टियों में बापू ने गाड़ी की टिकटें बुक करवा दी थीं। हम लोग नये-नये कपड़े पहनकर स्टेशन पर जाने के लिए तैयार खड़े थे। अभी निकलने ही वाले थे कि मुझेे जोर से छींक आ गई। छींक क्या आई, बापू का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और बिना कुछ सोचेे-समझे बापू ने मेरे मुंह पर एक चांटा रसीद कर दिया।
उसके बाद बापू ने कहा, ‘अभी रुक जाओ, थोड़ी देर के बाद घर से निकलते हैं। छींक आना अपशकुन होता है।’
फिर बापू ने मां से कहा, ‘थोड़ी-थोड़ी चीनी मुंह में डालो तो घर से निकलते हैं।’ सब लोग चीनी खाने लगे। फिर मां ने ताला हाथ में पकड़ा और हम लोगों को बाहर कर दरवाजे पर ताला लगा दिया।
एक ट्रंक मेरे हाथ में और एक बापू के हाथ में। सफर के लिए परांठे साथ बांध लिए थे। मां ने परांठों के लिए आटा भी दूध में गूंथा था ताकि लम्बे सफर के दौरान कहीं परांठे खराब न हो जाएं। अभी पौ फटी नहीं थी। गलियों में अंधेरा पसरा हुआ था। हम लोग पैदल चल रहे थे तो एक और अपशकुन हो गया। रास्ते में हमारे सामने से एक बिल्ली ने रास्ता काट दिया। जैसे ही बिल्ली ने रास्ता काटा, बापू ने मेरी तरफ घूरकर देखा और ट्रंक वहीं नीचे जमीन पर रख दिया। मेरी हिम्मत नहीं पड़ी थी कि ट्रंक नीचे रख दूं।
बापू की कडक़दार आवाज ने भोर के सन्नाटे को भंग कर दिया, ‘इसे नीचे रख। ‘नीतां नूं मुरादां’* तूने तो घर से निकलने से पहले ही छींक मार दी थी।’
मैं कुछ नहीं बोला लेकिन मन ही मन सोच रहा था कि अगर मुझे छींक आ गई, तो इसमें भला मेरा क्या दोष है?
बापू फिर बोला, ‘न तुम छींक मारते, न हम लोग लेट होते और न ही बिल्ली हमारा रास्ता काटती। यह रास्ता हम लोग बहुत पहले पार कर गए होते।’
इस बीच पौ फट चुकी थी और लोगों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। हम लोग काफी देर तक वहीं खड़े रहे और इंतजार करते रहे कि कोई और राहगीर हमसे पहले आगे गुजरे तो हम लोग आगे बढ़ें, लेकिन इससे पहले कि बिल्ली द्वारा खींची हुई लक्ष्मण रेखा को कोई और राहगीर पार करे, इसमें काफी समय निकल गया। आखिर एक आदमी दूध के बड़े कनस्तर लेकर वहां से गुजरा तो जैसे मेरी जान में जान आ गई।
जैसे ही वह दूधवाला वहां से गुजरा तो बापू ने फिर गरजते हुए कहा, ‘चलो जल्दी-जल्दी... हम लोग पहले से ही लेट हैं।’
सडक़ पर पहुंचे तो रिक्शा का इंतजार करने लगे। बहुत देर तक कोई रिक्शावाला वहां से नहीं गुजरा। एक रिक्शावाला आ ही गया तो बापू उससे मोल-भाव करने बैठ गया। जब बापू का मोलभाव उस रिक्शावाला के परते में नहीं आया तो रिक्शावाला आगे निकलने लगा।
