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संस्कृत वांग्मय में धनुर्विज्ञान

संस्कृत वांग्मय में उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के साथ ही उच्चतम विज्ञान के भी दर्शन होते हैं अति प्राचीन काल से शारीरिक शिक्षा का चरमोत्कर्ष धनुर्वेद विज्ञान में अंतर्निहित है यहां विज्ञान से तात्पर्य प्रयोग विज्ञान अथवा विशिष्ट ज्ञान से है। प्राचीन आर्यावर्त के आर्य पुरुष विभिन्न अस्त्र शास्त्र विद्या में निपुण थे उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आततायिओ एवं दुष्टों का दमन करने के लिए विभिन्न अस्त्र शस्त्रों की भी सृष्टि की थी आर्यों की शक्ति धर्म स्थापना में सहायक होती थी न कि आतंक में । धनुर विज्ञान का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि वेदों की प्राचीनता।

वैदिक काल में वीरता और सैन्य बल का प्रतीक चिन्ह धनुष ही था इसका एकमात्र प्रयोजन राष्ट्र रक्षा ही थी। राष्ट्र की रक्षा बिना धनुर विज्ञान के संभव न थी अतः धनुष सैन्य शक्ति का पर्याय बन गया यजुर्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि धनुष से सभी दिशाएं जीती जा सकती हैं

धनवना गां धनवनाआजिम जयेम
धनवना तीव्रः समदो जयेम
धनुः शत्रोरपकामं कृणोंति
धनवना सर्वा: प्रदिशो जयेम (यजुर्वेद 29/39)

अथर्ववेद के एक सूक्त में धनुष धारण करके क्षत्रि तेज एवं बल से युक्त होने की कामना की गई है

धनरुहस्ताद, आददानों मृतस्य
सह क्षत्रेण वर्चसा बलेन
समाग्रभाय वसु भूरि प्रश्ठम,
अवांग त्वमेहयुप जीव लोकम, (अथर्ववेद 18 दो 60)

ऋग्वेद में भी गुरु बृहस्पति को वाण प्रक्षेपण में अत्यंत कुशल बताया गया है

ऋत ज्येन क्षेप्रेण ब्रह्मणों पति
यत्र वष्टि प्रतश्नोति धनवना
तस्य साध्वीरिंषवो याभिसयति
नृचक्षसो दृशये कर्ण योनमः ऋग्वेद

वे अपने अभीष्ट की प्राप्ति धनुष के बल से ही करते थे वीर पुरुष सदैव धनुष से सुसज्जित रहते थे उनके धनुष कभी प्रत्यंचा रहित नहीं रहते तथा तरकश कभी बाण से खाली नहीं रहते थे यजुर्वेद में वीर पुरुष के सशस्त्र रूप का वर्णन किया गया है

विज्यम धनु: कपदिर्नो विशल्यो बाणवँ उत
अनेन शस्त्रस्य या इषव आभुरस्य निषंगधि : यजुर्वेद 1610

सामवेद के एक मंत्र में भी वज्रधारी सैनिकों की रक्षा हेतु इंद्र से अनुरोध किया गया है साथ ही युद्ध में प्रयुक्त बाण के विजया होने की कामना भी की गई है

अस्माकं इंद्र: समृतेषु ध्वजेसु
अस्माकं या ईशावस्ता जयंतु सामवेद 21/2


धनुर्विज्ञान का औचित्य

राष्ट्र रक्षा एवं स्वयं की सुरक्षा करना ही धनुष विज्ञान का मुख्य प्रयोजन था धनुर विज्ञान का औचित्य धर्म स्थापना में था न कि आतंक में। प्राचीन काल में समाज की रक्षा का भार विशेष रुप से क्षत्रियों पर था क्षत्र शब्द का व्युत्पत्ति परकअर्थ होता है नाश होने से । महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में क्षत्रियों को स्वयं की एवं दूसरों की रक्षा करने वाला बताया है इसीलिए क्षत्रियों को धनुष धारण करना नितांत आवश्यक होता था । किसी भी धनुर्धर को दूसरों के द्वारा रक्षित होने की आवश्यकता नहीं रहती 1 महर्षि वशिष्ठ प्रणीत "धनुर्वेद संहिता" मैं कहा गया है कि--- दुष्टों डाकुओं सदा चोरों से सज्जनों का संरक्षण करना एवं प्रजा का पालन करना धनुर् विज्ञान का मुख्य प्रयोजन है ----यदि किसी गांव में एक भी अच्छा धनुर्धर होता था तो उससे एक समस्त ग्राम की रक्षा होती थी शत्रु उसके डर से भाग जाते थे शुक्र नीति के अनुसार धनुर्वेद विज्ञान द्वारा केवल धनुष संचालन का नहीं अपितु युद्ध उपयोगी समग्र शस्त्रों के निर्माण वाह प्रयोग संबंधी ज्ञान भी दिया जाता थ
मां कभी भभूति ने भी उत्तररामचरित में धनुर्वेद के रक्षात्मक स्वरूप का चित्रण किया है

