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संवेदना

बड़े दुःख की बात है कि रमाकांत पांडेजी की पत्नी नहीं रही। वे करीब पैंसठ वर्ष की थी। अचानक ही चक्कर आया और उन्हें एम्बुलेंस से हॉस्पिटल लाना पड़ा। पांडेजी के दोस्त पंकज श्रीवास्तव भागे-भागे अस्पताल गए और पांडेजी को आश्वस्त करते रहे कि वे जल्दी ही ठीक हो जायगी।                                                                                       वे दोनों आई सी यू के बाहर बैठे थे। पांडेजी को बुरे-बुरे खयाल आते रहे। आखिर उन्होंने निश्चय कर बेटे, बेटी को फोन कर इत्तला कर दी कि तुम्हारी माँ को हार्ट अटैक आया है। अस्पताल में भर्ती है। अभी डाक्टर ने बताया है कि हो सकता है बाईपास सर्जरी हो। तुम लोग आ जाओ, दूसरे दिन बेटी-दामाद और तीसरे दिन बेटे बहू आ गए। उनके आते ही एक अटैक और आया, और वे चल बसी।

पांडेजी श्रीवास्तवजी के कंधे पर सिर रखकर ख़ूब रोये। वे बुरी तरह टूट गए।  चालीस सालों का साथ छूट गया। अब कैसे बीतेगी? [ये तो अच्छा हुआ कि   बेटा बहू आ गए वरना वे तो अंतिम संस्कार भी ठीक से नहीं कर पाते। लाश घर लाए और श्मशान ले जाने की तैयारी करने लगे। ]

अंतिम संस्कार के बाद, श्मशान से लौटते हुए वे बिल्कुल खाली हो गए।  बेटे ने घर की  कमान संभाल ली थी, तीसरा होने के बाद, बारहवां भी हो गया।  इतने दिनों में भी पांडेजी अपने को व्यवस्थित नहीं कर पाए।

बेटा-बेटी लौट गए अपनी-अपनी दुनिया में। बेटे ने कहा भी कि साथ चलो तो उन्होंने मना कर दिया। महीने भर बाद आऊंगा। इतने दिनों से एक महरी घर के काम के लिये रखी थी उसे ही कहा कि बाबूजी जब तक है तुम काम करते रहना। फोन नम्बर देकर कहा कि कोई बात हो बता देना।

पांडेजी अवसाद से घिर गए। श्रीवास्तव आते तो घूमने जाने से मना कर देते।  

“पांडेजी मुझे देखो मेरी भी तो पत्नी चल बसी। आखिर तक कौन साथ देता है! किसी न किसी को तो पहले जाना है। दोनों एक साथ तो नहीं जा सकते। जब तक जान है जीना तो है ही। अकेलापन अगर आपको सालता है तो बेटे के यहाँ चले जाओ। अपनों का साथ रहेगा तो दिल बहल जायगा।” लेकिन वे वहाँ भी नहीं जाना चाहते थे. बोले, “यहीं ठीक हूँ।”

‘चलो मन्दिर तक ही चलो, वहीँ बैठेंगे’ श्रीवास्तव बोले.

 मन्दिर में कुछ वृद्ध जन आए हुए थे. सभी पांडेजी को सांत्वना देने लगे. ‘भाई हम सब अकेले है. लेकिन एक दूसरे का साथ है. एक दूसरे का संबल है. बीमार हो तो हम सब साथ है आपके. आप भी हमारी जरुरत में हमारे साथ रहेंगे. मौत तो हम सबको आनी है. उसकी क्या चिता करना!                                                                             

पेंशन है खर्चे के लिये किसी पर निर्भरता नहीं है. ईश्वर हम सबके साथ है. मौत तो ईश्वर का विधान है उसे तो वह स्वयं भी नहीं टाल सकता. आपका अहोभाग्य कि चालीस वर्ष साथ रहे.

चलो हम सब आरती में चलते हैं. वे सब खड़े हो गए और आरती में संलग्न हो गए घण्टे-घडियालों और नगाड़े की आवाजों ने पांडेजी के मन मस्तिष्क को सुन्न कर दिया. वे कुछ राहत महसूस करने लगे.

आज, पांडेजी खुद चलकर श्रीवास्तवजी  के पास आए. ‘आइए चाय पीकर चलते है.’ चाय पीने के बाद वे मन्दिर की ओर चले गए जहाँ और लोग भी बैठे थे.