लेकिन गुस्से से तिलमिलाते हुए बापू ने उसे रुकने के लिए कहा और मुंह में ही बड़बड़ाने लगा, ‘इसे पता है कि और कोई नहीं मिलेगा इस समय। इसी का नाजायज फायदा उठा रहा है।’
मैं डर रहा था कि बापू कहीं रिक्शा वाले से ही न उलझ पड़े। रिक्शा धीरे-धीरे स्टेशन की ओर जाने लगा। सिर मुंडाते ही ओले पडऩे वाली कहावत उस वक्त सच हो गई जब चलते-चलते रिक्शा का टायर पंक्चर हो गया और हमें रिक्शा वहीं पर छोडऩा पड़ा। हम लोग वहीं पर खड़े होकर दूसरे रिक्शा का इंतजार करने लगे। इस बीच इतनी धुंध गिर गई थी, मानो सारा शहर ही धुंध की चादर में लिपट गया हो। कुछ ही दूरी तक भी कोई किसी दूसरे आदमी को नजर नहीं आ रहा था। जैसे-जैसे रुकावटें बढ़ रही थीं, बापू मेरी तरफ देखकर गुस्से से लाल-पीला हो रहा था लेकिन धुंध मेरे बचाव में पूरी तरह मेरे साथ थी।
बहुत देर के बाद एक रिक्शावाला आया तो उसने स्टेशन पर जाने के लिए पहले रिक्शावाले से भी ज्यादा पैसे मांगे, जबकि हमने कुछ रास्ता पहली रिक्शा से ही तय कर लिया था।
बापू उस रिक्शावाले से उलझ पड़ा और बोला, ‘पैसे तो बहुत ज्यादा मांग रहे हो तुम।’
उसने तुरंत जवाब दिया, ‘बाऊ जी... धुंध देखो कितनी पड़ी है। बंदे को बंदा तक तो नजर नहीं आ रहा और हाथों में ठिठुरन इतनी है कि रिक्शा चलाने को मन ही नहीं कर रहा। घर की मजबूरी न हो तो ऐसी ठंड में रिक्शा क्यों चलाएं? चार पैसे मिलेंगे तो ही चलांएगे।’
बापू ने कलाई पर बंधी घड़ी पर नजर मारी और सबको रिक्शा पर बैठने का इशारा किया। रिक्शा पर सब बैठ गए तो बापू बोला, ‘अरे जल्दी चलो, नहीं तो हमारी गाड़ी छूट जाएगी।’
रिक्शा पर बैठा बापू कभी घड़ी को देखता, तो कभी रिक्शावाले को। बीच-बीच में कहता, ‘जल्दी चलो, थोड़ा तेज पैर चलाओ।’
एक बार तो रिक्शावाले ने भी खीझते हुए कहा, ‘बाऊ जी मशीन नहीं हूं, ऊपर से धुंध में नजर भी कम आ रहा है। थोड़ा-बहुत टाइम तो लगेगा ही।’
बापू ने ऊंची आवाज में कहा, ‘अरे यार... गाड़ी छूट जाएगी हमारी।’
बापू के कहने का उस पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि रिक्शावाला अपनी मस्ती से ही रिक्शा चला रहा था।
एक जगह पर चढ़ाई आई तो रिक्शावाले ने कहा, ‘बाऊ जी.. एक सवारी नीचे उतर जाए तो मुझेे रिक्शा खींचने में आसानी होगी।’ उसकी बात सुनते ही मैं छलांग मारकर रिक्शा से नीचे उतर गया।
रिक्शावाला धीरे-धीरे रिक्शा आगे ले जाने लगा। इसमें काफी समय लग गया। जब चढ़ाई खत्म हुई तो बापू ने घड़ी पर निगाह मारी और कहा, ‘गाड़ी का समय तो हो चुका है। जल्दी चलो... अगर गाड़ी छूट गई तो मैंने एक पैसा भी नहीं देना है।’