धनुर्वेद के प्रवक्ता


धनुर्वेद के मूल प्रवक्ता भगवान शिव हैं सदाशिव से परशुराम जी ने प्राप्त किया महर्षि वशिष्ठ भी उनके सतीथर्य ही थे वशिष्ठ जी से विश्वामित्र ने प्राप्त किया प्रस्थान भेद नामक ग्रंथ में पाद चतुष्टय आत्मक धनुर्वेद को विश्वामित्र प्रणीत ही बताया गया है वशिष्ठ द्वारा उक्त धनुर्वेद में तंत्र युद्ध की प्रधानता है विश्वामित्र ने धनुर्वेद शास्त्र का संशोधन करके शास्त्रीय रूप देकर प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया था

धनुर्वेद का अधिकारी


द्विजत्व के संस्कार युक्त होने पर ही व्यक्ति धनुर्विद्या का अधिकारी होता था श्री कृष्ण और बलराम ने भी द्विजत्व संस्कार प्राप्त करके रहस्य युक्त धनुर्वेद विज्ञान को प्राप्त किया था संस्कार विहीन होने के कारण ही शूद्रों के धनुर्वेद में अनाधिकार का यदा-कदा ग्रंथों में उल्लेख मिलता है तथापि आपद धर्म के अनुसार शूद्रों को भी धनुर्वेद का अधिकारी कहां गया है महाभारत में एकलव्य की धनुर्वेद शिक्षण की कथा सुप्रसिद्ध है

धनुर्वेद के चारों पाद


अग्नि पुराण में धनुर्वेद को चतुरषठ पाद कहा गया है 1 दीक्षा 2 संग्रह 3 सिद्धि प्रयोग और 4 प्रयोग विज्ञान यह चार पांद कहे गए हैं अग्नि पुराण में 249/1 दीक्षा पाद में धनुष का लक्षण तथा अधिकारी का निरूपण किया गया है तथा धनुष शब्द से तात्पर्य धनुर्विद्या में प्रयुक्त आयुध से लिया गया है महाभारत की नीलकंठी टीका में दीक्षा शिक्षा आत्मरक्षा और उनके साधन इन्हें धनुर्वेद के चार पाद बताया गया है


धनुर्वेद शिक्षा


चतुर्पाद धनुर्वेद के अनुसार धनुर्वेद शिक्षा से अभिप्राय सैन्य शिक्षा ग्रहण किया गया है ऋग्वेद और सामवेद के सूक्त में कहां गया है


उद्धरषय मधवन न आयुध अन्युत, सत्वानाम मामकानाम मनांसि
उद्धत्रहन, वाजिनाम वाजिनानयुद्रथानाम जयताम यन्तुम घोषा:
ऋग्वेद 10 /103 /10 (सामवेद उत्तरांचिक 21/1)


अर्थात शस्त्र धारी वीरों के उत्साह को बढ़ाओ बलवान सैनिकों के मानसिक उत्साह को बढ़ाओ तथा शीघ्र गामी घोड़ों से युक्त रसों का जयघोष करो

इसी प्रकार आयुर्वेद के मंत्र यजुर्वेद 5/10 मैं सैन्य शिक्षा का उल्लेख मिलता है वेदों के अतिरिक्त स्मृतियों गृहय सूत्रों पुराणों रामायण तथा अनेक महाकाव्यों में धनुर्विज्ञान के स्वरूप शिक्षा व प्रयोग का व्यापक उल्लेख मिलता है