खैर...जैसे-तैसे गिरते-पड़ते हम लोग स्टेशन पर पहुंच गए। बाहर से ही पता चल गया कि गाड़ी को स्टेशन पर आए पांच मिनट से ज्यादा हो गए हैं। अब तो गाड़ी चलने के लिए तैयार खड़ी है। जैसे ही हम लोग पुल चढक़र गाड़ी पकडऩे के लिए पहुंचे तो गाड़ी हमारी नजरों के सामने ही निकल गई।
अब गाड़ी को बाय-बाय करने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था। अब मेरी खैर नहीं थी। बापू ने मेरी तरफ देखते ही गालियों की झड़ी लगा दी और मैं चुपचाप गालियां सुनता रहा। इस तरह मुम्बई आने का पहला प्रयास अधूरा ही छूट गया था।
तब तो मुंबई नहीं आ सका लेकिन एक बार मैं अपने किसी दोस्त को छोडऩे के लिए मुंबई आया था। मेरा वह दोस्त विदेश जाना चाहता था। उसने किसी ट्रैवल एजैंट से सम्पर्क किया था। उस एजैंट ने कई युवाओं को मुंबई बुलाया हुआ था, क्योंकि मैडिकल मुम्बई में होता था। हालांकि मुंबई में मैडिकल कोई ज्यादा लम्बा-चौड़ा नहीं होता था। रूटीन के कुछ टैस्ट के अलावा चैस्ट का एक एक्सरे होता था। जैसे ही उसकी रिपोर्ट आती वह सारे का सारा पैसा ले लेता और बता देता, ‘अब एक सप्ताह में आप इराक रवाना हो जाएंगे।’
एजैंट ने वहीं मुम्बई में एक वीरान से इलाके में एक चाल किराए पर ले रखी थी, जहां सब नीचे ही बिस्तर लगाते थे और वहीं सब लोग सोते थे। बिल्कुल सामने खाली जगह थी, जहां लोग जंगल पानी के लिए जाते थे। तब मुम्बई का नाम बंबई था जो अब मुंबई शहर से जाना जाता है।
ऐसा ही एक दिन था, जब हम पांच लोग मैडीकल टैस्ट की रिपोर्ट लेकर आ रहे थे। वाकई चारों बहुत खुश थे क्योंकि उनके टैस्टों की रिपोर्ट नार्मल थी। हालांकि थोड़ी-बहुत गड़बड़ होती तो डाक्टर कोई दवा लिख देता और कहता कि ‘पांच दिन खाने के बाद फिर से दिखाने के लिए आना।’
इसमें कोई बड़ी समस्या नहीं थी लेकिन जाने वाले को लगता कि पता नहीं क्या बात है? शायद कोई बड़ी बात है। इस तरह वहां पांच दिन और रहना पड़ता जिसके चलते रहने का खर्च और बढ़ जाता। तब मुम्बई में हुआ वह हादसा याद करता हूं तो आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं। हम लोग मस्ती में घूमते हुए बांबे वीटी स्टेशन पर पहुंच गए। वहां पर कन्फ्यूजन था कि रेलवे टिकट कहां से मिलेगा।
हमने स्टेशन पर एक सरदार जी को वहां खड़े हुए देखा जो टिक्ट कलैक्टर था। हम लोग उसकी तरफ लपके और पूछा कि ‘कलीना जाने के लिए टिकट कहां से मिलेंगे?’
सरदार जी ने आव देखा न ताव और बोले, ‘टिकट दिखाओ।’
हमने उनसे कहा, ‘हम आप से यही तो पूछ रहे हैं, कि टिकट कहां से मिलेंगे?’
सरदार जी ने हमारी एक न सुनी और कहने लगे, ‘आप लोग साइड पर आ जाओ।’
वह हमें साइड पर ले गया और बोला, ‘आप लोग स्टेशन के अंदर आकर और प्लेटफार्म पर खड़े होकर पूछ रहे हैं कि टिकट कहां से मिलेगी?’
मैंने विनम्रता से कहा, ‘हम लोग यहां नये हैं और प्लेटफार्म से पता ही नहीं चलता कि आदमी कब अंदर आ गया। इसीलिए तो आपसे पूछा है।’
वह टेढ़ी आंखों से देखता हुआ बोला, ‘अब पूछा है तो फिर हरजाना तो भुगतना ही पड़ेगा साहब।’
हम सब एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। आखिर उसने पांच लोगों से पचास रुपये लिए और हमें जाने दिया। पैसे लेने के बाद ही उसने बताया कि ‘सामने से टिकट लेकर लोकल में चढ़ जाओ।’
हम लोग टिकट लेकर लोकल में सवार हो गए। तब गाड़ी में भीड़ कम थी क्योंकि ऑफ समय में ऐसा ही होता है। दूसरा गाड़ी यहीं से बनकर चलती है। जैसे ही गाड़ी चली हम लोग बातें करने लगे।
हमारी बातें सुनकर पास बैठे एक सज्जन पुरुष बोले, ‘क्या हुआ?’
हमने सारी बात सुनाई तो कहने लगे, ‘आप को तो उस टी.टी.ई. ने लूट लिया। ज्यादा से ज्यादा वह आपको जुर्माने के साथ टिकट बनाकर दे सकता था। आपके साथ तो बहुत ही नाइंसाफी हुई है। आपको तो उस साले को मजा चखाना चाहिए।’
उसकी बात पर पास बैठे दो-तीन और लोगों ने हामी भरी तो हम लोग तैश में आ गए। हम में से एक लडक़ा दिल्ली का था। वह बोला, ‘हम उसे छोड़ेंगे नहीं।’
फैसला हुआ कि अगले स्टेशन पर उतरकर दोबारा बांबे वीटी स्टेशन पर जाया जाए और सरदार जी की शिकायत की जाए। हम सभी इस बात पर एकमत हो गए। कुछ ही समय के बाद हम दोबारा बांबे वीटी स्टेशन पर सरदार जी के सामने खड़े थे।
सरदार जी देखते ही हमें पहचान गए और बोले, ‘गये नहीं अभी तक तुम लोग?’
जैसे ही उसने पूछा, हम में से एक ने उसका कॉलर पकड़ लिया और तैश में आकर उसके गाल पर दो-चार चांटे रसीद कर दिए। जैसे ही हंगामा हुआ, कुछ लोग हमारी तरफ लपक लिए। हमने शोर डाला तो कुछ लोग बीच-बचाव में उतर आए। वहां सबके पास इतना समय नहीं होता कि कोई हमारे साथ लम्बे समय तक खड़ा रहता। लोग आते गए, जाते गए।
इतने में कुछ रेलवे पुलिस के कर्मचारी आ गए। वे हमे कहने लगे, ‘इस तरफ आ जाओ, बात करते हैं।’
सरदार जी ने उन्हें सब कुछ अच्छी तरह से समझा दिया था। वे कर्मचारी हमें पुलिस थाने में ले गए। हमें वहीं बिठा दिया। इस सारे मामले को भांपता हुआ दिल्ली वाला लडक़ा वहां से चंपत होने में सफल हो गया। हम लोग बात करें तो पुलिस वाले कोई बात ही न करें, न सुनें। धीरे-धीरे शाम होने लगी थी और अंधेरा बढऩे लगा था। इस बीच वह टी.टी.ई. हमारे पास नहीं आया था।
शाम ढलते ही वह हमारे सामने वहीं थाने में प्रकट हो गया। वह हमारे पास आया और कहने लगा, ‘आपने सरकारी आदमी पर हाथ डाला है, इसका अंजाम जानते हो क्या होगा?’
हमारी सुनने वाला वहां कोई नहीं था। रात होते ही दो पुलिस वाले आए और हमें कहा, ‘चलो।’
हमने पूछा, ‘कहां?’