धनुर्वेद का प्रयोग


उपवेद विशेषत प्रायोगिक होते हैं इन प्रयोगों के बिना विज्ञान का भी लोप हो जाता है अतः उपदेश व विज्ञान के यथार्थ लाभ प्राप्ति हेतु प्रायोगिक शिक्षण निरंतर अभ्यास परम आवश्यक है प्रयोग की कमी के कारण धनुर्वेद विज्ञान की स्थिति वर्तमान में चिंताजनक हो गई है प्राचीन भारत में धनुर्वेद जैसे अद्भुत व अपूर्व सैन्य विज्ञान के अधिकाधिक प्रयोग के कारण ही वेद पुराण रामायण महाभारत एवं विभिन्न काव्य ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है रामायण काल महाभारत काल तथा बौद्ध काल में भी कुशल धनुर्धारी को ही श्रेष्ठ कन्या दी जाती थी सीता स्वयंवर वा द्रौपदी स्वयंवर की कथाएं जगत प्रसिद्ध है जैन आगम संवायांग सूत्र एवं रायपसैनी सूत्र मैं भी विभिन्न कलाओं के मध्य धनुर्वेद का उल्लेख है

धनुर्वेद में बाण का उपयोग


धनुर्विद्या में विभिन्न प्रकार के भयंकर बाण का उपयोग होता था इन विकराल भयंकर वाणों के समक्ष वर्तमान के विस्फोटक बम भी तुच्छ है यह वाण देवीय होते थे और मंत्रों द्वारा चलाए जाते थे प्रत्येक बाण पर विन विन देवता या देवी का अधिकार होता था इन्हें दिव्य या मात्रिक अस्त्र कहा जाता है कतिपय प्रमुख वाण का वर्णन किस प्रकार है

एक आग्नेय वाण

यहां विस्फोटक वाण है यह अग्नि वर्षा कर सब कुछ भस्मी भूत कर देता है इसका प्रतिकार पर्जन्य द्वारा संभव है

दो पर्जन्य

इस वाण के चलाने से कृत्रिम बादल बन जाते हैं और वर्षा होने लगती है बिजली कड़कती है और तूफान आ जाता है


3 वायव्य

इस वाण से भयंकर तूफान आता है और अंधकार छा जाता है


4 पन्नग


इस वाण प्रयोग से बहुत से सर्प पैदा होते हैं इसका प्रतिकार गरुण वाण द्वारा होता है

5 गरुण वाण

इस वाण के चलते ही गरुण उत्पन्न होते हैं जो सर्पों को खा जाते हैं


6 ब्रह्मास्त्र

यह अत्यंत विकराल अचूक अस्त्र है यह शत्रु का नाश करके ही छोड़ता है इसका प्रकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है अन्यथा नहीं

7 पाशुपत अस्त्र

इससे संपूर्ण विश्व का नाश हो जाता है यह वाण महाभारत काल में केवल अर्जुन के पास था

8 नारायण अस्त्र

यह भी पाशुपत के समान ही विकराल अस्त्र है इस नारायणस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है यह वाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई भी शक्ति इसका सामना नहीं कर सकती इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रता पूर्वक अपने को अर्पित कर दे इसकी एक और विशेषता है कि शत्रु कहीं भी हो यह वही जाकर उसका भेदन करता है इसके समक्ष झुक जाने या स्वयं को समर्पण कर देना ही श्रेष्ठ है

इन देवीय वाण की अतिरिक्त ब्रह्मशिरा एक अग्नि आदि अन्य प्रकार के अनेक बाणों का भी उल्लेख मिलता है

वर्तमान में महाराजा पृथ्वीराज के पश्चात इस बाण विद्या का सर्वथा लोप होता चला गया धनुर्वेद विज्ञान का प्रयोग मुख्यता भीलों के पास शेष है आज के अणु परमाणु बम जैसे विस्फोटक पदार्थों के मध्य में धनुर्वेद विज्ञान जैसे अद्भुत सैन्य विज्ञान का अपना अलग ही महत्व है । अतः वर्तमान युग में भी राष्ट्र रक्षा हेतु धनुर्वेद विज्ञान के प्रयोग पर बल दिया जाना आवश्यक है यद्यपि नवीन परिवेश में धनुर्विज्ञान पर पुनः ध्यान दिया जाने लगा है तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी प्रतियोगिताएं आयोजित की जाने लगी है इस विज्ञान को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है

इति