तो कहने लगे, ‘बस आपको अभी थोड़ी देर में छोड़ देंगे।’
हमें तो यह भी नहीं पता था कि हमें कहां लेकर जा रहे हैं। कुछ ही समय के बाद हम एक हवालात की अंधेरी सी कोठरी में थे। वहां पहले सेे ही दो-तीन पुलिसवाले बैठे हुए थे।
हमें अंदर ले जाते ही उन्होंने बाहर का गेट बंद कर दिया और कहा, ‘तुम लोगों की जेबों में जो कुछ भी है, निकाल दो।’
‘निकाल दो मतलब..? मेरे दोस्त ने पूछा।
‘अभी बताता हूं।’ एक रौबदार पुलिसवाले ने कहा। इतने कहने के साथ ही उस पुलिसवाल ने दोस्त की पीठ पर चाबुकनुमा बैल्ट का एक जोरदार प्रहार किया।
इससे पहले कि वह कुछ बोलता उसके साथी पुलिसवाले ने कहा, ‘इसे कहते हैं, आन मिलो सजना। वैसे भी लगता है कि तुम लोग पहली बार मुंबई आए हो तो एक तुजुर्बा मिलना तो बनता ही है।’
खैर... हमने डरते हुए अपनी जेबों से सब कुछ निकाल दिया था।
मेरी जेब में तो कुछ था नहीं। एक घड़ी थी और कुछ पैसे। लेकिन मेरे दोस्त की जेब में सारे पैसे थे जो अभी एजैंट को देने थे। उसने वह सारे पैसे पैंट के अंदर एक जेब में रखे हुए थे। हमने आंखों ही आंखों में इशारा किया और थोड़ी खुसर-फुसर भी की और फैसला किया कि हम वह पैसे नहीं निकालेंगे।
मैंने देखा सलाखों के पीछे कई लोग बंद थे, जिनमें बच्चे भी थे और बूढ़े भी। मैं देखकर हैरान था कि ये लोग यहां क्या कर रहे हैं लेकिन वे सब हमें देखकर हंस रहे थे और हर कोई कुछ न कुछ बोले ही जा रहा था।
मैंने तो यह मंजर पहली बार देखा था। उसे देखकर मुझे फिल्मों का सीन याद आया और मैं कहीं खो गया।
इससे पहले मैं ज्यादा खो जाता, पुलिस वाले ने चीखकर कहा, ‘चलो सब लोग रजिस्टर पर साइन कर दो।’
मैंने कहा, ‘साइन....? लेकिन किस बात के लिए?’
‘असल में जो कुछ सामान तुम लोगों ने जमा करवाया है, उसका हवाला यहां लिखा है। इसे जामा तलाशी बोलते हैं। लॉकअप में जाने से पहले जो कुछ भी आपके पास है, सब हमारे पास जमा हो जाता है। हवालाती को छोडऩे के बाद उसकी अमानत उसके हवाले कर दी जाती है।’
मैंने देखा वह पुलिसवाला साइन करवा रहा था और दो पुलिस वाले जाम से जाम टकरा रहे थे। जब सारी कागजी कार्रवाई पूरी हो गई तो शराब पी रहे दोनों पुलिस वाले अपना-अपना जाम खत्म करके हाथों में ‘आन मिलो सजना’ लिखे हुए चाबुकनुमा चौड़े पटे को पकड़े हुए हमारी तरफ बढ़े और अचानक हम पर ऐसे टूट पड़े जैसे कोई बिल्ली चूहे को देखकर टूट पड़ती है।
वह पीठ पर मार रहे थे। दो लोगों की पीठ पर पटे बरस रहे थे। हम दो बचे थे, जो देख-देखकर कांप रहे थे और यह सोचकर परेशान हो रहे थे कि अगर हमारी बारी आने पर हमें पटे खाने पड़ेंगे तो हमारा क्या हाल होगा।
एक ही पल में मैंने सोचा कि ‘क्या इनकी मार बापू के डंडों से भी ज्यादा होगी।’
मार खा रहे दोनों की चीखों ने मेरे मन में आते हुए विचार को पता नहीं कहां धकेल दिया। वे दोनों चिल्ला रहे थे। अब वही पटे उन पुलिसवालों ने हमारी पीठ पर मारने शुरू कर दिए। मैं बहुत जोर-जोर से चीख रहा था। उनकी मार मेरी पीठ पर ऐसे पड़ रही थी जैसे घोड़े की पीठ पर चाबुक पड़ते हैं।
मैं लाख अपना हाथ आगे करने की कोशिश करके उन्हें रोकने की कोशिश करता पर कामयाब न हो सका।
एक पुलिसवाला जोर से चिल्लाया, ‘हाथ पीछे करो।’
कहते-कहते वह पटे को ज्यादा जोर से मेरी पीठ पर मारने लगा।
गुस्से में गरजने लगा, ‘स्सा...ला, सरकारी मुलाजिम के साथ भंकस करेगा? अरे.. अक्खा मुंबई जानता है कि सरकारी मुलाजिम पर हाथ नहीं डालते। नये-नये छोकरे हो, होश न ठिकाने लगा दिए तो मेरा नाम भी राम लाल तेंदुलकर नहीं।’
बस फिर क्या था। वे पुलिसवाले कभी हम दोनों पर टूट पड़ते, कभी हमारे साथियों पर। पता नहीं कितनी देर तक वे लोग हम पर पटे बरसाते रहे।
इस बीच वह टी.टी.ई. भी अंदर आ गया। उसने पुलिसवालों के साथ खुसर-फुसर की और हमें घूरकर देखते हुए वहीं कुर्सी पर बैठ गया। उसके सामने ही पुलिस वालों ने दारू की बोतल से फिर से पैग बनाए और गटागट पी गए। हम सब लोग सहमे से खड़े हुए थे। पैग पीने के बाद उन्होंने फिर से हमें धोना शुरू कर दिया। थोड़ी देर के बाद वह टी.टी.ई. चला गया।
अंदर वाले लोग पुलिसवालों पर चिल्ला रहे थे, ‘अरे छोड़ दो... क्यों अंजान लोगों को मार रहे हो। अगर हिम्मत है तो हमें हाथ लगाकर दिखाओ।’
एक पुलिसवाले को उन पर गुस्सा आ गया। उसने बाहर से ही लॉकअप के अंदर खड़े बंदों पर थूक दिया और बोला, ‘ले लगा दिया तुझे भी, बिगाड़ ले मेरा जो बिगाडऩा है।’ कहते-कहते पुलिस वालों ने पटे चलाने बंद कर दिए।
हम डरे और सहमे से खड़े एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे। सबकी आंखों में आंसू और डर था। शायद सब यही सोच रहे थे कि अब आगे क्या होगा?
कुछ ही देर में पुलिसवालों ने लॉकअप खोला और हमें अंदर धकेल दिया। हम लोग जैसे ही अंदर गए तो अंदर के सब लोग हम पर टूट पड़े। सब लोग हमारी जेबों को चैक करने लग पड़े।
एक अधेड़ उम्र के आदमी ने मेरे दोस्त की अंदर की जेब पर हाथ डालने की कोशिश की तो उस दोस्त ने कसकर ऊपर से पैंट पर हाथ रख दिया। उस व्यक्ति को पता चल गया कि मेरे दोस्त की जेब में रुपये हैं। उसने शोर करना शुरू कर दिया, ‘पैसे-पैसे।’
उसकी आवाज सुनते ही अधेड़ व्यक्ति के दो-तीन साथी मेरे दोस्त की जेब की तरफ बढ़े लेकिन पैसे बचाने के लिए उसने पूरा जोर लगा दिया, जिसके चलते उसने अपना हाथ जेब पर और कस दिया।
बाकी लोगों ने भी आवाज लगाई तो पुलिसवाले ने पूछा, ‘अबे शोर किस बात का हो रहा है?
उस अंधेरी कोठरी में दो-तीन आवाजें अंधेरे को चीरती हुई बाहर निकलीं, ‘इसकी जेब में पैसे हैं।’
पुलिसवाले ने जल्दी से लॉकअप खोला और हम लोगों को दोबारा से बाहर निकाल लिया। फिर से पीठ पर पटे मारता हुआ बोला, ‘किस-किस के पास पैसे हैं?’
मेरे दोस्त ने डरते-डरते जेब से सारे पैसे निकाले और टेबुल पर रख दिए। पुलिसवाले की जोरदार आवाज आई, ‘अबे कितने हैं?’
उसने डरी-सहमी आवाज में जवाब दिया, ‘जी... नौ हजार।’
जैसे ही उसने नौ हजार कहा, एक पुलिस वाला पटा लेकर उसकी पीठ पर मारने लगा। मारते-मारते कहने लगा, ‘हरामखोर तुम्हें मना किया था न एेसा करने को। तुमको बोला था न अपना सब कुछ जमा करवा दो। अंदर खून-खराबा हो जाता, तो कौन जिम्मदार था?’
कहता-कहता वह उसकी पीठ पर पटों की बरसात करता रहा और दोस्त रोता रहा। इसके बाद जब वो मार-मारकर हांफने लगा तो बोला, ‘साला... भेजा घुमा दिया इन लोगों ने। जो थोड़ी बहुत पी थी, वह भी उतार दी। अब तो बोतल भी खाली है। उस टी.टी.ई. ने एक ही बोतल दी थी और वह भी खाली हो गई।’
वह बिल्कुल गुर्राने के अंदाज में बोला, ‘अब भी किसी के पास कुछ है तो निकाल दे, वरना ऐसी खाल खींचूंगा कि जिंदगी भर याद रखोगे।’
उसकी बात सुनकर हम लोग अपनी जेबें टटोलने लगे। हालांकि हम जानते थे कि हमारी जेबों में कुछ भी नहीं है। सबने अपने पैसे पहले ही निकालकर दे दिए थे। उसके बाद उन्होंने फिर से हमें लॉकअप में धकेल दिया।
अब जब हम अंदर गए तो वे सब लोग हम पर टूटे नहीं बल्कि हमारे साथ सहानुभूति प्रकट करने लगे। अचानक यह परिवर्तन देखकर हम लोग हैरान थे। उन लोगों में से कुछ बताने लगे, ‘हम लोग उसी पर टूटते हैं, जो यहां नए मेहमान होते हैं। हमें पता है कि नये लोग जामा तलाशी के समय कुछ न कुछ जरूर छुपाकर रखते हैं।’
‘आप लोग तो किसी शरीफ खानदान से संबंध रखते हैं, जो इतने पैसे जेब में लिए घूम रहे हो।’ वे कहने लगे।
बातों ही बातों में वे हमारे साथ ऐसे घुलमिल गए, जैसे हमें पहले जानते हों। जब हमने उन्हें बताया ‘ये पैसे हमने विदेश जाने के लिए एजैंट को देने के लिए रखे हुए हैं।’ तो उनमें से एक बोला, ‘अब देखो... ये साले कितना वापस करते हैं।’
मैंने कहा, ‘मतलब...?’ तो उसने कहा, ‘मतलब यह कि जामा तलाशी में जो कुछ कागजों पर चढ़ाया जाता है, वही वापस मिलता है। अब पता नहीं क्या-क्या चीजें लिखी हैं और क्या-क्या नहीं। अरे... इन लोगों का पेट देख रहे हो न यह कभी नहीं भरता... साला समंदर से भी गहरा है। जैसे समंदर की गहराई नहीं आंकी जा सकती, ऐसे ही इनके पेट की भी नहीं।’
हम हैरानी से उनकी बातें सुन रहे थे और आशंकित होकर एक-दूसरे के चेहरे देख रहे थे।
फिर उनमें से एक बोला, ‘देखा नहीं, स्सा...ले खड़े-खड़े एक बोतल डकार गए और चंगे-भले खड़े हैं।’
उसकी बात सुनकर हम सब लोग चुप हो गए। एक सन्नाटा पसर गया।
मैंने अचानक पूछा, ‘आप लोग यहां किस जुर्म में बंद हैं?’
उनमें से एक बोला, ‘हमारा जुर्म कुछ नहीं है। हम लोग तो मेहमान हैं इधर के। अपना तो आना-जाना लगा ही रहता है।’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब यह कि हम लोग छोटे-मोटे चोर हैं। कभी किसी की पॉकेट मार ली तो कभी छोटी-मोटी चोरी कर ली। इसी चक्कर में हम लोग आते-जाते रहते हैं। एक तरह से हवालात हमारा दूसरा घर ही है।’
अभी हम बातें कर ही रहे थे कि मैंने देखा, सामने तीन लोग अंदर घुसे। उनमें से एक वही हमारा दोस्त था, जो पहले खिसक लिया था। साथ में जो दो लोग थे उन्हें मैं नहीं जानता था। उन्होंने आते ही पुलिस वालों से कुछ बातचीत की।
थोड़ी देर बाद एक पुलिसवाला हमारी तरफ देखते ही बोला, ‘किस्मत अच्छी है तुम लोगों की। नहीं तो सुबह पच्चीस दिसंबर की छुट्टी थी। उसके बाद इतवार था और तुम लोगों को कम से कम इतना समय तो यहीं सडऩा पड़ता।’
वह लडक़ा जो भाग गया था, सलाखों के पास आ गया और हमें सारी बात बताने लगा। उसने बताया कि उसके साथ आए लोगों में एक उसका भाई और दूसरा विदेश जाने वालों में से एक व्यक्ति था।
खैर, किसी तरह से जान बच गई। हम लोग रात के अंधेरे में लॉकअप से बाहर निकले। बाहर आकर दो टैक्सी लेकर अपनी चाल मेें पहुंच गए जहां एजैंट ने ठहराया हुआ था।
पैसे तो उन पुलिसवालों ने काफी रख लिए थे। जामा तलाशी के वक्त उन्होंने काफी पैसे रख लिए थे। फिर किसी तरह वहां के लोगों ने पैसे इकट्ठे करके ट्रैवल एजैंट को दिए। इस तरह बड़ी मुश्किल से वे लोग विदेश जा सके।
इसके बाद जितने दिन भी हम लोग वहां पर रहे, एक-दूसरे को हंसते हुए कहते थे, ‘वो देखो टी.टी.ई. आ गया।’
शुरू-शुरू में सब लोग उस तरफ देखते और सहम जाते लेकिन धीरे-धीरे हंसने लगे थे। लेकिन एक बात तो सबने पल्ले बांध ली थी, ‘बेगाने शहर में अगर कोई गाली भी दे, तो हाथ जोड़ दो क्योंकि अपनी गली में तो कुत्ता भी शेर होता है।’
वे लोग तो विदेश चले गए थे और मैंने भी फटाफट ट्रेन पकड़ी और जालंधर को निकल गया था। खैर, उस समय मुंबई ने मेरे साथ धोखा किया था। मुंबई ने मुझे निराश किया था लेकिन मेरा मन मुम्बई आने के लिए भटकता ही रहता। यह भटकन सारी जिंदगी किसी साये की तरह मेरे साथ चलती रही। पढ़ाई खत्म हो गई थी। बी.ए.एम.एस. करने के बाद एक अस्पताल में नौकरी की और कुछ समय के बाद अपनी क्लीनिक खोल ली। इस बीच शादी भी हो गई लेकिन मेरी जिंदगी की मृगतृष्णा जस की तस बनी रही। कालांतर में दो बेटों ने जन्म लिया। दोनों में अंतर लगभग दो साल का था। अभी वे छोटे थे कि मेरे दिमाग में फिर से मुम्बई जाने का भूत सवार हो गया।
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